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Sunday, 3 November, 2024
होममत-विमत1977 की बुरी हार के बाद इंदिरा गांधी कांग्रेस को कैसे वापस सत्ता में लाईं, राहुल उनसे सीखें

1977 की बुरी हार के बाद इंदिरा गांधी कांग्रेस को कैसे वापस सत्ता में लाईं, राहुल उनसे सीखें

अपनी वापसी के जतन करते हुए इंदिरा गांधी जिस तरह जनता पार्टी में फूट डाली, मोरारजी की सरकार गिराकर कांग्रेस के समर्थन से चौधरी चरण सिंह की सरकार बनवाई, उन्हें लोकसभा का मुंह तक न देखने देकर समर्थन वापस लिया और मध्यावधि चुनाव कराकर फिर से कांग्रेस को सत्ता में लाकर प्रधानमंत्री पद तक पहुंचीं.

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देश की अब तक की एकमात्र महिला प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी (जिन्हें ‘अपने खून के आखिरी कतरे तक से राष्ट्र को सींचने वाली लौह महिला’ के रूप में भी याद किया जाता है) की जयंती इस बार ऐसे वक्त पर आई है, जब सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी द्वारा कब के ‘पप्पू’ करार दिये जा चुके उनकी पार्टी कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष व उनके पौत्र राहुल गांधी देश की एकता व अखंडता के समक्ष उपस्थित खतरों व अंदेशों के विरुद्ध देशवासियों को एकजुट करने के लिए हजारों किलोमीटर लम्बी ‘भारत जोड़ो यात्रा’ पर निकले हुए हैं.

गत 30 अक्टूबर को उनके शहादत दिवस पर एक भावुक ट्वीट में राहुल ने लिखा था, ‘दादी, मैं आपके प्यार और मूल्यों दोनों को अपने दिल में लेकर चल रहा हूं और उस भारत को गिरने नहीं दूंगा, जिसके लिए आपने अपनी जान कुर्बान कर दी.’

कांग्रेस प्रवक्ताओं द्वारा राहुल की यात्रा के ‘चुनाव जीतो’ या ‘चुनाव जिताओ’ यात्रा होने से बार-बार इनकार के बावजूद कांग्रेसी छिपा नहीं पा रहे कि पार्टी को इस यात्रा से अपने लगातार लम्बे होते जा रहे दुर्दिनों के खात्मे की उम्मीद है. निस्संदेह, यह उम्मीद यात्रा को मिल रहे ‘रिस्पांस’ से कुछ ज्यादा ही हरी हो चली है. कांग्रेस चाहे तो इस उम्मीद को और हरी करने के लिए इंदिरा गांधी से सीख सकती है कि संकट व पराभव के दिनों में राजनीतिक संघर्षों के रास्ते अपने सुनहरे दिनों की वापसी की राह कैसे हमवार की जा सकती है. यह और बात है कि आज भी उनकी ‘तानाशाहियों’ का जिक्र छिड़ने पर ‘बेचारी’ को रक्षात्मक हो जाना पड़ता है और तब 1971 में उनके नेतृत्व में पाकिस्तान पर हासिल विजय ही उसकी ‘रक्षा’ करती है.


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गौरतलब है कि 1975 में असंतोष से भड़के छात्रों व विपक्ष के मिले-जुले आंदोलनों से परेशान श्रीमती गांधी ने रायबरेली लोकसभा सीट से अपना चुनाव रद्द किये जाने के बाद अपनी सत्ता व हनक कायम रखने के लिए जिस तरह देश पर इमर्जेंसी थोपी, अंधाधुंध गिरफ्तारियां कराई, नागरिकों की स्वतंत्रता व प्रेस की आजादी की हत्या की, साथ ही अनेक जुल्म व ज्यादतियां भी, तो खफा मतदाताओं ने 1977 के लोकसभा चुनाव में उन्हें सत्ता से बेदखल कर दिया.

तब कांग्रेस के विरोधियों को आजकल की ही तरह गलतफहमी हो गई कि देश ने उसे हमेशा के लिए कूड़े के ढेर पर बैठा दिया है.

