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Friday, 29 March, 2024
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US से NDA और सेना सीख सकती है कि फिटनेस को नजरअंदाज किए बिना मानकों को कैसे बदला जाए

सुप्रीम कोर्ट ने महिलाओं के लिए एक नई राह खोली है. अब सैन्य नेतृत्व को लैंगिक न्याय और सेवा की अनिवार्यताओं का समर्थन करना चाहिए.

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सुप्रीम कोर्ट द्वारा महिलाओं को इस साल 5 सितंबर को होने वाली राष्ट्रीय रक्षा अकादमी (एनडीए) की प्रवेश परीक्षा में शामिल होने देने की अनुमति देने वाले एक अंतरिम आदेश पारित किए जाने के साथ ही सशस्त्र बलों में लैंगिक न्याय की मुहिम ने एक और दौर जीत लिया है.

कुश कालरा द्वारा दायर की गई इस याचिका में संविधान के मौलिक अधिकारों से संबंधित अनुच्छेदों का हवाला दिया गया था, जबकि बचाव पक्ष की और से अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल नीतिगत मामलों में न्यायिक गैर-हस्तक्षेप के सिद्धांत पर भरोसा कर रहे थे. वास्तव में तो बचाव पक्ष के पास जीत का कोई मौका ही नहीं था, क्योंकि सशस्त्र बलों में पुरुष अधिपत्य के किले में पहले से ही 2020 की शुरुआत में एक बड़ी दरार पड़ चुकी थी, जब सुप्रीम कोर्ट ने सेना में महिला अधिकारियों को स्थायी कमीशन देने के संबंध में आदेश पारित किया था. उस मामले में फैसला आने में तकरीबन एक दशक का वक्त लग गया. फिर भी न्याय में देरी तो हुई लेकिन न्याय मिल कर रहा.

हालांकि लैंगिक न्याय के लिए लड़ी गई पिछली लड़ाई केवल महिला अधिकारियों की सेवा शर्तों तक ही सीमित थी, अब सशस्त्र बलों की प्रवेश प्रणाली में भी इसके लिए एक साथ कई जगहों से जोर लगाया जा रहा है. सुप्रीम कोर्ट सैनिक स्कूलों में लड़कियों को प्रवेश से वंचित करने के संबंध में भी एक अन्य याचिका पर सुनवाई कर रहा है. हालांकि, रक्षा मंत्रालय ने नवंबर 2019 में ही लड़कियों के लिए सैनिक स्कूल के दरवाजे खोलने के अपने फैसले की घोषणा कर दी थी.

इसलिए, सुप्रीम कोर्ट ने इन दोनों मामलों को यह कहते हुए 8 सितंबर 2021 के लिए टालने का फैसला किया है कि वे आपस में सीधे तौर पर संबंधित हैं. सैनिक स्कूल के मामले में पहले ही लैंगिक न्याय की जीत हो चुकी है और कोर्ट ने अपने अंतरिम आदेश में कहा है, ‘प्रतिवादी द्वारा दायर किए गए जवाबी हलफनामे में मोटे तौर पर यह सुझाव देने का प्रयास किया गया है कि जहां तक सैनिक स्कूलों का संबंध है, लड़कियों के प्रवेश की प्रक्रिया पहले ही शुरू हो चुकी है और आगे चलकर इसे और विस्तारित किया जाएगा. जहां तक राष्ट्रीय इंडियन मिलिटरी कॉलेज (आरआईएमसी) का सवाल है, कहा जाता है कि यह 99 साल पुराना संस्थान है जो अगले साल अपने 100 साल पूरे करेगा. अब सवाल यह है कि क्या यह संस्थान लैंगिक तटस्थता के साथ अपने 100 साल पूरे करता है या नहीं.’

मैंने दिसंबर 2018 में अपने एक लेख में लिखा था कि सशस्त्र बलों में महिलाओं को युद्धक भूमिकाओं में शामिल करने की अनुमति दी जानी चाहिए, बशर्ते वे सभी आवश्यक पेशेवर मानकों को पूरा करती हों और प्रकृति द्वारा प्रदत्त शारीरिक भिन्नताओं के लिए आवश्यक छूट के कारण सैन्य बलों की प्रभावशीलता बाधित ना होती हो- यह एक ऐसा निर्णय है जिसे सैन्य नेतृत्व के लिए छोड़ दिया जाना चाहिए.

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भारतीय वायु सेना और भारतीय नौसेना ने पहले ही अपने महिला शॉर्ट सर्विस कमीशन के पायलटों को राफेल/एसयू-30/मिग 21/ युद्धपोतों पर तैनात हेलीकॉप्टरों में शामिल कर लिया है. यदि उनके बच्चे हैं, तो वे दो बच्चों के लिए एक-एक वर्ष के लिए अधिकृत मातृत्व अवकाश भी ले सकती हैं. भारतीय वायु सेना/भारतीय नौसेना इन पायलटों को इतने लंबे समय तक सेवा से दूर रखने का जोखिम नहीं उठा सकती क्योंकि यह न केवल उनकी सैन्य प्रभावशीलता को प्रभावित कर सकता है बल्कि निश्चित रूप से एक पायलट के रूप में उनके प्रदर्शन के साथ-साथ इनके कैरियर से जुड़ी संभावनाओं को भी प्रभावित करेगा.

