6 नवंबर को चुशुल में भारत और चीन के बीच कोर कमांडर स्तर की आठवें दौर की बातचीत हुई. बातचीत के बाद दोनों पक्षों के पदाधिकारियों ने कूटनीतिक बयान जारी किए जो संकेत देते हैं कि कोई हेडवे (प्रगति) नहीं बन पाया है और यथास्थिति जारी रहेगी
29/30 अगस्त की रात के बाद से जब भारत ने कैलाश श्रंखला की ऊंचाईयों पर कब्ज़ा किया, सैन्य वार्ता के छठे और सातवें दौर में पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) की हठ थी कि डिसइंगेजमेंट प्रक्रिया की शुरूआत हमारे कैलाश श्रंखला से पीछे हटने से होनी चाहिए क्योंकि ‘यथास्थिति में बदलाव’ भारत ने किया था. देपसांग मैदानों और पैंगांग त्सो के उत्तर को लेकर बीजिंग अस्पष्ट बना रहा और दावा करता रहा कि उसने 1959 की क्लेम लाइन के हिसाब से सिर्फ अपने इलाके की रक्षा की है.
लेकिन भारत ने सही कहा कि उसने कभी 1959 की क्लेम लाइन को नहीं माना और ये चीन है जिसने एकतरफा तौर पर वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) की स्थिति को बदला है और 1993 के समझौते को तोड़ा है. कैलाश पर्वत श्रंखला पर भारत ऊपर एलएसी तक सिर्फ पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) की योजना को रोकने के लिए गया, जो यथास्थिति को बदलना चाह रहा था. भारत ने यथापूर्व स्थिति बनाए रखने पर भी ज़ोर दिया.
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नए ‘समझौते’ में कैलाश श्रंखला पर चीन की निगाहें
11 नवंबर को एक चौंकाने वाले घटनाक्रम में ‘विश्वसनीय सूत्रों’- अनौपचारिक सैन्य/सरकारी ब्रीफिंग- का हवाला देकर मीडिया में खूब कयास लगाए जा रहे थे कि आठवें दौर की वार्ता के दौरान कैलाश रेंज और पैंगांग त्सो के उत्तर में, पीछे हटने को लेकर ‘सहमति’ बन गई है.
ऐसा लगता है कि ये एक अदला-बदली का समझौता है जिसमें पीएलए को फिंगर 8 के पूर्व (पैंगांग त्सो के उत्तर) में पीछे हटना है और हमें कैलाश रेंज से पीछे आना है. पैंगांग त्सो के उत्तर में हम पीछे हटकर, धन सिंह थापा चौकी पर आ जाएंगे, जो फिंगर 3 के पश्चिम में है. फिंगर 3 और 8 के बीच एक बफर ज़ोन होगा, जहां कोई तैनाती या गश्त नहीं की जाएगी. कैलाश रेंज पर पीएलए ब्लैक टॉप और दूसरी जगहें खाली करेगी और हम भी ऐसा ही करेंगे. ऐसा माना जा रहा है कि पूरी कैलाश रेंज एक बफर ज़ोन होगी. पीछे हटने की प्रक्रिया तीन चरणों में होगी जिसकी शुरुआत दिवाली के आसपास हो सकती है.
लेकिन देपसांग मैदानों में पीछे हटने का कोई ज़िक्र नहीं है. सूत्रों ने इशारा किया कि ये मोदी शासन से पहले की समस्या है. मेरे विचार में ऐसा नहीं है और ऐसा लगता है कि हम एलएसी पर अपनी ओर एक विशाल बफर ज़ोन बनाने पर राज़ी हो गए हैं जहां हम कोई तैनाती (हमने कभी नहीं की) या गश्त नहीं करेंगे.
ये उल्लेख करना उचित है कि सभी बफर ज़ोन्स जिनके बनाए जाने की संभावना है, वो एलएसी पर हमारी ओर हैं जिससे हम गश्त, तैनाती या इनफ्रास्ट्रक्चर विकसित करने के अधिकार से वंचित हो जाते हैं, जो हमारे पास अप्रैल 2020 तक था. सैन्य क्षमताओं के मामले में चीन के पक्ष में भारी अंतर को देखते हुए इस तरह का समझौता होना ही था. बल्कि अगस्त के अंत तक मैं भी इसी की वकालत कर रहा था. कैलाश रेंज पर कब्ज़ा करने के बाद स्थिति बदल गई थी और हमें अप्रैल 2020 की यथापूर्व की स्थिति पर ज़ोर देना चाहिए था.