उसे हराकर आई जनता पार्टी की मोरारजी देसाई सरकार ने गांधी के प्रधानमंत्रीकाल की मनमानियों की जांच के लिए शाह आयोग बना दिया और सरकारी समाचार माध्यमों में उसकी कार्रवाइयों का मीडिया ट्रायल जैसा प्रसारण कराने लगी. फिर क्या था, आपसी सिरफुटौवल के बावजूद जनता पार्टी के नेता निश्चिंत हो गये कि अब श्रीमती गांधी की विलेन वाली छवि मतदाताओं के दिलो-दिमाग में इस तरह बैठ जायेगी कि वे न तीन में रह जायेंगी, न तेरह में.

लेकिन गांधी ने उन्हें गलत सिद्ध करने में ढाई वर्ष भी नहीं लगाये. इस दौरान उन्हें भरपूर छकाया और सत्ता में वापसी कर ली. उनके इस काम में बिहार की राजधानी पटना के बेल्छी गांव में 14 दलितों के नृशंस संहार के पीड़ितों के आंसू पोंछने के लिए उनके द्वारा प्रदर्शित अद्भुत साहस और उत्तर प्रदेश की आजमगढ़ लोकसभा सीट के उपचुनाव में जीत के लिए अपनाई गई रणनीति ने अहम भूमिका निभाई.

हुआ यूं कि मोरारजी सरकार के कुछ ही महीने बीते थे कि बाढ़ पीड़ित बेल्छी गांव में एक प्रभुत्वशाली पिछड़ी जाति के लोगों ने 14 दलितों की नृशंसतापूर्वक हत्या कर दी. तब गांधी ने पीड़ित दलितों को ढांढस बंधाने के लिए उन तक पहुंचने में अपनी जान तक जोखिम में डाल दी. 13 अगस्त, 1977 को वे दिल्ली से विमान से पटना पहुंचीं और अपनी पुत्रवधू सोनिया गांधी समेत प्रायः सारे शुभचिंतकों के आगाह करने के बावजूद कि उनका बेल्छी जाना खतरे से खाली नहीं है, कार से वहां के लिए रवाना हुईं. बेहद खराब सड़क ने आगे आकर कार का रास्ता रोक दिया तो एक ट्रैक्टर पर जा बैठीं. लेकिन वह भी उन्हें रास्ते में पड़ने वाली नदी पार नहीं करा सका.

इस पर उन्होंने एक बिना हौदे वाले हाथी की नंगी पीठ पर बैठकर नदी पार की और कमर तक पानी से गुजरकर बेल्छी पहुंची. कांग्रेस नेता प्रतिभा देवी सिंह पाटिल भी उनके साथ थीं, जो बाद में देश की राष्ट्रपति बनीं. कहते हैं कि गांधी वहां पीड़ित दलितों से मिलीं तो वे विह्वल हो उठे. उन्हें कमर तक भीगी साड़ी पहने देख उनके लिए दूसरी साड़ी मंगवाई और भावुक होकर कहा कि ‘आपको वोट न देकर हमने बड़ी गलती की.’

फिर तो अखबारों में इसकी व्यापक चर्चा हुई, जो राजनीतिक परिवर्तन का टर्निंग प्वाइंट बन गई. परिवर्तन की बाकी पटकथा अगले बरस अप्रैल-मई, 1978 में लोकसभा की आजमगढ़ सीट के उपचुनाव ने लिख दी. दरअसल, 1977 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का खाता ही नहीं खुला था. उससे बेजार मतदाताओं ने प्रतिद्वंद्वी जनता पार्टी ऐसे-ऐसे प्रत्याशियों को भी जिता दिया था, जिन्हें वे ठीक से जानते तक नहीं थे और जो उन तक पहुंच भी नहीं पाये थे.
लेकिन उसके सांसद रामनरेश यादव थोड़े ही दिनों बाद उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बन गये तो उनके द्वारा रिक्त की गई आजमगढ़ की दलित व अल्पसंख्यक बहुल सीट का उपचुनाव जीतने के लिए गांधी ने बहुत सोच-समझकर चालें चलीं.

जनता पार्टी ने इस उपचुनाव में रामनरेश यादव की जगह उन्हीं की जाति के रामवचन यादव को प्रत्याशी बनाया तो गांधी ने अपनी करीबी मोहसिना किदवई को. शुरू में प्रेक्षकों ने किदवई कों ‘बाहरी’ बताकर गंभीरता से लेने से मना कर दिया, लेकिन मोहसिना नामांकन से पहले से ही आजमगढ़ आकर प्रचार में लग गईं तो जनता पार्टी में खलबली मच गई. अंततः उसके वरिष्ठ नेता जार्ज फर्नांडीज उनकी राह रोकने आये.

