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Wednesday, 25 December, 2024
होममत-विमतअयोध्या में भारत के विचार को ध्वस्त नहीं किया गया था बल्कि इसकी नींव हमारे 'लिबरल' घरों में रखी गई थी

अयोध्या में भारत के विचार को ध्वस्त नहीं किया गया था बल्कि इसकी नींव हमारे ‘लिबरल’ घरों में रखी गई थी

बाबरी मस्जिद का 1992 का विध्वंस अचानक घटी कोई घटना नहीं थी. मस्जिद को ढहाने में इस्तेमाल औजारों में हमारे परिवारों में होने वाली चर्चाओं का भी योगदान था.

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यदि अयोध्या के अधिष्ठ देवता राम हैं, तो उसके राजनीतिक इष्टदेव लालकृष्ण आडवाणी हैं. भले ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री अमित शाह और उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ 5 अगस्त के भूमिपूजन के लिए तत्पर बैठे हों.
वास्तव में, अयोध्या में भव्य राम मंदिर के निर्माण से पहले भूमिपूजन के इस प्रमुख आयोजन का कई लोग श्रेय ले सकते हैं — आडवाणी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विश्व हिंदू परिषद और कांग्रेस. लेकिन सर्वाधिक उल्लेखनीय हैं, आम भारतीय परिवार.

निश्चय ही लालकृष्ण आडवाणी ने 1990 के दशक के आरंभ में ना सिर्फ मंदिर आंदोलन शुरू कराया बल्कि हिंदुत्व गौरव की नई भाषा भी गढ़ी. उन्होंने अकेले दम पर भारत की महत्वाकांक्षा में धर्मनिरपेक्षता को महत्वहीन करने और उसमें ‘छद्म’ का विशेषण जोड़ने का काम किया. रथ यात्रा के दौरान बार-बार दोहराए जाने वाले भाषणों में उन्होंने हिंदुओं के ऐतिहासिक जख्म का उल्लेख करते हुए भारतीय परिवारों में बाबरी मस्जिद को घृणा का पर्यायवाची बना दिया.

लेकिन भारतीय परिवारों में होने वाली चर्चाओं को भी इस श्रेय का एक बड़ा दावेदार माना जाना चाहिए. वे भारत की संस्थापक ‘कथानक संरचना’ को कमज़ोर करती रहीं. इसीलिए हमारे विद्वान बाबरी मस्जिद बचाने के संदर्भ में तथाकथित ‘भारत की संकल्पना’ पर शुरू में ही पिछड़ गए. उस विचार को किसी धार्मिक स्थल पर ध्वस्त नहीं किया गया, बल्कि हमारे घरों के भीतर धीरे-धीरे उसकी नींव को खोखला किया गया.


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इतिहास की पुनर्संरचना

भारत के कई उदारवादी टिप्पणीकारों ने बाबरी मस्जिद के विध्वंस को नेहरूवादी आदर्शों के लिए सबसे बड़ा आघात करार दिया था. लेकिन एक पुरानी जीर्ण मस्जिद पर धर्मनिरपेक्षता और ‘भारत की संकल्पना’ का बोझ डालने से काम नहीं चलने वाला था. सबसे पहले तो, कोई धार्मिक ढांचा धर्मनिरपेक्षता की रक्षा का केंद्र नहीं बन सकता और बनना चाहिए भी नहीं. दूसरी कहीं अधिक महत्वपूर्ण बात ये है कि बहुत से हिंदुओं को कई पीढ़ियों से बाबरी मस्जिद को ऐतिहासिक अपमान के स्थल के रूप में देखना सिखाया जा रहा था. वे ‘निमोनिक समुदायों’(मोटी स्मृति वाले समुदायों) जैसा व्यवहार करते हुए खुद को अपमानित मानने लगे.