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कैलाश रेंज और 1959 क्लेम लाइन
कैलाश श्रंखला एक ऐसा इलाका है जहां 1959 क्लेम लाइन की रेखा, भारत को एक बड़ा रणनीतिक फायद देती है और 1962 के बाद से पहली बार, हम इसे मज़बूती से रोके हुए हैं. इसकी वजह से पीएलए का वो रणनीतिक फायदा खत्म हो जाता है जो उसे देपसांग मैदानों, हॉट स्प्रिंग्स-गोगरा और पैंगांग त्सो के उत्तर में अपने ऑपरेशंस से हासिल हुआ था.
1962 में भी दोनों पक्ष कैलाश रेंज पर कब्ज़े के लिए लड़े थे. 27 अक्टूबर तक चीन सभी क्षेत्रों में अपनी 1959 क्लेम लाइन तक पहुंच गया था. लेकिन वो नहीं चाहता था कि हम कैलाश रेंज पर बने रहने का फायदा उठाएं. 1959 क्लेम लाइन कैलाश रेंज की चोटी के ऊपर से होकर गुज़रती है, सिवाए ब्लैक टॉप क्षेत्र के जो इसके पूर्व में है. चीन अभी भी दावा कर सकता था कि उसने अपनी क्लेम लाइन का उल्लंघन नहीं किया था. 24 अक्टूबर 1962 को रेडियो पेकिंग ने घोषणा की कि पूर्वी लद्दाख में उनका अगला लक्ष्य चुशुल था.
1962 में सेना मनोवैज्ञानिक तौर पर ढेर हो गई और उसने कैलाश रेंज और चुशुल सेक्टर को छोड़ दिया जबकि सैन्य दृष्टि से इसकी कोई ज़रूरत नहीं थी. मैं 1962 में कैलाश रेंज और चुशुल से हमारे पीछे हटने के हालात का विश्लेषण करता हूं और बताता हूं कि अब हमें वहां से क्यों पीछे नहीं हटना चाहिए.
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भारतीय सेना ने दृढ़ संकल्प दिखाया
24 अक्टूबर 1962 तक लद्दाख की रक्षा का ज़िम्मा 114 इनफैंट्री ब्रिगेड के पास था. 20 अक्टूबर 1962 से शुरू होकर 48 घंटों में डीबीओ, गलवान, हॉट स्प्रिंग्स और सिरिजाप सेक्टर्स हाथ से निकल चुके थे और सैनिक पीछे हट चुके थे.
चुशुल सेक्टर पर 1/8 गोरखा रायफल्स का कब्ज़ा था, पैंगांग त्सो के उत्तरी छोर पर 5 जाट रेजिमेंट लुकुंग और फोबरांग को रोके हुए थी. 28 अक्टूबर तक सिंधु नदी सेक्टर में 7 जम्मू-कश्मीर मिलीशिया भी वापस दुंगती में आ गई थी. 28 अक्टूबर से 17 नवंबर के बीच लड़ाई शांत थी.
भारतीय सेना ने आनन-फानन में हवाई और सड़क मार्ग से लद्दाख में सैनिक भेजकर ज़बर्दस्त संकल्प का परिचय दिया. 26 अक्टूबर को लेह में एचक्यू 3 इनफैंट्री डिवीज़न स्थापित की गई.
114 इनफैंट्री ब्रिगेड को जिसमें दो अतिरिक्त बटालियनें थीं- 13 कुमाऊं और 1 जाट- चुशुल और लुकुंग-फोबरांग सेक्टर की रक्षा करने का आदेश दिया गया. 70 इनफैंट्री ब्रिगेड को इंडस वैली सेक्टर की, और 163 इनफैंट्री ब्रिगेड को लेह की रक्षा के लिए तैनात किया गया. खारदुंग ला के उस पार सासेर ला के रास्ते की रक्षा के लिए एक अस्थाई टुकड़ी मौजूद थी.