जार्ज को पता था कि देश व प्रदेश में जनता पार्टी की सरकारें बनने के सालभर के भीतर ही हो रहे इस उपचुनाव में उसकी हार न सिर्फ कांग्रेस का मनोबल खासा बढ़ा देगी बल्कि उसकी वापसी की पृष्ठभूमि भी तैयार कर देगी. ऐसा न होने देने के लिए वे 10 दिन आजमगढ़ में रुके और रामवचन यादव के साथ घर-घर गये. अटल बिहारी वाजपेयी, चौधरी चरण सिंह, राजनारायण और मधु लिमये जैसे वरिष्ठ नेता भी उनका हाथ बंटाने आये.

लेकिन कोई जुगत काम नहीं आयी. जिन मतदाताओं ने 1977 में कांग्रेस से नाराज होकर जनता पार्टी को वोट दिया था, वे जनता पार्टी से कहीं ज्यादा नाराज होकर कांग्रेस की ओर लौट आये तो मोहसिना की बल्ले-बल्ले हो गई. वे 35000 से  कुछ ज्यादा वोटों से उपचुनाव जीत गईं. प्रेक्षकों ने उनकी इस जीत को उत्तर भारत के मतदाताओं पर चढ़े जनता पार्टी के खुमार के अंत के तौर पर लिया और चारों ओर उसकी चर्चा होने लगी. फिर तो गांधी दोगुने उत्साह से अपनी वापसी की कोशिशों में लग गईं.

इसके बाद नवंबर, 1978 में कर्नाटक की चिकमंगलूर लोकसभा सीट से वे खुद उपचुनाव लड़ीं और जीतकर लोकसभा पहुंची, तो मोरारजी सरकार ने उन्हें लोकसभा से निलंबित तो करा ही दिया, गिरफ्तार कराकर जगहंसाई मोल लेने से भी परहेज नहीं किया. लेकिन उनकी बढ़त नहीं रोक पाई. वैसे ही जैसे 1966 के उनके शुरुआती दिनों में कांगे्रस के बुजुर्ग नेताओं का उनका विरोधी सिंडिकेट नहीं रोक पाया था-1967 के आमचुनाव में भी नहीं.

इस महत्वाकांक्षी सिंडिकेट ने 1969 में 12 नवंबर को राष्ट्रपति चुनाव में (जिसमें गांधी ने मतदाताओं से अंतरात्मा की आवाज पर वोट देने की अपील करके कांग्रेस प्रत्याशी निजलिंगप्पा के मुकाबले निर्दलीय वीवी गिरि को जिता दिया था) संगठन में उनकी कमजोर स्थिति का लाभ उठाकर अनुशासनहीनता के आरोप में पार्टी से ही निकाल दिया तो भी उन्होंने चतुराईपूर्वक न सिर्फ अपना प्रधानमंत्री पद व सरकार बचा ली, बल्कि 14 प्रमुख बैंकों के राष्ट्रीयकरण व राजे-रजवाड़ों के प्रिवीपर्स के खात्मे जैसे कदम उठाकर ‘गरीबी हटाओ’ के नारे व नई कांग्रेस के बैनर पर निर्धारित समय से एक साल पहले 1971 में लोकसभा चुनाव में उतरीं और धमाकेदार जीत हासिल कर ली.

बहरहाल, 1977 की भीषण पराजय के बाद अपनी वापसी के जतन करते हुए उन्होंने जिस तरह जनता पार्टी में फूट डाली, मोरारजी की सरकार गिराकर कांग्रेस के समर्थन से चौधरी चरण सिंह की सरकार बनवाई, उन्हें लोकसभा का मुंह तक न देखने देकर समर्थन वापस लिया और मध्यावधि चुनाव करवाकर फिर से कांग्रेस को सत्ता में लाकर प्रधानमंत्री पद तक पहुंचीं, उसमें भी कांग्रेस के लिए कई बड़ी सीखें हैं. सबसे बड़ी यह कि राजनीति कुल मिलाकर रणनीतियों का युद्ध है और हिंदी के युयुत्सावादी कवि स्मृतिशेष शलभ श्रीराम सिंह ने लिखा है कि युद्ध कभी कमजोर घोड़ों पर बैठकर नहीं जीते जाते.

(संपादन: इन्द्रजीत)

(कृष्ण प्रताप सिंह फैज़ाबाद स्थित जनमोर्चा अखबार के संपादक और वरिष्ठ पत्रकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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