महिला पायलट लैंगिक न्याय और सैन्य प्रभावशीलता के बीच के इस आपसी द्वंद का एक उदाहरण पेश करती हैं. इनमें संतुलन के लिए कानूनी समाधान के तहत राष्ट्रीय सुरक्षा को भी विशेषाधिकार दिया जाना चाहिए और अब ऐसा लगता है कि माननीय न्यायाधीशों को इन पेशेवर तर्कों को खारिज करने के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है. यह भी सत्य है कि स्थायी कमीशन के मामले में दिए गए कुछ पेशेवर तर्क लैंगिक भेदभाव से जुड़े पारंपरिक पूर्वाग्रहों को दर्शाते थे, जहां इस तथ्य को नजरअंदाज कर दिया गया था कि अगर एक महिला जो सैन्य पेशे की कठिन प्रकृति से पूरी तरह अवगत है और फिर भी उसमें शामिल होने का निर्णय करती है, उसके प्रवेश और कैरियर की प्रगति के दरवाजे सिर्फ नीति नियमों द्वारा बाधित नहीं किए जा सकते.


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आवास और शारीरिक मानकों से जुड़े प्रश्न

एनडीए जैसे इंटर-सर्विसेज संस्थान के मामले में जहां तीन अलग-अलग भौगोलिक क्षेत्रों में भूमि, समुद्र और वायु, जिनमें से प्रत्येक एक अलग प्रकार की सेवा संचालित होती है, विभिन्न प्रकार के पेशेवर मानकों को लागू किया जाता है. लेकिन प्रारंभिक प्रवेश प्रक्रिया के दौरान आंखों की रोशनी जैसी कुछ विशेष आवश्यकताओं को छोड़कर, ज्यादातर मानक कमीशन के बाद ही प्रचलन में आते हैं. यहां जो बात आवश्यक है वो यह है कि प्रत्येक सशस्त्र सेवा द्वारा दिए जाने वाले अवसरों और लगाए गए प्रतिबंधों के बारे में सभी उम्मीदवारों को सूचित किया जाना चाहिए. यह संवाद से जुड़ा एक ऐसा मुद्दा है जिसे सशस्त्र बलों और यूपीएससी द्वारा संयुक्त रूप से हल किया जाना चाहिए.

एनडीए में महिलाओं के प्रशिक्षण और प्रशासन हेतु दो अन्य मुद्दे भी प्रासंगिक हैं.

महिला कैडेटों और आगे चलकर अधिकारियों के रूप में भी, उनके शारीरिक प्रशिक्षण के दौरान लैंगिक शारीरिक विज्ञान (फिजिओलॉजी) के अंतर को ध्यान में रखा जाना चाहिए. अधिकारी प्रशिक्षण अकादमी- ऑफीसर ट्रैनिंग एकेडमी (ओटीए) चेन्नई में महिला कैडेटों के साथ जुड़े अनुभव इस बारे में काफी कुछ संकेत देते हैं.

भारतीय महिलाओं के पेल्विक सिस्टम में आने वाली चोटों के आंकड़ों से यह तथ्य सामने आता है कि प्रकृति ने मूल रूप से इसे बच्चे पैदा करने के उद्देश्यों के लिए अलग तरह से डिजाइन किया है जिस वजह से ये चोटें आई हैं. हालांकि, संयुक्त राज्य अमेरिका ने पहले से ही ऐसे संवेदनशील अंगो की पहचान कर ली है और इसके लिए समान परीक्षण मानकों को तैयार किया है. इस अध्ययन को यहां देखा जा सकता है. एनडीए और सभी सैन्य संस्थानों को इससे सीखना चाहिए और तभी वे शारीरिक स्वास्थ्य (फिटनेस) के मानकों की अवहेलना किए बिना इसे लागू कर सकते हैं. माना जाता है कि भारतीय सशस्त्र बलों ने भी ऐसा ही एक अध्ययन किया है जिसका फिलहाल मूल्यांकन किया जा रहा है.

इसके अलावा एक और महत्वपूर्ण पहलू आवास की व्यवस्था करना है. इस बारे में हमें एझिमाला में नौसेना अकादमी के मॉडल का अनुकरण करना चाहिए जिसमें इन आवश्यकताओं को निर्माण के चरण में ही डिजाइन में शामिल कर के बनाया गया था. महिलाओं के आवास को अलग तो किया गया है लेकिन फिर भी वह मुख्य परिसर का ही हिस्सा है जिसे आवश्यकतानुसार बंद किया जा सकता है. स्क्वाड्रन पर आधारित एनडीए भी बहुत कम फेरबदल के साथ उनके आवास की ऐसी ही व्यवस्था के लिए उपयुक्त है. लेकिन प्रारंभिक तौर पर महिला कैडेटों के शामिल होने की संभावना अंततः उनके लिए आवश्यक संख्या की तुलना में बहुत कम है जो समस्या का कारण बन सकती है.

