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Monday, 7 October, 2024
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बेरोजगार UP में राशन, भाषण, कड़ा प्रशासन योगी के मूल मंत्र थे; बीजेपी ने इसमें इमोशन और जोड़ दिया

मोदी, अमित शाह और आदित्यनाथ की बीजेपी ने लोगों की आकांक्षाओं को ऐसे घुमाया, जो महसूस की जा सकें मगर दिखे नहीं, और यह तरकीब काम कर गई

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उत्तर प्रदेश में बीजेपी की जीत कइयों को चौंका सकती है, मगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और आरएसएस के प्रचार अभियान ने शुरू से वोटरों को तीन तरह के अफसानों से लुभाया- राशन, भाषण और कड़ा प्रशासन; या मुफ्त राशन, हिंदू-मुसलमान बंटवारे वाले भाषण और कानून-व्यवस्था की सख्ती.

लेकिन सबसे बढक़र बीजेपी के हक में काम कर गई वह तरकीब, जो मोदी, अमित शाह और आदित्यनाथ के नेतृत्व ने लोगों में ऐसी आकांक्षा जगाई जिसे महसूस किया जा सके, लेकिन देखा न जा सके. इस तरह से उन्होंने बढ़ती बेरोजगारी के खिलाफ होने वाली वोटिंग को भी बेअसर साबित कर दिया.

राशन

आरएसएस ने चुपचाप यह दूर-दूर तक फैलाया कि कोविड-19 महामारी के दौरान मोदी और योगी की सरकार में कोई भूखा नहीं रहा. उनके कहे के मुताबिक, यह मुफ्त राशन योजना की वजह से संभव हुआ, जो हर गरीब के घर पहुंचा. इससे (और उसके साथ पहले की उज्ज्वला और सस्ते आवास योजानाओं से) समूचे उत्तर प्रदेश में एक लाभार्थी वर्ग ही पैदा नहीं हुआ, बल्कि यह कोविड की वजह से आर्थिक बदहाली की काट भी साबित हुआ. मुफ्त राशन तमिलनाडु और ओडिशा की तरह सिर्फ चावल तक सीमित नहीं था, बल्कि उसमें तेल और नमक भी शामिल था. गरीबों में जो नमक के पैकेट बांटे गए, उनमें मोदी की फोटो भी लगी हुई थी. मुफ्त राशन से चुनाव में भूख बड़ा मुद्दा नहीं बन पाया.


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भाषण

एक तरफ लोगों के पेट भरे गए तो दूसरी तरफ मुख्यमंत्री आदित्यनाथ, प्रधानमंत्री मोदी और छोटे नेताओं ने भडक़ाऊ भाषणों से यूपी के वोटरों के दिमाग को मथा और सोशल मीडिया पर कंटेंट की बाढ़ लगा दी. वोटरों की सांप्रदायिक गोलबंदी के मकसद से तरह-तरह के भाषण वायरल किए गए. इसमें कर्नाटक के हिजाब विवाद से लेकर ‘कठमुल्ला’ और ‘इंशाअल्ला की ऐसी’ जैसे बेहद असभ्य शब्दों का इस्तेमाल किया गया. राशन से रसोई की आग जलती रही और भाषण से ‘हम और वे’ का विचार भी धधकता रहा. एक के बिना दूसरे से बीजेपी की नैया पार नहीं लगती. यही जमीनी स्तर पर प्रचार का स्पष्ट मंत्र था. आखिर विचार के बिना भोजन किस काम का.

कड़ा प्रशासन

डोनाल्ड ट्रंप की ही तरह मुख्यमंत्री आदित्यनाथ उत्तर प्रदेश के कानून-व्यवस्था के नेता बन गए. याद कीजिए कि अमेरिका में पुलिसिया क्रूरता के खिलाफ ब्लैक लाइव्स मैटर प्रदर्शन भड़के तो ट्रंप ने कैसे सिर्फ तीन शब्द ट्वीट किए? दरअसल, ट्रंप (और तब के उप-राष्ट्रपति माइक पेंस) ने 2020 में ‘कानून और व्यवस्था’ शब्द तकरीबन 90 बार बोले. आदित्यनाथ के समर्थक और आलोचक दोनों समाजवादी पार्टी के उम्मीदवारों के कथित आपराधिक पृष्ठभूमि की बात करते हुए यह कहने लगे थे कि उनके राज में कानून और व्यवस्था तो सुधरी है. बीजेपी के समर्थक तो कुछ न-नुकुर के साथ यह भी कहते थे कि मायावती के राज में अपराध काबू में हुआ करता था.

दिप्रिंट के स्तंभकार योगेंद्र यादव ने लिखा कि आदित्यनाथ के राज में कानून व्यवस्था मुसलमानों को उनकी जगह दिखाने का कोड बन गया था. यही नहीं, बिहार की ही तरह उत्तर प्रदेश में भी कानून और व्यवस्था सवर्णों के लिए यादवों के ‘गुंडाराज’ का पर्याय बन गया. ठीक वैसे ही, जैसे अमेरिकी नेताओं के लिए गोरों में ‘अश्वेत अपराधों’ के प्रति हौवा खड़ा करने का कानून और व्यवस्था पर्याय है.