और जैसा कि अरुण शौरी ने बताया, ज़ख्म खाने का ये भाव केवल अयोध्या में ही नहीं बल्कि पूरे भारत में व्याप्त था. अन्य लेखकों के साथ मिलकर लिखी गई उनकी किताब ‘हिंदू टेंपल्स: व्हाट हैपंड टू देम’ जो बाबरी विध्वंस से बहुत पहले 1990 में प्रकाशित हुई थी, के अनुसार ऐसी 2,000 मस्जिदें मौजूद हैं जो ध्वस्त किए गए मंदिरों के ऊपर बनाई गई हैं. इस किताब में इन सारी मस्जिदों के विवरण नाम, संबंधित गांव और कुछ तस्वीरों के साथ प्रस्तुत किए गए थे. किताब ने 1990 के दशक में विश्व हिंदू परिषद के अभियान को बौद्धिक खुराक देने का काम किया जिसके तहत कहा जाता था कि हिंदू इन 2,000 मस्जिदों पर अपना दावा छोड़ देंगे, बशर्ते मुसलमान अयोध्या, वाराणसी और मथुरा के विवादित स्थल उऩ्हें सौंप दें.

मैंने तब इन 2,000 मस्जिद स्थलों में से कइयों का दौरा किया था, और मैंने पाया कि स्थानीय ग्रामीणों में ध्वस्त मंदिरों के बारे में जानकारी, आख्यान या सामूहिक स्मृति का नितांत अभाव था, अपमान भाव की तो बात ही छोड़ दें. लोगों को कुछ पता नहीं था या कोई मतलब नहीं था या उन्होंने विरासत में मिले स्थलों को उसी रूप में स्वीकार कर लिया था. लोकस्मृति को अयोध्या, वाराणसी और मथुरा से जुड़ी गाथाओं को जानबूझ कर बारंबार दोहराते हुए निर्मित किया गया है, नकि शौरी की किताब में वर्णित 2,000 स्थलों के सहारे.

सामूहिक लोकस्मृति को गढ़ने का एक और तरीका कुछ इस प्रकार है. मस्जिद ढहाए जाने के कुछ वर्ष बाद जब मैं अयोध्या गई, तो मैंने वहां की गलियों में दो दर्जन श्वेत-श्याम तस्वीरों वाली फ्लिप-बुक बिकती देखी. उसके पृष्ठों को तेजी से पलटने पर आपके सामने बाबरी मस्जिद को ध्वस्त किए जाने का क्रम सजीव हो उठता था. उसके पहले आखिरी बार मैंने 1980 के दशक में कपिलदेव की बॉलिंग एक्शन को दर्शाने वाली फ्लिप-बुक देखी थी.

बाबरी फ्लिप-बुक को योद्धा की राम की छवियों वाले पोस्टरों के साथ-साथ बेचा जा रहा था. मस्जिद गिराने के कार्य में शामिल कार सेवकों का गुणगान करने वाली किताबें भी थीं, मानो विध्वंस कार्य में शामिल लोगों से संबंधित कोई हॉल-ऑफ-फेम निर्मित किया गया हो. जानबूझकर किसी बात को दोहराते रहने की प्रक्रिया इस प्रकार चलाई जाती है. इनसे ज़ख्म और विजेता भाव, दोनों को ही बरकरार रखा जा सकता है.

बातों से फावड़े तक

हालांकि बाबरी विध्वंस विविधता में एकता की भारत की अनूठी मिसाल, जिसे इंदिरा गांधी ने सलाद के कटोरे (कनाडा में जिसे मोज़ेक और अमेरिका में मेल्टिंग पॉट कहते हैं) की उपमा दी थी, पर कोई पहला या आखिरी हमला नहीं था. ये हमला 1992 के बहुत पहले से हो रहा था – परिवारों के मौखिक इतिहासों और चर्चाओं के ज़रिए. भारत के परिवारों के भीतर एक चिरकालिक और अक्षम्य इतर समुदाय के रूप में मुसलमानों की छवि को जीवंत रखा गया था.