लेकिन इस योजना में एक रणनीतिक खामी थी. इसका फोकस लेह की रक्षा पर था जो अग्रिम पंक्ति (मौजूदा सड़क द्वारा) से 280 किलोमीटर पीछे था जिसके नतीजे में चुशुल की रक्षा के लिए संसाधनों की कमी पड़ गई. अभी तक हम ये समझ रहे थे कि पूर्वी लद्दाख में पीएलए 1959 क्लेम लाइन को पार नहीं करेगी जो पीछे मुड़कर देखने पर सही लगता था.
लेकिन 24 अक्टूबर 1962 को जब रेडियो पेकिंग ने अगला लक्ष्य चुशुल बताया, तो ये मान लिया गया कि 1959 क्लेम लाइन को पार किया जाएगा और लेह उनका एक तार्किक रणनीतिक लक्ष्य होगा. लेकिन चीनियों का असली लक्ष्य कैलाश रेंज था और वो वहीं रुक गए.
पीएलए के पास और अधिक संसाधन या रसद नहीं थी कि वो और ऑपरेशंस कर पाते. उसने लद्दाख के लिए सिर्फ एक डिवीज़न रखी थी जो काराकोरम से डेमचोक तक फैली हुई थी. बल्कि 27 अक्टूबर 1962 को डेमचोक इलाके पर हमला करने के लिए पीएलए को अपने सैनिकों को फिर से बटोरना पड़ा था. फोज़ 2 के लिए उसे फिर यही करना पड़ा और चुशुल सेक्टर में कार्रवाई के लिए वो बमुश्किल एक रेजिमेंट जुटा पाई. इसलिए फ्रंटलाइन के पास पीएलए सिर्फ सीमित कार्रवाई करने में सक्षम थी. इसके अलावा सर्दियां आ रहीं थीं और नवंबर के बाद ऑपरेशंस बहुत कम हो गए. पीएलए की ताकत का अंदाज़ा लगाने के लिए हवाई या ज़मीनी सैनिक परीक्षण की कोई कोशिश नहीं की गई.
एचक्यू वेस्टर्न कमांड/15 कोर/3 इनफैंट्री डिवीज़न की त्रुटिपूर्ण योजना, आगे की घटनाओं के लिए काफी हद तक ज़िम्मेवार थी. हमारा फोकस लेह की रक्षा हो गया जिसकी वजह से हमें 200 किलोमीटर पीछे आना पड़ा जबकि 20 नवंबर के बाद चीनियों ने एक भी फायर नहीं किया था.
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चुशुल की रक्षा
चुशुल और लुकुंग की रक्षा के लिए फिर से मज़बूत की गई 114 ब्रिगेड को चार बटालियनों के साथ इस तरह तैनात किया गया:
· 13 कुमाऊं एक-एक कंपनी के साथ मगर हिल और पॉ हिल को रोके हुए थी और एक अतिरिक्त सेक्शन के साथ एक कंपनी रेज़ांग ला पर थी. बटालियन हेडक्वार्टर और एक कंपनी, ट्रैक जंक्शन के इलाके में थी जो एयरफील्ड के दक्षिण में था. 5 जाट की एक कंपनी जिसमें एक प्लाटून कम थी, त्साका ला को रोके हुए थी जो चुशुल घाटी और इंडस घाटी के बीच का रास्ता था.
· 1/8 गोरखा रायफल्स के पास एक कंपनी गुरुंग हिल पर थी, एक कंपनी प्वॉइंट 5167 के उत्तर में थी, एक कंपनी स्पानगर गैप और बटालियन एचक्यू की रक्षा में थी जबकि एक कंपनी एयरफील्ड पर थी.
. 1 जाट की एक कंपनी जिसमें एक प्लाटून कम थी, किसी उभयचर हमले के लिए जेटी एरिया में थी, एक अतिरिक्त प्लाटून के साथ दो कंपनियां थाकुंग हाइट्स और बटालियन एचक्यू पर थीं और एक कंपनी चुशुल गांव के पास गोम्पा हिल पर थी.
· 5 जाट लुकुंग पर तैनात थी जबकि 13 कुमाऊं के अंतर्गत एक प्लाटून कम के साथ एक कंपनी त्साका ला पर थी.
