मेरे मित्र अरविंद कुमार का इसी न्यूज पोर्टल पर 17 जनवरी को एक लेख प्रकाशित हुआ. उसका शीर्षक है ‘इस बार भाजपा के ‘जय श्रीराम’ हवा में आसानी से नहीं उड़ेंगे! अरविंद कुमार राजनीति विज्ञान के शोधार्थी हैं और एक प्रशिक्षित चुनावी विश्लेषक हैं. इसलिए अगर वह सपा-बसपा गठबंधन की कमजोरी के बारे में कुछ चिंता जाहिर कर रहे हैं, तो उसे गंभीरतापूर्वक लिया जाना चाहिए.
हवा में उड़ गए ‘जय श्रीराम’ की हकीकत
अरविंद लिखते हैं, ‘उत्तर प्रदेश की राजनीति, वहां का समाज और अर्थव्यवस्था काफी बदल चुकी है. ये 1993 नहीं है कि सपा-बसपा के आने भर से भाजपा बुरी तरह हार जाएगी.” अरविंद ने इसके पीछे कई तर्क दिए हैं. उसपर हम आगे चर्चा करेंगे. फिलहाल हम 1993 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव की चर्चा कर लेते हैं जिसमें सपा-बसपा का ऐतिहासिक गठबंधन हुआ था.
1993 का विधान सभा चुनाव बाबरी विध्वंस की पृष्टभूमि में हुआ था. भाजपा प्रचंड राम लहर पर सवार थी. उससे मुकाबले के लिए दो उदयीमान राजनीति पार्टियों सपा-बसपा ने गठबंधन किया. इस राजनीतिक मुकाबले को मंडल बनाम कमंडल की भी संज्ञा दी जाती है. इस चुनाव में भाजपा-177, सपा-109, बसपा-67, कांग्रेस -28, और जनता दल- 27 सीटें जीतने में कामयाब रही. मुलायम सिंह गठबंधन के सहयोग से मुख्यमंत्री बने. इसी चुनाव में ये नारा लोकप्रिय हुआ कि – मिले मुलायम कांशीराम, हवा में उड़ गए जय श्रीराम.
लेकिन चुनाव परिणाम देखने के बाद कहीं से ऐसा नहीं लगता कि भाजपा बुरी तरह हारी थी. बल्कि सपा-बसपा गठबंधन की तुलना में भाजपा की एक सीट ज्यादा ही थी. सच तो यह है कि भाजपा 1993 में हवा में नहीं उड़ी थी. वह हारी थी पर तब उसके पांव जमे हुए थे. अगर भाजपा इस गठबंधन के खिलाफ आगामी लोकसभा चुनाव में 1993 जैसा भी प्रदर्शन दोहरा पाती है तो वह संतुष्ट रहेगी. सवाल उठता है कि जो भाजपा 1993 में हवा में नहीं उड़ी थी, क्या वह 2019 में भी टिकी रह पाएगी?
1993 के बाद सपा, बसपा और भाजपा की ताकत का आकलन
1990 से 2000 तक भाजपा उत्तरप्रदेश में सबसे ताकतवर पार्टी थी. उसका वोट प्रतिशत 34 के आस पास स्थिर रहा. 2000 से 2014 के बीच भाजपा हाशिए पर चली गई. 2014 और 2017 में उसकी प्रचंड वापसी हुई. अब उसके पास 40 प्रतिशत के आसपास वोट है.1993 के बाद सपा-बसपा की ताकत बढ़ती ही गई. ये दोनों पार्टियां 1993 में उतनी मजबूत नहीं थीं जितनी आज हैं. 1993 में बसपा का वोट मात्र 11 प्रतिशत, जबकि सपा का 18 प्रतिशत था. दोनों का संयुक्त वोट प्रतिशत मात्र 29 ही था. यानी मात्र 29 प्रतिशत वोट के बावजूद सपा-बसपा गठबंधन ने भाजपा (34 प्रतिशत वोट) की राम लहर को रोक दिया था.
