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Sunday, 13 October, 2024
होममत-विमतब्राह्मणों का समर्थन हासिल कर क्या उत्तर प्रदेश की सत्ता में 2007 की तरह वापसी कर पाएगी बसपा

ब्राह्मणों का समर्थन हासिल कर क्या उत्तर प्रदेश की सत्ता में 2007 की तरह वापसी कर पाएगी बसपा

यूपी का ब्राह्मण मतदाता बीजेपी का कोर वोट बैंक रहा है लेकिन प्रदेश में चार बार सत्ता में आने के बाद भी बीजेपी ने कभी भी किसी ब्राह्मण को सीएम नहीं बनाया. इस बार तो वह बिल्कुल ठगा हुआ महसूस कर रहा है.

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क्या उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी के लिए एक बार फिर जमीन तैयार हो रही है और क्या आने वाले चुनाव में पार्टी को एक बार फिर से ब्राह्मण समाज का साथ मिल सकता है? यह सवाल प्रदेश की हालिया घटनाओं के कारण उठ रहा है. विकास दुबे मामले में एक तथाकथित नाबालिक युवक के एनकाउंटर और अब गाजियाबाद में पत्रकार विक्रम जोशी की हत्या के बाद योगी सरकार की ‘ठाकुर नीति’ से पहले से ही नाराज ब्राह्मण समाज का गुस्सा और भड़क गया है.

ब्राह्मण समाज का गुस्सा विकास दुबे एनकाउंटर से ज्यादा उन घटनाओं से है, जिसे विकास दुबे की आड़ में अंजाम दिया गया. विकास दुबे की पत्नी और नाबालिग बेटे की घुटने के बल बैठी तस्वीरें हो या 17 साल के प्रभात मिश्रा का यह कह कर एनकाउंटर कर देना कि वह पिस्टल छीन रहा था, ब्राह्मण समाज पचा नहीं पा रहा है. विकास दुबे के साथ संबंध रखने के आरोप में पांच अन्य ब्राह्मणों का एनकाउंटर किया गया, उनमें से ज़्यादातर के खिलाफ पुलिस में कोई आपराधिक रिकॉर्ड भी नहीं है. इससे ब्राह्मण समाज उबला हुआ है.


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बीजेपी से नाराज़ हैं ब्राह्मण

इस घटना के बाद आलम यह था कि सोशल मीडिया पर ऐसी तस्वीरें और वीडियो शेयर किए जाने लगे, जिसमें कोई ब्राह्मण व्यक्ति अपनी छत पर लगे भारतीय जनता पार्टी के झंडे को बेहद गुस्से में फाड़ता दिखा तो कोई युवक अपनी गाड़ी में लगे झंडे को निकाल कर फेंकता दिखा. तो कोई बीजेपी को कभी वोट न देने की कसम खा रहा था. कई ब्राह्मणों ने फेसबुक और ट्विटर पर अपने गुस्से का इजहार किया. गाजियाबाद के पत्रकार हत्याकांड में तो पुलिस से शिकायत के बावजूद अपराधियों पर कोई कार्रवाई नहीं की गई, इससे उत्साहित गुंडों ने पत्रकार की गोली मारकर हत्या कर दी. इसको लेकर योगी सरकार की काफी आलोचना हो रही है. प्रदेश में मीडियाकर्मियों पर बढ़ रहे हमले से भी माहौल बन रहा है क्योंकि मीडिया के बड़े पदों पर ब्राह्मण समाज का ही कब्जा है.

ऐसे वक्त में बसपा प्रमुख मायावती का सामने आना और ब्राह्मण समाज के खिलाफ हो रही ज्यादतियों के खिलाफ आवाज उठाना महत्वपूर्ण राजनीतिक घटना है. कानपुर में आठ पुलिसकर्मियों की हत्या के आरोपी विकास दुबे के बहाने जब पूरे ब्राह्मण समाज को कठघरे में खड़ा किया जा रहा था, बसपा प्रमुख मायावती ने पूरे ब्राह्मण समाज पर निशाना साधने वालों की आलोचना की थी. उन्होंने आगे बढ़कर ब्राह्मण समाज के समर्थन में ट्वीट किए. उन्होंने लिखा, ‘सरकार ऐसा कोई काम नहीं करे जिससे अब ब्राह्मण समाज भी यहां अपने आपको भयभीत, आतंकित व असुरक्षित महसूस करे.’

ऐसे में उत्तर प्रदेश की जमीन पर यह खुसफुसाहट शुरू हो गई है कि क्या मायावती और ब्राह्मण समाज फिर से एक-दूसरे की ओर देख रहे हैं. क्योंकि ब्राह्मण समाज भले ही भाजपा के पीछे आंखें मूंदे खड़ा है, मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ उसे सुहा नहीं रहे हैं. पहले ही सत्ता से लेकर प्रशासन तक में ठाकुर समाज का वर्चस्व कायम है, ऐसे में ब्राह्मणों के उत्पीड़न पर योगी की चुप्पी आग में घी का काम कर रही है. ऐसे में अगर ब्राह्मण समाज के भीतर उत्तर प्रदेश में भाजपा का विकल्प तलाशने की सुगबुगाहट शुरू हुई है तो यह कोई बहुत आश्चर्य की बात नहीं है.

गुस्सा इस बात को लेकर भी है कि योगी की सरकार ने कुलदीप सिंह सेंगर और स्वामी चिन्मयानंद जैसे लोगों को बचाने के लिए जान लगा दिया जबकि उनके खिलाफ लगे आरोप भी बेहद संगीन थे. वहीं दूसरी ओर विकास दुबे को अदालत में भी नहीं पहुंचने दिया गया.