· 13 फील्ड रेजिमेंट की एक बैटरी, 25 पाउंडर गन्स के साथ ब्रिगेड को सपोर्ट कर रही थी. सीमित रेंज की वजह से बैटरी को बांटना पड़ा और गुरुंग हिल के दक्षिण और मगर हिल पर एक एक टुकड़ी तैनात की गई.
· एएमएक्स-13 टैंक्स की दो टुकड़ियां, 26 अक्टूबर को हवाई रास्ते से बुलाई गईं थीं और उन्हें गुरुंग हिल के बस पर रखा गया था ताकि दुश्मन टैंकों को स्पैंगुर गैप तक पहुंचने से रोका जा सके और गुरुंग हिल को सपोर्ट किया जा सके.
· ब्रिगेड को इंजीनियर्स की एक कंपनी सपोर्ट कर रही थी और स्पैंगुर से आने वाले रास्ते पर बारूदी सुरंगें बिछा दी गईं थीं.
18 नवंबर की सुबह सवेरे पीएलए ने कैलाश रेंज पर हमला कर दिया. एक-एक प्रबलित बटालियन के साथ, गुरुंग हिल और रेज़ांग ला पर एक साथ हमला किया गया. 18 नवंबर को 2200 बजे तक रेज़ांग ला हाथ से चला गया. गुरुंग हिल पर 19 नवंबर तक लड़ाई चलती रही और चीनी केवल अधिक ऊंचाइयों पर क़ब्ज़ा कर पाए. स्पैंगुर गैप के पास निचली हाइट्स अभी भी हमारे हाथ में थीं.
न जाने क्यों, रेज़ांग ला के खोने और गुरुंग हिल को आंशिक रूप से खोने के बाद जहां दो कमपनियां जमी हुईं थीं, पीछे हटने का आदेश दे दिया गया. कैलाश रेंज के ऊपर और घाटी में मौजूद सभी चौकियां, जो 10 इनफैंट्री के कब्ज़े में थीं, दुश्मन के संपर्क में आने से पहले ही 19-20 नवंबर की रात को उन्हें पीछे हटाकर, चुशुल बाउल के पश्चिम की पहाड़ियों पर बुला लिया गया. सिर्फ यही नहीं 21 नवंबर को पूरी ब्रिगेड चुशुल से पीछे हट गई.
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पराजय का विश्लेषण
114 ब्रिगेड के पास चुशुल की रक्षा के लिए पर्याप्त सैनिक थे. लेकिन उसकी सामरिक तैनाती में खामी थी. ब्रिगेड ने ब्लैक टॉप को लेने की कोई कोशिश नहीं की जो स्पैंगुर गैप के उत्तर में कैलाश रेंज में सबसे अहम थी. शुरुआती स्टेज में पीएलए का इस पर मज़बूती से कब्ज़ा नहीं था और इसे आसानी से लिया जा सकता था. इसके नतीजे में, चीनी गुरुंग हिल पर हावी हो गए और उन्होंने उस पर ऊपर से हमला कर दिया. इसी तरह स्पैंगुर गैप के दक्षिण में भी रेज़ांग ला और मगर हिल के बीच सबसे अहम जगह, मुखपारी पर भी कब्ज़ा नहीं किया गया. दो चौकियों के बीच दस किलोमीटर की दूरी थी.
इस तरह रेज़ांग ला पूरी तरह अलग पड़ गया. पीएलए उसे उत्तर और दक्षिण से घेरकर, पीछे से हमला करने में कामयाब हो गई. समस्या इसलिए और बढ़ गई के ये रेडियो संचार की रेंज से बाहर था और लड़ाई के शुरू होने पर टेलीफोन लाइनें काट दी गईं थीं.
गोलाबारी की सपोर्ट सीमित थी- सिर्फ एक आर्टिलरी बैटरी उपलब्ध थी. सीमित रेंज के कारण रेज़ांग ला के पीछे तोपखाने की कोई सपोर्ट नहीं थी. इस स्थिति के लिए वरिष्ठ कमांडर ज़िम्मेवार थे. 15 नवंबर तक हमारे विमान चुशुल में उतर रहे थे. 26 अक्टूबर को वहां छह टैंक उतारे गए थे. अगर इच्छा होती तो सड़क या हवाई रास्ते से कम से कम दो आर्टिलरी रेजिमेंट्स मुहैया कराई जा सकती थीं.