बहुत से माता-पिता आज भी अपने बच्चे से कहते हैं कि मुसलमानों के अलावा वे चाहें जिनसे भी शादी कर सकते हैं (या इसी तर्ज पर कोई और बात). स्वयं मेरे पिता ने भी ऐसा कहा. परिवार की पूजाओं में गेंदा के फूल के उपयोग की अनुमति नहीं थी क्योंकि इसका संबंध मुसलमानों से था. तमिल में इस फूल का एक अपमानजनक नाम भी है जिसमें इसके तुर्की फूल होने का संदर्भ जुड़ा है.

एक फूल को दूर रखने का सामान्य सा लगने वाला कदम मुस्लिम आक्रमण की बात को लोकस्मृति में बनाए रखने का काम करता है. तमिल और कन्नड़ परिवारों में मुसलमानों का तुर्कों के रूप में उल्लेख किए जाने के पीछे भी यही वजह है. मेरे पिता अक्सर मदुरै में मुस्लिम इलाके के फैलाव (‘कोने में दस घरों से बढ़कर अब पूरी गली’) की, और इस बात की चर्चा करते थे कि उनके जमाने में साड़ी पहनने वाली मुस्लिम महिलाएं कैसे अब काले बुर्के में दिखने लगी हैं.

अनेक हिंदू परिवारों में इस तरह की अगंभीर टिप्पणियां और संदर्भ मुसलमानों (आशुतोष वार्ष्णेय के शब्दों में उनकी ‘सतत नमकहरामी’ पर ज़ोर देने के लिए), ईसाइयों (धर्म परिवर्तन को लेकर) और दलितों (साफ-सफाई के बारे में) के बारे में आम हैं. इसका दूसरा पहलू भी है. कई मुस्लिम परिवारों में भी बच्चों को गैरमुसलमानों से शादी करने के खिलाफ आगाह किया जाता है. मेरे एक धर्मांतरित पेंटेकोस्टल ईसाई रिश्तेदार ने एक बार मुझसे कहा था कि ‘दूसरों को बचाया नहीं जाएगा’.


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इसलिए 1992 का विध्वंस कोई अचानक नहीं हुआ था. हमारे परिवारों में होने वाली चर्चाओं का भी अयोध्या में मस्जिद पर चोट करने वाले औजारों में योगदान किया था. धर्मांधता के लिए राजनीतिक नेताओं को दोषी ठहराना या ‘नॉट इन माई नेम’ की तख्ती लेकर जंतर मंतर पर प्रदर्शन करना आसान है, लेकिन अपने अंदर झांकना और अपने परिवारों के भीतर आवाज़ उठाना कहीं अधिक मुश्किल है.

इस सप्ताह भूमिपूजन कार्यक्रम में विजयी भाव साफ दिखेगा. पहले इतिहास को ध्वस्त किया गया और अब उसे ‘सुधारा’ जाएगा. उदारवादी बुद्धिजीवी शोक मनाएंगे और नेताओं एवं अदालतों को दोष देंगे. लेकिन वे इस बात की अनदेखी करेंगे कि जन आख्यान और सामूहिक स्मृति को किस तरह निर्मित किया जाता है. इतिहास केवल विरासत में मिली संरचनाओं से नहीं बनता है. यह अमूर्त सामूहिक स्मृतियों से भी बनता है – वो बातें, जिन्हें कि भूलने नहीं दिया जाता.

इसलिए परिवारों के भीतर मौखिक इतिहासों और चर्चाओं पर अपनी ऊर्जा केंद्रित करना उदारवादियों के लिए अधिक समझदारी भरा कदम होगा.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिकि करें)

(ये लेखिका के निजी विचार हैं.)

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1 टिप्पणी

  1. Sabse bada udarbadi Bharat desh or uski janta hai…….Baki sabhi log farji or jhut bolne bale hai…udarbadi dritikon hidustan ke rah rah Mai hai…..tm jaise ko isko sikhane ki jarurat nahi hai…..Sara Gyan Hindu or uski astha ke liy hai……yahi tum abhi China Mai hoti to pata chalta ki katarpan Kya hai…yah Hindustan hi hai Jo tum jaise logo khelna pasta hai

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