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Friday, 19 April, 2024
होममत-विमत50 साल पहले IAF की उस ‘बाउंस’ पार्टी में शरीक न होता, तो इंडियन आर्मी को अपनी सेवाएं नहीं दे पाता

50 साल पहले IAF की उस ‘बाउंस’ पार्टी में शरीक न होता, तो इंडियन आर्मी को अपनी सेवाएं नहीं दे पाता

उस रात भारतीय वायुसेना के ‘स्पिरिट’ में न बहा होता तो आज मैं आपको यह कहानी सुनाने के लिए मौजूद न होता.

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1971 की लड़ाई की वजह से देहरादून की इंडियन मिलिटरी अकादमी के 49वें रेगुलर कोर्स करने वालों को कमीशंड सर्विस के तीन महीने ज्यादा मिल गए थे. हम लोगों को उस साल जून में कमीशन किया जाना था लेकिन उस लड़ाई में हताहतों की भरपाई करने के लिए हमें तीन महीने पहले 31 मार्च 1972 को ही कमीशन कर दिया गया था. हताहतों की वजह से हम करीब 350 कैडेटों को समय से पहले कमीशनिंग का फायदा मिल गया. बाद में हम साथियों के बीच इस बात पर बहस होती कि हमें तो फायदा हुआ लेकिन क्या सेना को इससे नुकसान हुआ? कुछ साथियों का मानना था कि तीन महीने की कम ट्रेनिंग का असर पूरे बैच के कुल प्रदर्शन पर पड़ा.

इस तरह की बहसें तो जिंदगी भर चलती रहेंगी, यहां मैं एक व्यक्तिगत कहानी कहने जा रहा हूं, जिसका श्रेय भारतीय वायुसेना को दिया जाना चाहिए. 8 अक्तूबर को भारतीय वायुसेना जब अपना स्थापना दिवस मना रही है, मैं उसे ‘चीयर्स!’ कह रहा हूं.

घर और घर से दूर

मैं ‘ब्रिगेड्स ऑफ द गार्ड्स’ की 7वीं बटालियन में एक इनफैन्ट्रीमैन के बतौर कमीशन किया गया था. मुझे जो मूवमेंट ऑर्डर दिया गया था उसमें कहा गया था कि मैं 21 दिन छुट्टी मनाने के बाद पठानकोट के ट्रांज़िट कैंप में रिपोर्ट करूं. पूछताछ से पता चला कि बटालियन लद्दाख में थी. मेरे माता-पिता केरल के कोच्चि में थे. वे मेरे पासिंग आउट परेड के मौके पर नहीं आ पाए थे. सो, पहली इच्छा यही थी कि कमीशंड अफसर के रूप में घर पहुंचूं और कुछ दिन घर में रहने का मजा लूं.

जैसा कि छुट्टियों के साथ होता है, वे शुरू होते ही खत्म हो गईं. अप्रैल 1972 के अंत में मैं पठानकोट जाने के लिए उन दिनों दक्षिण के आखिरी रेलवे स्टेशन कोच्चि हार्बर टर्मिनस से ट्रेन पकड़ने आ पहुंचा. मुझे मद्रास और दिल्ली में ट्रेन बदलनी पड़ी और चौथे दिन मैं पठानकोट पहुंचा. मेरे पिता कोच्चि बंदरगाह में डिप्टी कंजरवेटर थे और उनका सरकारी बंगला ‘मरीन हाउस’ स्टेशन से करीब ढाई किलोमीटर दूर था. जिस दिन मैं विदा होने वाला था, पिताजी शहर से बाहर थे. मेरी मां और बड़ी बहन उषा ने केएलआर 3076 नंबर की काली स्टैंडर्ड टेन कार से मुझे स्टेशन पहुंचाया. तमाम मांओं की तरह मेरी मां ने राहु काल से बचने के लिए समय से काफी पहले घर से निकलने की तैयारी कर ली थी. मेरा बड़ा-सा काला ट्रंक कार की डिकी में पूरी तरह न अंटने के कारण थोड़ा बाहर निकला हुआ था. मेरी बहन 15 किमी की रफ्तार से कार चला रही थी ताकि नये कमीशंड सेकंड लेफ्टिनेंट का असबाब से भरा लगेज गिर न पड़े. हम ट्रेन रवाना होने के समय से एक घंटा से भी पहले ही स्टेशन पहुंच गए.