पहले से काफी मजबूत है सपा-बसपा
1993 के बाद किसी भी चुनाव में बसपा और सपा का वोट 20 प्रतिशत से कम नहीं हुआ. 2014 और 2017 का चुनाव दोनों पार्टियों के प्रदर्शन के लिहाज से सबसे बुरा था. फिर भी दोनों पार्टियों का वोट संयुक्त रूप से 41 और 44 प्रतिशत था. यह इस बात की गवाही है कि दोनों पार्टियों का 20+20 प्रतिशत ऐसा समर्थक ग्रुप है जो किसी भी परिस्थिति में इनके साथ है. आज का यह 40 प्रतिशत 1993 के चुनाव में सपा-बसपा को संयुक्त रूप से मिले 29 प्रतिशत वोट से काफी ज्यादा है. यह बढ़ा हुआ वोट प्रतिशत दोनों दलों की निरंतर बढ़ती हुई राजनीतिक ताकत का प्रमाण है. आज सपा-बसपा गठबंधन और भाजपा (एनडीए) का वोट प्रतिशत बराबर है. दोनों खेमे के पास लगभग 40 प्रतिशत वोटबैंक है. लेकिन भाजपा गठबंधन अपना सबसे शानदार और ऐतिहासिक प्रदर्शन करने के बाद भी जितना वोट पाता है, उतना तो सपा-बसपा गठबंधन सबसे बुरा और फिसड्डी प्रदर्शन करने के बाद भी पा जाता है. सपा-बसपा अपने पतन की हालत में भी भाजपा के चरमोत्कर्ष की बराबरी कर लेते है. ये है इनकी ताकत की बानगी.
सपा-बसपा के पास भी है बौद्धिक तबका
1993 के मुकाबले 2019 में सपा-बसपा के लिए एक और महत्पूर्ण परिवर्तन हुआ. 1993 में दोनों दलों को बौद्धिक और रणनीतिक सपोर्ट देने के लिए अपना कोई बड़ा शिक्षित मध्यवर्ग नहीं था. जो था भी वह बहुत छोटा था. रोजगार और शिक्षा के क्षेत्र में मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू होने के बाद पिछड़ों (खासकर मजबूत पिछड़ी जातियों) में एक शिक्षित मध्यमवर्ग उभरा. बसपा के बौद्धिक समर्थकों की संख्या भी बढ़ी है. किसी भी राजनीतिक पार्टी के लिए अपना एक शिक्षित मध्यवर्ग का समर्थन होना बहुत जरूरी है. ये शिक्षित मध्यमवर्ग ही सार्वजनिक जगहों पर अपने राजनीतिक दल के पक्ष में माहौल तैयार करता है. चट्टी- चौराहा, शहर-कस्बा, चाय -पान की दुकान, यूनिवर्सिटी-कॉलेज, मीडिया-सोशल मीडिया पर राजनीतिक, वैचारिक और बौद्धिक माहौल बनाने के लिए अब सपा और बसपा के पास भी एक जागरूक मध्यमवर्ग तैयार है. इस तरह बौद्धिक समर्थन के लिहाज से भी ये पार्टियां आज 1993 की तुलना में ज्यादा ताकतवर हुई हैं.
पिछड़ों का निर्णायक वोट किधर
इस बार पिछड़ों का वोट बहुत निर्णायक है. 2014 में मोदी को पिछड़ा नेता के रूप में प्रोजेक्ट किया गया जिसका अभूतपूर्व फायदा भाजपा को मिला. यह सिलसिला 2017 उत्तरप्रदेश विधानसभा में भी जारी रहा. इसी आधार पर माना जा रहा है कि गैरयादव ओबीसी सपा और बसपा से छिटक कर भाजपा में शिफ्ट हो चुका है. इसलिए भाजपा का पलड़ा भारी रहेगा. लेकिन भाजपा के साथ पिछड़ों का जुड़ना कोई नई बात नहीं है. 1993 के चुनाव में भाजपा के पास कल्याण सिंह, उमा भारती (लोध ओबीसी) और विनय कटियार, ओम प्रकाश सिंह संतोष गंगवार (कुर्मी ओबीसी) जैसे पिछड़े नेता था. इन नेताओं की वजह से ही शहर केंद्रित बनियों की पार्टी कहे जाने वाली भाजपा ग्रामीण, ओबीसी, किसान जातियों में अपना विस्तार कर पायी.
मौर्या के नाम पर वोट, सत्ता ठाकुर को
लेकिन योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने से स्थिति थोड़ी बदली है. उत्तरप्रदेश में भाजपा का हिंदुत्व, चुनाव में तभी सफल हुआ है जब उसका नेतृत्व कोई पिछड़ी जाति का नेता कर रहा हो. पूरे नब्बे के दशक में भाजपा ने उत्तर प्रदेश में बहुत शानदार प्रदर्शन किया क्योंकि उसका नेतृत्व पिछड़ी जाति के कल्याण सिंह, विनय कटियार, ओमप्रकाश सिंह कर रहे थे. आरएसएस प्रचारक गोविंदाचार्य की सोशल इंजीनियरिंग भी चल रही थी. लेकिन भाजपा ने जैसे ही इन तीनों पिछड़े नेताओं को दरकिनार कर राजनाथ सिंह, कलराज मिश्रा और लालजी टंडन जैसे सवर्ण नेताओं को आगे किया पार्टी की हालत फिसड्डी हो गई.