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क्यों बन सकती है 2007 की स्थिति

अब जरा पीछे आते हैं तो वर्ष 2007 के विधानसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी ने बिना गठबंधन चुनाव लड़ा था और अपने बलबूते सत्ता हासिल की थी. इसके पीछे अनुसूचित जातियों के साथ सर्व समाज को जोड़ने का प्रयोग माना जाता रहा है. यही वह दौर है जब बसपा सर्वजन सुखाय का नारा लेकर आती है. हालिया घटनाक्रम के बाद प्रदेश में एक बार फिर से 2007 जैसी स्थिति बनने की संभावना है. हालांकि यहां एक बात साफ है कि ब्राह्मण वोटर योगी सरकार से नाराज हैं, न कि भाजपा से. लेकिन लोकतंत्र में हर राज्य का चुनावी गणित अलग होता है और यूपी के चुनावी गणित में योगी ब्राह्मण समाज के निशाने पर हैं और सत्ता और भागेदारी ही राजनीति गठजोड़ का सबसे पसंदीदा फार्मूला है, जो कि ब्राह्मण समाज को बसपा में मिला था और आगे भी मिल सकता है.

यूपी के ब्राह्मणों में है सत्ता की छटपटाहट

उत्तर प्रदेश में ब्राह्मणों व क्षत्रियों की प्रतिस्पर्धा छिपी हुई नहीं है. राजनीति से लेकर ठेकों और अपराध तक में दोनों जातियों में जमकर होड़ चलती है.

देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश के सिंहासन पर चार दशक तक ब्राह्मणों का वर्चस्व कायम रहा हालांकि बीच-बीच में वैश्य और ठाकुर मुख्यमंत्री भी बने. समाजवादी और आम्बेडकरवादी उभार ने इन्हें सत्ता से बाहर कर दिया. ऐसे में ब्राह्मणों को उम्मीद थी कि जब भी सूबे में बीजेपी की सरकार आएगी तो उनका पुन:उद्धार होगा. लेकिन ऐसा हुआ नहीं और जब भाजपा प्रचंड बहुमत से यूपी की सत्ता में आई तो सत्ता की चाबी ब्राह्मणों की बजाए ठाकुर पृष्ठभूमि के योगी आदित्यनाथ को सौंप दी गई.

ब्राह्मण समाज को उम्मीद थी कि सरकार से लेकर प्रशासन में उन्हें लाभ मिलेगा लेकिन जब ज्यादातर कद्दावर मंत्रालय और प्रशासनिक पद ठाकुर समाज की झोली में जाने लगे तो ब्राह्मण समाज की रही सही उम्मीद भी टूटने लगी. विकास दुबे एनकाउंटर के बाद पैदा हुई स्थिति से ब्राह्मण समाज के सब्र का बांध लगभग टूट गया है.


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बसपा के खेमें में क्यों आएंगे ब्राह्मण

अब बड़ा सवाल यह है कि उत्तर प्रदेश का ब्राह्मण मतदाता बसपा के खेमे में क्यों आएगा? इसका एक सीधा जवाब यह है कि क्या साल 2007 में किसी ने सोचा था कि बसपा प्रदेश में अपने बूते सत्ता में आ जाएगी. लेकिन सामाजिक गठजोड़ ऐसे बने कि यह करिश्मा भी हुआ.

राजनीति में न तो कोई स्थायी दोस्त होता है न कोई स्थायी दुश्मन. और बसपा के शासन में जिस तरह ब्राह्मण समाज को सरकार और प्रशासन से लेकर पार्टी तक में तवज्जो मिली, उसमें यह समाज बसपा के साथ काफी सहज था.

दूसरा कारण यह हो सकता है कि सूबे में करीब 12 फीसदी ब्राह्मण मतदाता हैं. 23 साल तक प्रदेश की कमान ब्राह्मण मुख्यमंत्रियों के हाथ में रही है. कांग्रेस के बाद यूपी का ब्राह्मण मतदाता बीजेपी के कोर वोट बैंक के तौर पर रहा है लेकिन प्रदेश में चार बार सत्ता में आने के बाद भी बीजेपी ने कभी भी ब्राह्मण समाज के किसी व्यक्ति को सीएम नहीं बनाया. ऐसे में संभव है कि भाजपा को प्रदेश की सत्ता से हटाकर ब्राह्मण समाज यह साबित करने की कोशिश करे कि उसे अगर किनारे करने की कोशिश की गई तो प्रदेश में सरकार बनाना संभव नहीं होगा.

यह होगा कैसे

ऐसे में सवाल यह है कि योगी से नाराज वोटर क्या बिना कोशिश के ही खुद बसपा के पीछे खड़े हो जाएंगे? जाहिर है नहीं. क्योंकि जमीनी हकीकत से समाजवादी पार्टी भी वाकिफ है और अखिलेश यादव लगातार ब्राह्मणों पर अत्याचार का मुद्दा उठा रहे हैं. यही नहीं सपा के कई अन्य नेता भी सोशल मीडिया पर ब्राह्मण अत्याचार की बात को जोर-शोर से उठा रहे हैं. यही काम कांग्रेस की ओर से जितिन प्रसाद जैसे नेता भी कर रहे हैं.

बहुजन समाज पार्टी नाराज ब्राह्मणों को अपने पाले में लाने की कितनी गंभीर कोशिश करती है, यह देखना अभी बाकी है लेकिन इसकी संभावना जताई जा रही है कि अगर बसपा ने ईमानदारी से कोशिश की और ब्राह्मण समाज को जोड़ने की रणनीति पर गंभीरता से काम किया तो प्रदेश में एक बार फिर से 2007 की स्थिति दोहराई जा सकती है.


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(लेखक दलित दस्तक मीडिया समूह के संपादक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

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