हम ट्रेन के अपने डिब्बे के आगे खड़े थे और मैं ‘सुरक्षित यात्रा’ के लिए तमाम हिदायतों की खुराक ले रहा था कि तभी मुझे अचानक याद आया कि मैंने अपना पहचान पत्र तो घर में ही छोड़ दिया. ट्रेन रवाना होने में अभी 45 मिनट थे. मैंने कार की चाबी ली और घर की तरफ भागा. पंद्रह मिनट में ही मैं स्टेशन की ओर लौट रहा था लेकिन काफी तेजी में था. स्टेशन से 800 मीटर पहले मैंने देखा कि अचानक एक बस मेन रोड पर आ गई है. मैंने कार बायें घुमाई और वह ईंटों के ढेर में घुस गई. मुझे तो कुछ नहीं हुआ मगर मैंने निकलने की कोशिश की तो दरवाजा जाम मिला. मैंने कार की चाबी निकाली और बायें दरवाजे से बाहर निकल आया. तब तक बस रुक गई थी, कुछ लोग दौड़ कर आए. खुद को ठीकठाक पाकर मैं बस में चढ़ गया और ड्राइवर से स्टेशन छोड़ देने का अनुरोध किया. गनीमत थी कि बस उसी रूट पर जा रही थी.

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दोनों महिलाएं मुझे समय पर लौट आया देखकर संतुष्ट हुईं. मैंने बहन को अलग ले जाकर दुर्घटना और उसके स्थान के बारे में बताया और कहा कि मां को इसके बारे में तभी बताना जब ट्रेन रवाना हो जाए. आंसुओं भारी विदाई के बाद मैं रास्ते में केरल की हरियाली, धान के खेतों और नदियों को देखने में खो गया. मद्रास होते हुए दिल्ली तक की यात्रा कोयले की धूल और पसीने से भरी थी. रास्ते में कोई खास बात नहीं हुई सिवा इसके कि ट्रेन बदलते समय कुलियों ने मनमानी की. पठानकोट पहुंचने से पहले मैंने कपड़े बदल लिये, उन दिनों के फैशन के मुताबिक हल्के रंग की बेलबॉटम पैंट पहन ली. फौजी यात्रियों के लिए स्टेशन पर फौजी गाड़ी लगी थी. शनिवार 29 अप्रैल की सुबह 11 बजे मैं उससे ट्रांज़िट कैंप पठानकोट पहुंच गया.


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बेलबॉटम पैंट

7 गार्ड्स में तैनात किए गए एक नये कमीशंड अफसर के रूप में मैं ट्रांज़िट कैंप के कमांडिंग अफसर के समक्ष प्रस्तुत किया गया. उनकी आंखों ने मेरी 5 फुट 9 इंच की दुबली-पतली काया का मुआयना किया और उन्होंने सवाल किया, ‘किस सेना के हो तुम?’ मेरी जबान बंद हो गई. उन्होंने चुप्पी तोड़ते हुए मुझे एक लंबा भाषण पिला दिया. मेरी बेलबॉटम पैंट पर फब्तियां कसते हुए उन्होंने कहा कि भारतीय सेना के अधिकारियों से किस तरह की पोशाक में आने की उम्मीद की जाती है.

