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Monday, 23 December, 2024
होममत-विमतइमरान ख़ान एक जिहादी टाइम बम पर बैठे हुए हैं, पुलवामा हमले के सबूत मांगना महज बहानेबाज़ी है

इमरान ख़ान एक जिहादी टाइम बम पर बैठे हुए हैं, पुलवामा हमले के सबूत मांगना महज बहानेबाज़ी है

दुनिया के अधिकतर देश पाकिस्तान के आचरण को समझते हैं, और यह मौलाना मसूद अज़हर के खिलाफ कार्रवाई की लगभग सार्वभौम मांग से स्पष्ट है.

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भारत और अधिक चिंतित हो रहे अंतरराष्ट्रीय समुदाय को इस बात पर आश्वस्त करने के बजाय कि पाकिस्तान अपने आतंकी राक्षसों से निपटने को लेकर गंभीर है, प्रधानमंत्री इमरान ख़ान ने पुलवामा हमले पर प्रतिक्रिया देने में कई दिन लगा दिए. मंगलवार को इस बारे में जब उन्होंने मुंह खोला तो बस जांच और भारत के ‘कार्रवाई योग्य खुफिया सूचनाएं पाकिस्तान से साझा करने’ की स्थिति में कार्रवाई करने के वादे को दोहराया भर.

पाकिस्तान स्थित आतंकवादी गुट जैश-ए-मोहम्मद द्वारा हमले की ज़िम्मेवारी लेना ही उसके खिलाफ पाकिस्तान की कार्रवाई के लिए पर्याप्त होना चाहिए. क्योंकि पाकिस्तान ने हमले की निंदा की है और वर्षों से वह आतंकवाद के खात्मे के अंतरराष्ट्रीय प्रयासों का हिस्सा होने का दावा करता रहा है.

परमाणु हथियारों की भयानक विनाशक क्षमता को अक्सर युद्ध को टालने के साधन के रूप में देखा जाता है. पर भारतीय उपमहाद्वीप के नेता गण और टेलीविज़न की शख्सियतें अपनी लापरवाह बयानबाज़ियों में, जैसा कि पुलवामा हमले के बाद भारत और पाकिस्तान दोनों ही तरफ देखी जा रही हैं, अक्सर परमाणु ताकत का ज़िक्र करते हैं.


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आतंकवादी हमलों, खास कर भारत के खिलाफ हुए हमलों, के बाद जांच का वादा और कार्रवाई लायक खुफिया सूचनाओं की मांग करना पाकिस्तान की आम प्रतिक्रिया बन गई है. भारतीय संसद पर 2001 में हुए हमले, नवंबर 2008 के मुंबई हमले और इनके बीच और बाद की अवधि में हुए हमलों के बाद भी यही देखने को मिला था.

मुंबई हमले के लिए ज़िम्मेवार लश्कर-ए-तैयबा और पुलवामा समेत कई हमलों की ज़िम्मेवारी लेने वाला जैश पाकिस्तान में जिस तरह खुलेआम सक्रिय है, इसके मद्देनज़र जांच का वादा और कार्रवाई योग्य खुफिया सूचनाओं की मांग बहानेबाज़ी के अलावा और कुछ नहीं है.

दुनिया के अधिकतर देश अब पाकिस्तान के इस आचरण को पहचानते हैं, और यह बात जैश तथा इसके संस्थापक मौलाना मसूद अज़हर के खिलाफ कार्रवाई की लगभग सार्वभौम मांग से ज़ाहिर है. पाकिस्तानी पक्ष की यह मान्यता, संभवत: सही है कि उनके पास परमाणु हथियारों का होना पाकिस्तान स्थित आतंकवादियों के हमले की स्थिति में भारत की त्वरित कार्रवाई की संभावना को कम कर देता है.

भारत में हमले को लेकर गुस्से और आक्रोश का माहौल है, लेकिन रावलपिंडी-इस्लामाबाद के अधिकारी ये सोच रहे हैं कि अपने प्रतिरोधी रुख के सहारे पहले भी वह ऐसी परिस्थितियों से निपट चुके हैं और इस बार भी वे इसमें सफल होंगे. पर, बारंबार यही जोखिम भरा रवैया अपनाने से इसकी उपयोगिता घटती जा रही है.

यह सही है कि भारत पर बल प्रयोग का आंतरिक दबाव बढ़ रहा है, पर भारत अंतत: अपने फायदे-नुकसान के हिसाब से कदम उठाएगा, न कि शाम को टीवी की बहसों में युद्ध समर्थकों द्वारा की जाने वाली घोषणाओं के अनुरूप.

