विधानसभा चुनावों में अपने शासन वाले सभी चारों राज्यों में भारतीय जनता पार्टी की वापसी कई मायने में अहम है. इनमें सबसे शानदार जीत तो उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ की वापसी है. उन्होंने कई रिकॉर्ड तोड़े और कई नए बनाए हैं. वे उत्तर प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री हैं, जो अपना कार्यकाल पूरा करके सत्ता में लौटे हैं.
बीजेपी की जीत में खास यह है कि किसान आंदोलन, कोविड-19 महामारी की लहरों के प्रबंधन के बारे में बुरा (और गलत) प्रचार और मुख्यमंत्री पर पुलिस के दुरुपयोग के आरोप का उत्तर प्रदेश के मतदाताओं पर कोई असर नहीं हुआ. सुशासन और ‘सबका साथ, सबका विकास’ के नारे के साथ कानून-व्यवस्था में सुधार और नरेंद्र मोदी तथा राज्य सरकारों के आर्थिक कार्यक्रमों का मतदाताओं खासकर महिला मतदाताओं पर अच्छा असर पड़ा, जो अब सुरक्षित महसूस करती हैं.
उत्तराखंड में बीजेपी ने साल भर में तीन मुख्यमंत्री बनाने के अपमान पर काबू पा लिया. यह अलग बात है कि मौजूदा मुख्यमंत्री हार गए लेकिन उनकी पार्टी जीत गई है.
गोवा में बीजेपी ने अपने कद्दावर नेता पूर्व मुख्यमंत्री तथा केंद्रीय रक्षा मंत्री रहे मनोहर पर्रिकर और लोकप्रिय चेहरे के बिना भी जीतने में कामयाब हुई. इसके साथ यह आकलन भी पूरी तरह गलत साबित हो गया कि आम आदमी पार्टी (आप) और तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) के उम्मीदवार भाजपा के वोटों में सेंध लगा देंगे और नतीजे त्रिशंकु विधानसभा के आएंगे.
फिर, मणिपुर में बीजेपी की निर्णायक जीत भी बता रही है कि ‘हिंदुत्व’ पार्टी होने की आलोचनाओं के बावजूद सेक्युलर पार्टी के रूप में उसकी स्वीकार्यता बढ़ी है, जहां करीब 41 फीसद आबादी ईसाई है.
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देश की राजनीति के लिए नतीजों के क्या हैं मायने
इन चुनावी नतीजों ने एक बार फिर यह दोहराया है कि अच्छे प्रशासन, कड़ी मेहनत, लोगों से संपर्क, रणनीति (जैसे पन्ना प्रमुख यानी हर मतदान बूथ पर एक कार्यकर्ता) और सबसे बढ़कर मोदी जैसे करिश्माई नेता का मेल जीत को खास बना देता है. नतीजों ने कांग्रेस को ऐसी स्थिति में ला दिया है, जहां से उसकी वापसी आसान नहीं है. पहले की पराजयों ने बतौर नेता राहुल गांधी का भाग्य तय कर दिया था, इन नतीजों ने उनकी बहन प्रियंका वाड्रा को भी राजनैतिक बियाबान में डाल दिया.
कांग्रेस पार्टी जरूर स्थितियों के आकलन की रस्मी बैठक करेगी लेकिन वापसी का समाधान शायद ही निकाल पाए, जिसमें अनिवार्य रूप से गांधी परिवार को पीछे रहकर किसी युवा नेता को बागडोर सौंपनी होगी. असंतुष्ट गुट ‘जी23’ को मुखर होने का मौका मिलेगा लेकिन इसमें संदेह है कि वे नेतृत्व परिवर्तन कर सकें. जो यह कहते हैं कि ‘गांधी परिवार’ के बिना कांग्रेस की कल्पना नहीं की जा सकती, इन नतीजों ने साबित कर दिया है कि ‘गांधी परिवार’ के तहत कांग्रेस विपत्ति की तरह है. संयोग से, आलाकमान की मनमर्जी ही एकमात्र वजह लगती है कि पार्टी ने पंजाब में अपना गढ़ आप के हवाले कर दिया.