इसके बाद उन्होंने मेरे मूवमेंट ऑर्डर को देखा, जो सेना में मेरे अधिकृत दाखिले का मेरा पासपोर्ट था. मेरी तरफ देखते हुए उन्होंने कहा, ‘तुम यहां क्यों आए हो?’ मैंने उन्हें याद दिलाया कि मुझे कहां रिपोर्ट करने के लिए कहा गया है और मेरे मूवमेंट ऑर्डर में क्या लिखा है. उनका जवाब था, ‘क्या तुम्हें नहीं मालूम है कि ज़ोजी ला बंद है?’ मेरे चेहरे पर शून्य का भाव देखकर उन्होंने समझाया कि अप्रैल आ गया है और अब ज़ोजी ला बर्फ से ढक गया है. करगिल और लेह के बीच में स्थित बुढ़खरबू में तैनात यूनिट तक पहुंचना मुश्किल है. गर्मी के मौसम में मुझे जम्मू-श्रीनगर-करगिल से होकर भेजा जा सकता था. अब मुझे ध्यान आया कि अकादमी के क्लर्क को यह पता नहीं होगा कि हमारा कोर्स समय से पहले खत्म हो गया है.

तत्काल समाधान निकाला गया, ‘हम तुम्हें चंडीगढ़ भेज देंगे, वहां से विमान से लेह भेजा जाएगा.’ उस अधिकारी ने मुझे फिर याद दिलाया कि बेलबॉटम नहीं चलेगा. मैं उनके पास से जाने ही वाला था कि उन्होंने तुरुप का पत्ता फेंका, ‘रुको, मैं तुम्हें पठानकोट से करगिल तक सामान आदि लेकर नियमित उड़ान भरने वाले वायुसेना के ट्रांसपोर्ट विमान से भेजने की कोशिश करता हूं.’ उन्होंने मुझे बाहर इंतजार करने को कहा. आधे घंटे बाद उन्होंने मुझे बुलाया और बताया कि मुझे सोमवार को वायुसेना के पैकेट विमान में बैठा दिया जाएगा.

उत्साहित होकर मैं बाहर निकल रहा था कि मुझे ख्याल आया, क्यों न वीकेंड पर अपने चचेरे भाई फ्लाइट ले. नारायण (नाना) मेनन से मिल आऊं. मैंने कमांडिंग अफसर से आदमपुर वायुसेना अड्डे में वीकेंड बिताने की इजाजत मांगी, वे तैयार हो गए लेकिन हिदायत दी कि रविवार की शाम तक लौट आऊं. ‘हां सर’ कहकर मैं जल्दी ही आदमपुर के लिए रवाना हो गया मगर बेलबॉटम बदलना भूल गया.

1971 के नायकों के साथ एक दिन

शाम 4.30 तक मैं आदमपुर ऑफिसर्स मेस पहुंच गया. नाना के बारे में पता चला कि वे स्क्वाड्रन लंच पार्टी में हैं. कुछ मिनट बाद हम मिले. महिलाएं अभी लंच पर थीं जबकि पुरुष बार में थे. आपसी परिचय के दौर के बाद वे मुझे ड्रिंक करने का अनुरोध करने लगे. उनमें से एक ने मुझे जब घड़ी देखते हुए पाया तो उसने बताया कि फाइटर पाइलट केवल शनिवार से रविवार की दोपहर तक ड्रिंक कर सकते हैं, इसलिए समय नहीं गंवाना है. 1971 की लड़ाई के नायक पूरे जोश और हल्के मूड में थे. मुझे समझ में आ गया कि बार, फाइटर पाइलट, उनके उड़ान पथ का जायजा देने वाली उनकी मजबूत बांहें आपस में अटूट जुड़ी हैं. शाम करीब 6 बजे दो ड्रिंक और लंच लेने के बाद मैं नाना के बिस्तर में ढेर हो गया. रात 8 बजे उन्होंने मुझे जगाया कि जल्दी से तैयार हो जाओ, हम ‘बाउंस’ करने जा रहे हैं. मैंने पूछा, ‘बाउंस? ये क्या होता है?’ नाना ने बताया कि वायुसेना में फाइटर पाइलटों के बीच एक परंपरा चल रही है जिसके तहत एक घर को निशाना बनाया जाता है और कुंवारे पाइलट शराब लेकर उस घर में पहुंच जाते हैं और घोषणा कर देते हैं कि पार्टी चल रही है.