भारतीय नौ सेना ने महिला अधिकारियों को लेकर केवल उन बड़े युद्धपोतों पर तैनात करने की नीति तैयार की है जहां अटैच्ड बाथरूम के साथ पर्याप्त कैबिन हैं या एक ऐसा सेक्शन है जिसे पूरी तरह से अलग किया जा सकता है.


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महिलाओं को शामिल करने के लिए व्यवस्थाओं मे सुधार

सुप्रीम कोर्ट के अंतरिम आदेश के बाद यूपीएससी को सिर्फ दो सप्ताह का नोटिस दिया गया है और साथ ही कड़ी प्रतिस्पर्धा और सर्विस सेलेक्शन बोर्ड के उच्च मानकों को ध्यान में रखते हुए, पहले बैच में एनडीए के परिसर में प्रवेश करने वाली महिलाओं की संख्या के बमुश्किल से दहाई के आंकड़े तक पहुंचने की संभावना है. यह पूरी तरह से एक पुरुष-प्रधान माहौल में समायोजित होने के लिए महिलाओं के समक्ष एक प्रमुख समस्या हो सकती है. हालांकि यह एक एकदम क्षणिक कठिनाई होगी. आने वाले समय के साथ बड़ी संख्या में महिलाओं को शामिल किए जाने से प्रशिक्षण अकादमियों से जुड़ी ऐसी समस्याएं खुद कम हो जानी चाहिए. लेकिन निकट भविष्य में यह सशस्त्र बलों के लिए कई बड़ी समस्याएं पैदा कर सकता है.

उदाहरण के तौर पर उन महिला अधिकारियों को लें, जिन्हें भारतीय वायुसेना और नौसेना की वायु यातायात नियंत्रण शाखा में शामिल किया गया है. उदाहरण के तौर पर हम स्टेशन ए को लेते हैं, जिसमें 20 प्रतिशत महिला एयर ट्रैफिक कंट्रोलर हैं. चूंकि उन्हें दो बार एक साल का मातृत्व अवकाश लेने की अनुमति है और साथ ही उन्हें अपने बच्चों की देखभाल के लिए अतिरिक्त समय भी दिया जाना चाहिए, अतः उनकी आधिकारिक तौर पर स्वीकृत अनुपस्थिति की पूर्ति उनके पुरुष समकक्षों के द्वारा की जानी होगी क्योंकि इस तरह की स्टाफ की कमी को दूर करने लिए अतिरिक्त कर्मियों की व्यवस्था को लेकर कोई प्रावधान नहीं है.

समय के साथ-साथ, जैसे-जैसे महिला अधिकारियों की संख्या बढ़ती जाएगी, यह समस्या और भी विकराल होती जाएगी, तब तक जब तक कि सरकार ऐसी आकस्मिकताओं के लिए आरक्षित कर्मियों का प्रावधान नहीं करती. सैन्य प्रणालियों से जुड़ी गहन विशेषज्ञता में वृद्धि के साथ इस समस्या का पूर्वानुमान लगाना उतना भी मुश्किल नहीं है. बड़ी बात यह है कि इनटेक (महिला कर्मियों की भर्ती) और करियर सिस्टम को अलग-अलग नहीं देखा जा सकता है, बल्कि उन्हें समग्र रूप से देखा जाना चाहिए.

न्यायिक प्रणाली के द्वारा लैंगिक न्याय के मुद्दे को टुकड़ों में देखने के साथ, सैन्य व्यवस्था के लिए इसके डाउनस्ट्रीम (निचले स्तर पर पड़ने वाले) प्रभावों पर से नज़र हटने की पूरी संभावना है. निस्संदेह, लैंगिक न्याय को लागू किए जाने के लिए कई नीतियों को बदलने की जरूरत है ताकि उन आम भारतीय महिलाओं की आकांक्षाओं को पूरा किया जा सके, जो लंबे समय से पितृसत्तात्मक संस्कृति से जकड़ी हुई हैं.

सैन्य नेतृत्व को लैंगिक न्याय और संस्थागत अनिवार्यताओं के इस संयोग का समर्थन करना चाहिए. इसके लिए ‘विवाह’ पर खलील जिब्रान के द्वारा व्यक्त किए गये इस ज्ञान को स्वीकार करने की आवश्यकता होगी, ‘मंदिर के स्तंभ अलग-अलग खड़े होते हैं और ओक का पेड़ और सरू (साइपरेस्स ) एक दूसरे की छाया में नहीं उगते’.

(लेफ्टिनेंट जनरल (सेवानिवृत्त) डॉ प्रकाश मेनन तक्षशिला संस्थान में सामरिक अध्ययन कार्यक्रम के निदेशक, राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय में पूर्व सैन्य सलाहकार रह चुके हैं. वह एनडीए के 40वें कोर्स से आते हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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