ब्रिगेड को पीएलए की ताकत का कोई अंदाज़ा नहीं था. कैलाश रेंज से आगे कोई गश्ती दल नहीं भेजे गए और हवाई फोटोग्राफी से भी कोई निरीक्षण नहीं किया गया. अगर ये कर लिया जाता तो कमांडरों को पता चल जाता कि पीएलए के पास हमले के लिए सिर्फ दो बटालियनें उपलब्ध थीं. गुरुंग हिल और मगर हिल पर हमले के बाद पीएलए का उत्साह ठंडा पड़ गया था. सर्दियों के आगमन के साथ ही वो हमले को और आगे ले जाने में सक्षम नहीं थी.
ब्रिगेड रक्षा में निष्क्रिय थी और उसने कोई स्पॉइलिंग अटैक या जवाबी हमले नहीं किए. सैनिक पर्याप्त संख्या में उपलब्ध थे. घाटी में तैनात तीन कंपनियां रिज़र्व के तौर पर मौजूद थीं. 1 जाट पर तो तोपों से कोई हमला भी नहीं हुआ था और एक कंपनी को पीछे थाकुंग हाइट्स पर छोड़ते हुए उसे जवाबी हमले के लिए इस्तेमाल किया जा सकता था.
कैलाश रेंज से पीछे हटने के लिए ब्रिगेड कमांडर पूरी तरह दोषी है. आर्मी कमांडर, कोर कमांडर और डिवीज़नल कमांडर चुशुल छोड़ने के ज़िम्मेवार हैं. 200 किलोमीटर आगे बढ़कर लेह तक आना तो दूर, पीएलए के पास चुशुल में ऑपरेशंस को आगे बढ़ाने की भी क्षमता नहीं थी.
हमें कैलाश रेंज से पीछे नहीं हटना चाहिए
कैलाश रेंज हमें स्पैंगुर त्सो-रुदोक इलाके में वही रणनीतिक फायदा पहुंचाती है जो डीबीओ सेक्टर में पीएलए के पास है. वहां पर स्थाई तैनाती के लिए हमें ज़रूरी इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार करना चाहिए. तनाव बढ़ने की स्थिति में हमें ब्लैक टॉप और कैलाश रेंज पर पूर्व की तरफ निचली हाइट्स पर कब्ज़ा कर लेना चाहिए. अगर अभी तक ऐसा नहीं किया है तो हमें इंडस वैली में भी उसे सिक्योर कर लेना चाहिए.
1962 में हमने शर्मनाक ढंग से कैलाश रेंज को छोड़ दिया. सिर्फ राजनीतिक जीत घोषित करने की खातिर, आज हमें वहां से पीछे नहीं हटना चाहिए. खासकर तब, जब हमें बदले में कुछ न मिल रहा हो. चीनी और क्या चाह सकते हैं? सभी संभावित बफर ज़ोन्स एलएसी के हमारी ओर होंगे, जहां हम गश्त नहीं लगा सकते, तैनाती नहीं कर सकते और इंफ्रास्ट्रक्चर विकसित नहीं कर सकते.
चीन अपना राजनीतिक लक्ष्य हासिल कर लेगा- 1959 क्लेम लाइन को सिक्योर करना और सीमावर्ती इंफ्रास्ट्रक्चर के विकास को रोकना. और सबसे ज़्यादा ये कि उस स्थिति में हमें रणनीतिक रूप से अहम कैलाश रेंज को खाली करना होगा. मेरी बात सुन लीजिए, पीएलए 1962 में भी कैलाश श्रंखला की अहमियत को समझती थी और आज भी समझती है. हमें कैलाश श्रंखला छोड़ने की मूर्खता दोहरानी नहीं चाहिए क्योंकि पीएलए सुनिश्चित करेगी कि वो हमें फिर कभी वापस न मिलें.
(ले.जन. एचएस पनाग, पीवीएसएम, एवीएसएम (रिटा.) ने 40 वर्ष भारतीय सेना की सेवा की है. वो जीओसी-इन-सी नॉर्दर्न कमांड और सेंट्रल कमांड थे. रिटायर होने के बाद वो आर्म्ड फोर्सेज़ ट्रिब्युनल के सदस्य थे. व्यक्त विचार निजी हैं)
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