मैं अभी बेलबॉटम में ही था कि मोटरसाइकिल सवार बाउंसिंग पार्टी में शामिल कर लिया गया, जो 26वीं स्क्वाड्रन के स्क्वाड्रन लीडर सी.एस. दोरैस्वामी, वीआरसी के घर जा धमकी. दोरैस्वामी मोटरसाइकिलों की आवाज़ सुनकर बाहर निकले, चेहरे पर स्वागत की मुस्कान के साथ वे चीखे, ‘आ जाओ!’ पार्टी तुरंत शुरू हो गई, श्रीमती चित्रा दोरैस्वामी ने भी स्वागत में कोई कसर नहीं छोड़ी, और जल्द ही माहौल नशीली हंसी से गूंजने लगा. हालांकि रम ही खूब चल रही थी मगर मैंने व्हिस्की ली और जल्दी ही भूल गया कि जिस जमावड़े में दो फाइटर पाइलट डाइनिंग टेबल पर नाच रहे थे उस जोशीले भोग-विलास के लिए मैं एक नौसिखुआ ही था. हमने पार्टी लगभग सुबह में जाकर खत्म की, और मुझे याद नहीं है कि मैं कब बिस्तर में गया. सुबह 11 बजे नींद टूटी और मैंने पहली बार हैंगओवर का अनुभव लिया. मेरी तबीयत खराब हो गई और मेरे लिए आदमपुर में ही रुकने के सिवा कोई उपाय न था.


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‘लकी बास्टर्ड

सोमवार की सुबह 11 बजे मैं ओसी ट्रांज़िट कैंप के दफ्तर में चुपके से दाखिल हुआ और अभी माफी मांगनी शुरू ही की थी कि मुझे रोक दिया गया. मेरे ऊपर पंजाबी की तरह-तरह की गालियों की बौछार होने लगी. उन्होंने मुझे अनुशासनहीन, लापरवाह और न जाने क्या-क्या कहा और उनकी आवाज़ लगातार ऊंची होती गई. मैं शर्मसार चेहरे के साथ सुनता रहा. उन्होंने यह भी कहा, ‘और तुम औरंगजेब की तरह इस दफ्तर में चले आए!’ मुझे आज तक समझ में नहीं आया कि उन्होंने ऐसा क्यों कहा. शायद उन्होंने मेरे बेलबॉटम को बादशाह से जोड़कर देखा. मेरे ऊपर हमले इन शब्दों के साथ बंद हुए, ‘लेकिन तुम लकी बास्टर्ड हो.’ उन्होंने बताया कि पैकेट विमान उस सुबह करगिल जाने के लिए पठानकोट से उड़ा और करगिल तथा लेह के बीच फोटू ला दर्रे में गिर गया.

इसलिए मैंने कहा कि वायुसेना के उस ‘स्पिरिट’, उस ‘जोश’ में अगर मैं न बहा होता तो आज आपको यह कहानी न सुना पाता. 2018 में नाना के साथ मुझे बंगलूरू में चित्रा दोरैस्वामी के घर जाने का मौका मिला. मैंने उस ‘बाउंस’ पार्टी की याद दिलाई. उन्होंने कहा कि ऐसे इतने मौके आए जिन्हें उनके दिवंगत पति प्यार से याद किया करते थे. उनके पुत्र विक्रम दोरैस्वामी एक ख्यात राजनयिक हैं और फिलहाल विदेश मंत्रालय में अतिरिक्त सचिव हैं.

मैं भारतीय वायुसेना को ‘बाउंस के स्पिरिट’ के लिए धन्यवाद देता हूं और यही दुआ करता हूं कि वह गौरव के ऊंचे-से-ऊंचे आसमान को छूती रहे. जय हिंद!

(ले. जन. (रिटा.) डॉ प्रकाश मेनन तक्षशिला संस्थान में स्ट्रैटजिक स्टडीज़ प्रोग्राम के डायरेक्टर और राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय के पूर्व सैन्य सलाहकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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