आप की जीत में कई दिलचस्प और चिंताजनक पहलू हैं. इसमें शक नहीं कि दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को अपनी पार्टी का नया इतिहास रचने का श्रेय है, जो पार्टी के इकलौते लोकप्रिय नेता और रणनीतिकार हैं.
भारतीय राजनीति का पिछले कुछ वर्षों से एक दिलचस्प पहलू यह है कि चुनाव बीजेपी और कांग्रेस के बीच दो पार्टियों का मुकाबला बन गए हैं. बीजेपी ने कई राज्यों में कांग्रेस को विस्थापित कर दिया है और कांग्रेस ने भी जवाब में बीजेपी को मध्य प्रदेश और राजस्थान के साथ कुछ छोटे राज्यों में पराजित किया. केंद्र में भी टक्कर दो गठजोड़ों, बीजेपी की अगुआई वाले एनडीए और कांग्रेस की अगुआई वाले यूपीए के बीच है.
बीजेपी जब 2014 में सत्ता में आई तो उसका एक एजेंडा कांग्रेस को ज्यादा से ज्यादा राज्यों में पराजित करना था, ताकि ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ बनाया जा सके. यह कुछ राज्यों में तो संभव हुआ लेकिन तमिलनाडु या आंध्र प्रदेश जैसे कुछ राज्य हैं, जहां कांग्रेस बहुत कमजोर है या क्षेत्रीय पार्टियों को अपना जनाधार गंवा चुकी है. लेकिन बीजेपी किसी भी ऐसे राज्य में सत्ता में नहीं है, जहां कांग्रेस क्षेत्रीय पार्टियों के हाथों सत्ता गंवा चुकी है- चाहे वह बिहार हो या तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, ओडिशा, पश्चिम बंगाल. पंजाब अब ‘गैर-बीजेपी, गैर-कांग्रेस’ शासित राज्यों के क्लब में शामिल हो गया है.
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आप को पंजाब के प्रति सतर्क रवैए की दरकार
कांग्रेस ने पंजाब में अपने लोकप्रिय मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह को हटाकर अपने पैर पर कुल्हाड़ी मार ली. अपनी ही सरकार को गिराने का वह निहायत नासमझी और नुकसानदेह फैसला था. इसके पहले संयुक्त आंध्र प्रदेश में भी तब के लोकप्रिय नेता वाईएसआर रेड्डी की मृत्यु के बाद कांग्रेस आलाकमान ने ऐसे ही बेतुके और नासमझी के फैसले का परिचय दिया था. उनके बेटे के साथ पार्टी अध्यक्ष ने बुरा बर्ताव किया, जिससे वे नई पार्टी बनाने की दिशा में बढ़े. बाकी तो इतिहास है.
पंजाब में कांग्रेस ने जो जगह खाली की, वहां बीजेपी जैसी दूसरी राष्ट्रीय पार्टी को स्थापित होना चाहिए था, न कि क्षेत्रीय पार्टी को, जिसके पास राष्ट्रीय सुरक्षा और रणनीति की अपेक्षाकृत सीमित समझ है. सीमावर्ती राज्य होने के नाते पंजाब में सुरक्षा संबंधी चुनौतियां हैं और लगातार रहेंगी. राष्ट्र विरोधी ताकतें और खालिस्तान के स्लीपर सेल फिर सिर उठा सकते हैं और समस्या पैदा कर सकते हैं.
पूर्व कांग्रेस नेता अमरिंदर सिंह ने ऐसे तत्वों के खिलाफ कड़ा रुख लिया था और कई बार खतरों का सामना किया. ऐसे आरोप हैं कि आप के कई निर्वाचित विधायकों की सहानुभूति खालिस्तानी तत्वों के प्रति है और वे उनकी गतिविधियों के समर्थक हैं.
आप के नेतृत्व को पंजाब की बारूदी सुरंगों के प्रति सावधान रहना चाहिए और केंद्र के साथ सहयोग करना चाहिए. उसे दिल्ली की तरह कई मुद्दों पर केंद्र से टकराव मोल नहीं लेना चाहिए.
(शेषाद्री चारी ऑर्गेनाइज़र के पूर्व संपादक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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