2017 में भी भाजपा ने एक ओबीसी केशव प्रसाद मौर्या को मुख्यमंत्री बनाने का वादा कर पिछड़ों का वोट तो ले लिया लेकिन मुख्यमंत्री एक सवर्ण अजय सिंह बिष्ट (योगी) को बनाया. इसका खामियाजा भाजपा को भुगतना पड़ सकता है. अखिलेश और मायावती आगामी चुनाव में अगड़ा बनाम पिछड़ा का विमर्श खड़ा कर पिछड़ी जातियों को अपने पक्ष में गोलबंद कर सकते हैं. और भाजपा की बेचैनी का असल कारण भी यही है.
अखिलेश-मायावती को भी पता है कि गैरयादव पिछड़ी जातियों का वोट निर्णायक है. इसलिए सपा ने निषाद ओबीसी (निषाद पार्टी), नोनिया ओबीसी (जस्टिस पार्टी), पसमांदा मुसलमान (पीस पार्टी) से गठबंधन किया. उत्तर प्रदेश में यादव, जाटव और मुसलमानों की संयुक्त आबादी 40 प्रतिशत है. ये 40 प्रतिशत पूरी तरह सपा-बसपा के साथ है. इसमें बाकी ओबीसी जातियों को जोड़ने की चुनौती है. जैसा गोरखपुर और फूलपुर उपचुनाव में हुआ. गोरखपुर में निषाद को टिकट दिया गया और फूलपुर में पटेल को. यही रणनीति 2019 में भी अपनाई जा सकती है.
2017 विधानसभा चुनाव में भाजपा ने बहुत चालाकी से सपा की छवि सिर्फ यादव जाति का प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टी के रूम में निर्मित कर दी. और गैरयादव ओबीसी का काफी वोट अपनी तरफ संगठित कर लिया. नतीजे में सपा-बसपा चुनाव बुरी तरह हार गए. इसके बाद अखिलेश ने पार्टी और अपनी छवि बदलने का काम शुरू कर दिया. अखिलेश अब अपने को बैकवर्ड या पिछड़ा नेता के रूप में पेश कर रहे हैं. वह ओबीसी की आबादी के अनुपात में हक और अधिकार देने की बात कर रहे हैं.
अखिलेश ने गोरखपुर में उपचुनाव से पहले कुछ नेताओं को आगे कर वहां पर कई ओबीसी सम्मेलन करवाए. ओबीसी जातियों का त्रिशक्ति सम्मेलन हुआ जिसमें निषाद, सैंथवार, पटेल, राजभर, मौर्य, विश्वकर्मा, जायसवाल, प्रजापति, गुप्ता, कुर्मी, यादव आदि जातियों की एकता बनाने पर बल दिया गया. ओबीसी को आबादी के अनुपात में 52 प्रतिशत आरक्षण की मांग उठी.
मामूली चीजों का अंकगणित
चुनाव में बहुत छोटी-छोटी और मामूली चीजें असर डालती हैं. उनका यहां जिक्र जरूरी है.
1- भाजपा को भले पिछड़े और कुछ दलित वोट देते हैं लेकिन अभी भी उसका स्थायी वोटबैंक बनिया और सवर्ण हैं. उत्तरप्रदेश में सवर्ण 20 प्रतिशत के आसपास हैं. लेकिन सवर्ण समुदाय उतने उत्साह से वोट देने नहीं जाता जितना दलित, अल्पसंख्यक और पिछड़े जाते हैं. यहां पर भी गठबंधन भाजपा के मुकाबले फायदे की स्थिति में है क्योंकि उसका समर्थक ग्रुप दलित, मुसलमान और ओबीसी भारी संख्या में और उत्साह से वोट देने जाता है.
2- मतदाताओं का एक ऐसा भी तबका है जो माहौल देख कर, जीतने वाले को वोट देता है. सपा-बसपा गठबंधन अपने पक्ष में माहौल बनाने में कामयाब हुआ है. ये माहौल गोरखपुर, फूलपुर और कैराना चुनाव का जब परिणाम आया तभी से बना हुआ है. इस तरह सपा-बसपा अपनी जीत का माहौल बना के चार से पांच प्रतिशत वोट अपनी तरफ स्विंग कर सकते हैं जो चुनावी परिणाम के लिहाज से बहुत निर्णायक होगा.
3- इस बार भाजपा के खिलाफ दोहरा सत्ता विरोधी रुझान है. भाजपा के 71 सांसद और 312 विधायक हैं. यानी उत्तरप्रदेश का लगभग हर कोना, हर गली, हर क्षेत्र भाजपा के सांसद और विधायक के दायरे में है. इसलिए एक जो स्वाभाविक सत्ताविरोधी रुझान होता है उसका नुकसान भी भाजपा को होगा.
2019 में जयश्रीराम सचमुच हवा में उड़ सकते हैं, जो दरअसल 1993 में नहीं हुआ था.
(अजय कुमार यादव, शोध छात्र, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली)