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Friday, 29 March, 2024
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कांग्रेस के लिए ‘आप’ अगर एक बड़ा कांटा है, तो भाजपा के लिए सिर्फ एक सिरदर्द

इन चुनावों के नतीजों को अंततः बातों के पेंच में उलझा दिया गया, हर पार्टी यही दावा कर रही है कि वह जीत गई है और बाकी दूसरी पार्टियां हार गई हैं.

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और अब अंत में, सब घूम कर कुछ ऐसा हो गया है जहां हर पार्टी ने दावा किया कि वह जीत गई है और हर पार्टी ने कहा कि वो दूसरी पार्टी हार गई हैं.

गुजरात में ऐतिहासिक जीत पर भाजपा को गर्व करना ही चाहिए. उसने लगातार सात बार विधानसभा चुनाव (पश्चिम बंगाल में) जीतने के वाम मोर्चे के रेकॉर्ड की बराबरी कर ली है. गुजरात में 50 फीसदी से ज्यादा वोट हासिल करने के बाद भाजपा अगर दावा करती है कि उसे गुजरात की जनता के बहुमत का समर्थन हासिल है तो यह उचित ही होगा. लेकिन वह दिल्ली नगर निगम चुनाव में अपनी हार का कोई जिक्र नहीं कर रही है, जहां निगम में वह एक दशक से ज्यादा समय से सत्ता में थी.

हिमाचल प्रदेश में अचंभित करने वाली अपनी हार पर भी वह बात करने को तैयार नहीं दिखती है, जिसकी वह उम्मीद नहीं कर रही थी.

कांग्रेस हमें यह याद दिला रही है कि वह उत्तर भारत के हिंदी भाषी राज्य में अब भी चुनाव जीतने के काबिल है. उसका कहना है कि हिमाचल प्रदेश में जीत इस बात का सबूत है कि भाजपा हरेक हिंदी भाषी राज्य में दबदबा नहीं रखती है. ऊंचे दांव वाले इस चुनाव में, जिसमें चुनाव अभियान चलाने का जिम्मा खुद भाजपा अध्यक्ष जे.पी. नड्डा ने संभाला था, वहां कांग्रेस ने साधन के मामले में काफी कमजोर रहने के बावजूद पक्की जीत दर्ज की.

लेकिन इस पार्टी में किसी ने इस तथ्य की चर्चा नहीं कि वह दिल्ली में लुप्त हो चुकी है या कि गुजरात के पिछले चुनाव में उसने जो बढ़त हासिल की थी उसे उसने इस बार आलस के कारण गंवा दिया, कि उसे शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा है.

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जोड़-घटाव में गलती या गफलत?

‘आप’ के लिए दिल्ली ही सब कुछ थी. वर्षों से वह भाजपा के शासन वाले नगर निगमों के कारण परेशान रही क्योंकि भाजपा उसे दिल्ली में अपने मन से काम नहीं करने दे रही थी. अब नगर निगम पर कब्जा करके उसने दिखा दिया है कि वह दिल्ली की पार्टी है. विचित्र बात यह है कि गुजरात में अपनी दयनीय पराजय (महज पांच सीटें, और एक हमदर्द विश्लेषक की 20 फीसदी वोट की भविष्यवाणी से दूर) को उसने अपनी जीत के रूप में पेश किया और शोर मचाने लगी कि वह अब राष्ट्रीय पार्टी बन गई है.

इन तमाम पेंचदार बातों (और झूठ) को परे कर दीजिए तो कुछ बातें साफ उभर आती हैं. पहली यह कि गुजरात ने नरेंद्र मोदी से ज्यादा लोकप्रिय नेता पहले कभी नहीं देखा था. इसका कुछ आधार उनका करिश्माई व्यक्तित्व है, लेकिन बहुत सारा श्रेय इस बात को जाता है कि जब से वे सत्ता में आए, उसके बाद से गुजरात बदल गया है. मोदी के राज में (पहले मुख्यमंत्री और अब प्रधानमंत्री के रूप में) गुजरात ने लंबी आर्थिक छलांग लगाई है और गुजरती अस्मिता ने नयी ऊंचाई को छुआ है.

देश के दो सबसे शक्तिशाली नेता, मोदी और अमित शाह गुजराती हैं; दो सबसे अमीर व्यक्ति, गौतम अडाणी और मुकेश अंबानी गुजराती हैं; राज्य के शहरों में करोड़पति भरे पड़े हैं, जिनमें से कुछ ऐसे हैं जिन्होंने दवा के कारोबार में दौलत बनाई है.

गुजरात में इस जीत और पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चे की सात बार जीत के रेकॉर्ड में कुछ समानताएं भी हैं—करिश्माई नेता, स्थानीय अस्मिता, हरेक मतदान केंद्र पर तैनात सुसंगठित पार्टी काडर. लेकिन दो महत्वपूर्ण अंतर भी हैं. वाम मोर्चे ने बंगाल की अर्थव्यवस्था को चौपट कर दिया जबकि भाजपा ने गुजरात की अर्थव्यवस्था का पुनर्निर्माण कर दिया.

बंगाल के मतदाता अगर वाम मोर्चे को यह सोचकर वोट दे रहे थे कि इससे बंगाल शेष भारत से अलग दिखता था, तो गुजरात भाजपा को इसलिए वोट दे रहा है कि मोदी और शाह की भाजपा ने गुजरातियों को भारत पर छा जाने में मदद की है.

हिमाचल प्रदेश में हार न केवल सरकार विरोधी भावना के कारण बल्कि भाजपा की प्रदेश इकाई में बगावत के कारण भी हुई. भाजपा ने जितना भी पैसा खर्च किया हो, वह अपना घर नहीं संभाल पाई. और एमसीडी में उसकी हार ने इस सच को मजबूत किया कि उत्तर भारत में भी भाजपा अजेय नहीं है, जैसा कि वह दावा करती है.

दूसरे, यह स्पष्ट नहीं है कि इन चुनावों में कांग्रेस का प्रदर्शन जोड़-घटाव का नतीजा है या घालमेल का. या, चूंकि मामला कांग्रेस का है इसलिए दोनों ही कारण हो सकते है.


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कर्नाटक के लिए इंतजार

एक नजरिया यह है कि कोश और हौसला, दोनों की कमी के कारण कांग्रेस ने एक नयी रणनीति बनाई. वह हरेक चुनाव को ‘करेंगे या मरेंगे’ वाला मामला नहीं बनाएगी. बल्कि वह अपने संसाधन बचाकर रखेगी और यह फैसला करेगी कि उसे किस लड़ाई में उतरना है. जिन राज्यों में उसे जीतने की संभावना दिखेगी उसमें पूरी ताकत झोंक देगी. इस नजरिए के मुताबिक, कांग्रेस को समझ में आ गया था कि गुजरात में उसके लिए कोई गुंजाइश नहीं है इसलिए उसने चुनाव अभियान पर संसाधन, समय और ऊर्जा न खर्च करने का फैसला किया. उसे यह भी पता था कि दिल्ली नगर निगम की राजनीति में उसका कोई दखल नहीं है. इसलिए एमसीडी के चुनाव पर

पैसा क्यों बरबाद करें

कर्नाटक के लिए इंतजार करना बेशक बेहतर है, जहां अगले साल कांग्रेस के लिए भाजपा को हराने का अच्छा मौका है. और हिमाचल प्रदेश जैसे छोटे राज्य पर ज़ोर देना कहीं ज्यादा समझदारी वाली बात रही, जहां चुनाव अभियान बहुत महंगा नहीं होता और जीत संभव थी.

अगर यह सचमुच में रणनीति है तो तर्कसम्मत है. दूसरी ओर, इसका अर्थ यह भी है कि कांग्रेस भाजपा का राष्ट्रीय स्तर पर विकल्प बनने का दावा छोड़ने को और दूसरों को यह जगह देने को तैयार है.

क्या यह बुद्धिमानी है? और, गुजरात में कांग्रेस इस हाल में कैसे पहुंची? क्या यह अक्षमता और खराब राजनीतिक प्रबंधन का नतीजा नहीं है? और अंततः, ‘आप’ वाला पहलू है. लोग ‘आप’ को कभी-कभी भाजपा को चुनौती देने वाली पार्टी मान बैठते हैं. ऐसा है नहीं, कम-से-कम दिल्ली के बाहर तो नहीं ही है.

अरविंद केजरीवाल जब देश के बाकी हिस्से में चुनाव लड़ते हैं तब वे कांग्रेस को चुनौती दे रहे होते हैं. ‘आप’ की स्थापना करने से पहले, ‘इंडिया अगेन्स्ट करप्शन’ वाले दौर से ही वे काँग्रेस को अपना मुख्य निशाना बनाते रहे हैं. आज भी उनकी रणनीति उन राज्यों पर ज़ोर देने और अपने पार्टी को स्थापित करने की है, जहां कांग्रेस कमजोर है.

दिल्ली के एमसीडी के चुनाव में भाजपा ने अपना वोट प्रतिशत कायम रखा है. ‘आप’ ने कांग्रेस की कीमत पर लाभ हासिल किया. गुजरात में, भाजपा ने वास्तव में अपना वोट प्रतिशत बढ़ाया है. ‘आप’ को वोट केवल कांग्रेस के हिस्से से आए.

दिल्ली के बाहर एक राज्य में, जहां आप ने सत्ता हासिल की वहां भाजपा कोई खिलाड़ी नहीं थी. ‘आप’ ने पंजाब को मूलतः इसलिए जीता क्योंकि कांग्रेस ने कई बड़ी भूलें करके और लोगों का गलत आकलन करके जीत उसे थाली में रखकर सौंप दी.

केजरीवाल के दावों (पांच सीटें जीतने से पहले : ‘मैं दावे के साथ कहता हूं, हम गुजरात में सरकार बनाने जा रहे हैं”) के विपरीत वे भाजपा के लिए कोई खतरा नहीं हैं. वे उसी राज्य में अच्छा प्रदर्शन कर सकती है जिसमें कांग्रेस गड़बड़ करेगी या कोई मुक़ाबला नहीं करेगी. लेकिन ‘आप’ आज जिन राज्यों को निशाना बना रही है उनमें वे सरकार बनाने लायक प्रदर्शन नहीं कर सकेंगे.

बहरहाल, बातों के पेंचों को भूल जाइए. वास्तव में तीन बातें उभरती हैं— कांग्रेस एक रणनीतिक खेल खेल रही है जो बुद्धिमानी साबित हो सकती है या नहीं भी साबित हो सकती है; मोदी भारत में सबसे लोकप्रिय नेता हैं लेकिन भाजपा अजेय नहीं है; ‘आप’ कांग्रेस के लिए एक बड़ा कांटा बनी रहेगी लेकिन भाजपा के लिए वह शोर मचाऊ सिरदर्द से ज्यादा कुछ नहीं है.

(वीर सांघवी भारतीय प्रिंट और टीवी पत्रकार, लेखक और टॉक शो होस्ट हैं. उनका ट्विटर हैंडल @virsanghvi है. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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