पाकिस्तान के टुकड़े करने और उसे दंडित करने की बातें करना आसान है, जबकि ऐसा करके दिखाना या ऐसी कार्रवाइयों के परिणामों पर गंभीरता से विचार तक करना मुश्किल है.

यों तो जैश-ए-मोहम्मद पाकिस्तान स्थित संगठन है और बहावलपुर स्थित अपने वृहद मुख्यालय से संचालित होता है, पर इस बार वह भारतीय सैनिकों को मारने के लिए एक कट्टरपंथी युवा कश्मीरी का इस्तेमाल करने में सफल रहा.

आवेश का मौजूदा पल बीतने के साथ ही, भारत को इस बात पर विचार करना होगा कि हमला कैसे और क्यों हुआ, और भविष्य में ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थितियों से बचने के लिए क्या कदम उठाने होंगे. परंतु भारत की कश्मीर समस्या पाकिस्तान के जिहादी संकट का न तो कारण है, और न ही समाधान.

यदि इमरान ख़ान और उनके सैन्यवादी संरक्षक अपने अतिराष्ट्रवादी भावनाओं से ऊपर उठकर सोचें तो उन्हें एहसास हो जाएगा कि पाकिस्तान स्थित जिहादी गुटों के आतंकवादी हमलों और उनका निशाना बने देशों की प्रतिक्रिया को हमेशा ही अपने अनुकूल रखना उनके लिए संभव नहीं होगा.

जब जैश-ए-मोहम्मद ने भारतीय सुरक्षा बलों के खिलाफ पुलवामा हमले को अंजाम दिया, लगभग उसी समय ईरान सरकार ने पाकिस्तान स्थित एक अन्य गुट जैश-अल-अद्ल को ईरान में हमलों के लिए ज़िम्मेवार ठहराया.

पाकिस्तान स्थित जिहादियों के खिलाफ पड़ोसी देशों में – और शेष विश्व में – आम सहमति के खतरे से पाकिस्तान को आगाह करने के लिए आपको ईरान की मुल्लों की सरकार का समर्थक होने या अन्य जगहों पर अतिवाद और आतंकवाद को ईरानी समर्थन से आंख मूंदने की ज़रूरत नहीं है.

अमेरिका ने पुलवामा हमले की दो टूक शब्दों में निंदा की और इसे ‘पाकिस्तान स्थित एक आतंकवादी संगठन की जघन्य कार्रवाई’ करार दिया. उसने पाकिस्तान से ‘अपनी ज़मीन से संचालित तमाम आतंकवादी संगठनों को समर्थन और पनाह देना बंद करने’ को कहा है.

ज़्यादातर विषयों पर अमेरिका और ईरान में सहमति दुर्लभ है, लेकिन इस बात पर दोनों स्पष्ट रूप से सहमत हैं कि पाकिस्तान विभिन्न आतंकवादी गुटों के लिए सुरक्षित पनाहगाह और अड्डा बन गया है.

सऊदी अरब के निकट सहयोगी और पाकिस्तान के मित्र देश संयुक्त अरब अमीरात ने भी कुछ वर्ष पहले, अमेरिका और भारत की तरह ही, जैश-ए-मोहम्मद को एक आतंकवादी संगठन करार दिया था.

खबर है कि जैश के सरगना मसूद अज़हर को वैश्विक स्तर पर आतंकवादी घोषित कराने के लिए फ्रांस संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में प्रस्ताव लाने की तैयारी कर रहा है, और चीन भी पुलवामा जनसंहार के बाद पाकिस्तान के समर्थन में खुलकर सामने नहीं आया है. पाकिस्तान पर आतंकवादियों के वित्तीय लेन-देन पर रोक लगाने में नाकामी को लेकर फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स (एफएटीएफ) के प्रतिबंधों का खतरा भी बना हुआ है.

परंतु लगता है इमरान ख़ान की सरकार और पाकिस्तान का सैनिक नेतृत्व इन आसन्न खतरों से बेपरवाह है. रावलपिंडी-इस्लामाबाद नेतृत्व का अहंकार पाकिस्तान के परमाणु ताकत और उसके ‘अफ़ग़ानिस्तान संकट के समाधान की कुंजी’ होने को लेकर है.

जिहादी गुटों के समर्थक और ‘शीदा टल्ली’ (घंटी की तरह बजते रहने वाला रशीद) के उपनाम से चर्चित पाकिस्तान के रेल मंत्री शेख रशीद अहमद – जनरल मुशर्रफ़ की सैनिक सरकार में भी शामिल थे – ने परमाणु हमले की चेतावनी देते हुए कहा है कि यदि भारत ने पाकिस्तान के खिलाफ कार्रवाई की तो ‘हिंदू मंदिरों में घंटियों का बजना हमेशा के लिए बंद हो जाएगा.’

और, अफ़ग़ानिस्तान में पाकिस्तान के राजदूत ज़ाहिद नसरुल्ला ने अफ़ग़ानिस्तान की बात छेड़ते हुए कहा है कि यदि भारत ने पुलवामा हमले पर जवाबी कार्रवाई की तो उसका असर अमेरिका और अफ़ग़ान तालिबान के बीच की शांति वार्ताओं पर पड़ेगा.

अभी भी वक्त है कि पाकिस्तान के नीति-नियंता तेवर दिखाने और बयानबाज़ी करने से परे, निरंतर जारी जिहाद के दीर्घकालीन परिणामों पर गौर करें.

जम्मू कश्मीर संबंधी भारत की नीति में चाहे जो भी खामियां हो, 1989 से ही रुक-रुक कर किए जा रहे आतंकवादी हमलों ने कश्मीरी मुसलमानों का न तो कुछ भला किया है और न ही कश्मीर विवाद उस समाधान की ओर बढ़ा है, जिसकी पाकिस्तान को अपेक्षा है.

अभी भले ही जैश-ए-मोहम्मद जैसे संगठन पाकिस्तान के भीतर अच्छा बने फिरते हों और भारतीय इलाके में ही हमले करते हों, पर उन्होंने विगत में पाकिस्तानी ज़मीन पर भी हमले किए हैं.

9/11 के बाद अमेरिका से जनरल मुशर्रफ़ के सहयोग के खिलाफ़ जैश आतंकियों ने इस्लामाबाद, कराची, मरी, तक्षशिला और बहावलपुर में पाकिस्तानी अधिकारियों के खिलाफ आत्मघाती हमले किए थे. अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान शासन के खात्मे के तुरंत बाद के दिनों में जैश पाकिस्तान में चर्चों, शिया मस्जिदों और राजनयिक मिशनों पर हमलों में शामिल रहा था.


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जैश पर 2002 में औपचारिक तौर पर प्रतिबंध लगाने के बाद जिन्होंने मसूद अज़हर को आतंकवादियों को भर्ती करने, उन्हें एकजुट करने और प्रशिक्षण देने की छूट दी, हो सकता है उन्हें उसकी भारत और हिंदू विरोधी गतिविधियां उपयोगी लगती हों. पर जैसा कि हिलेरी क्लिंटन ने ठीक ही कहा था, ‘आप अपनी दहलीज़ पर सांप पाल कर यह उम्मीद नहीं कर सकते कि वे सिर्फ आपके पड़ोसियों को ही काटेंगे. अंतत: सांप उसको भी डंसेंगे जिसने उन्हें पाल रखा है.’

यदि भारत के खिलाफ समय-समय पर उन्माद फैलाने – दुर्भाग्य से बढ़ती आवृत्ति के साथ भारत में इस शगल की नकल हो रही है – के अलावा भी पाकिस्तान का कोई राष्ट्रीय उद्देश्य है, तो वह जैश के खिलाफ कार्रवाई करे और भविष्य में आतंकवादी हमले नहीं होने देने के लिए भारत और अंतरराष्ट्रीय समुदाय के साथ सहयोग करे.

यदि उसने ऐसा नहीं किया, तो जवाबी कार्रवाई के भारत के अपेक्षाकृत सीमित विकल्पों के चलते गंभीर परिणामों से बचने में उसकी ‘सफलता’, भारी कीमत वाली जीत साबित होगी. तकरीबन सभी पड़ोसी राष्ट्रों द्वारा एक खतरे के रूप में देखा जाना और जिहादी टाइम बम पर बैठे रहना विकास और समृद्धि की रणनीति नहीं कही जा सकती.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(हुसैन हक़्क़ानी वाशिंगटन डीसी स्थित हडसन इंस्टीट्यूट में दक्षिण एवं मध्य एशिया विभाग के निदेशक हैं. वह 2008-11 की अवधि में अमेरिका में पाकिस्तान के राजदूत थे. ‘रीइमेजिंग पाकिस्तान’ उनकी नवीनतम पुस्तक है.)

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