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आकांक्षा का भावनात्मक मुद्दा

बीजेपी 2014 में युवाओं की बढ़ती आकांक्षाओं को हवा देने वाले वादों की पीठ पर चढ़कर सत्ता में पहुंची थी. पीडब्लूसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक, 2018 से 2027 के बीच भारत में पांच ऑस्ट्रेलिया के बराबर रोजगार पैदा करने थे. कई ने तो उस समय मनरेगा (महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून) की खिल्ली उड़ाई थी और कहा था कि भारत के युवा असली रोजगार चाहते हैं. भारत में न सिर्फ रोजगार पैदा नहीं हुए, बल्कि बीजेपी सरकार के तहत हाल के वर्षों में बड़े पैमाने पर रोजगार और नौकरियां खत्म हुई हैं. सेंटर फॉर इकोनॉमिक डेटा ऐंड एनालिसिस (सीईडीए) की एक रिपोर्ट के मुताबिक, 2016 से 2021 के बीच 30 फीसदी रोजगार घटे हैं.

इस खराब रिकॉर्ड के बावजूद, आकांक्षा शब्द मोदी और आदित्यनाथ की राजनीति से चिपक गया है. कैसे? पिछले आठ साल की कहानी यही है कि मोदी के प्रोपेगंडा मशीन ने आकांक्षा को प्रत्यक्ष रोजगार से भावना और गर्व के मुद्दे में बदल डालने में कामयाब हुई है. सरकार और वोटरों के बीच यह नया गोंद है. जब तक लोगों को यह यकीन है कि राष्ट्र ताकत की अदृश्य समझ से बेहतर स्थिति में है, वे सरकार को रोजगार न पैदा करने या गंवाने का जिम्मेदार नहीं ठहराएंगे.
मोदी और बीजेपी के दूसरे नेताओं ने देश के कई हिस्सों, खासकर युवाओं में गौरव का एक हौवा जगा दिया है. 2019 के लोकसभा चुनावों में कोटा में कई छात्रों ने दिप्रिंट से कहा कि उन्हें नहीं लगता कि रोजगार सृजन मोदी सरकार की जिम्मेदारी है. ऐसे लोगों ने उन्हें इस दायित्व से मुक्त कर दिया है. इस तरह कामकाज का आकलन और वेट के रुझान में कोई रिश्ता नहीं रह गया है. यह रिश्ता टूटना चुनावी लोकतंत्र के मूल विचार से ही तलाक जैसा है.

बीजेपी के वोटरों में आज यह आम धारणा है कि भारत ‘मजबूत’ हुआ है, जबकि अर्थव्यवस्था कमजोर पड़ती जा रही है और सामाजिक शांति टूटती जा रही है. मोदी और आदित्यनाथ की सरकारें अब रोजगार और जीडीपी के आंकड़ों से नहीं नापी जातीं. इसके बदले, यह यकीन दिलाने पर जोर है कि भारत महानता की ओर बढ़ रहा है. उत्तर प्रदेश के चुनाव प्रचार में मोदी ने रूस-यूक्रेन जंग को भीड़ से यह सवाल पूछकर भारत की महानता से जोड़ दिया कि ‘भारत को भविष्य में मजबूत होना चाहिए कि नहीं?’ ऐसे राष्ट्रीय मूड में आखिर क्यों बेरोजगार वोटर योगी आदित्यनाथ से सवाल पूछेगा?
उत्तर प्रदेश भर में बड़े पैमाने पर बेरोजगारी की रिपोर्ट करते बहुत सारे पत्रकारों के बावजूद इस मुद्दे पर नाराजगी बहुत थोड़ी थी. जैसा कि दिप्रिंट की ज्योति यादव ने रिपोर्ट की, खाली बैठे लोगों के लिए मोबाइल डेटा का इस्तेमाल व्यस्त रखने का बहाना बन गया है.

सबसे अहम तो यह है कि रोजगार के बदले लोग राशन पाते हैं. और यह कांग्रेस के मनरेगा से अलग है. विद्वान हिलाल अहमद ने मुझे बताया कि यह कल्याण और खैरात का फर्क है. कल्याणकारी कार्यक्रम को आपदा के दौर में सरकार के दायित्व की तरह देखा जा सकता है. खैरात तो मर्जी पर निर्भर है. पहले से गांव वाले गरीबी रेखा के नीचे जाने से बचते हैं, जबकि दूसरे से भूख से बचते हैं. 2014 में कुछ अर्थशास्त्री लगातार कह रहे थे कि मनरेगा देश के मजदूर वर्ग को आलसी बना रहा है और कुछ ने तो यहां तक दलील दी थी कि गांव वाले मनरेगा के पैसे से जेवरात खरीद रहे हैं. आज, हम बस इतने से संतुष्ट हैं कि उत्तर प्रदेश में कोई भूखे पेट सोने नहीं जाता. अबकी बार, रेखा से नीचे.

(रामा लक्ष्मी दिप्रिंट की ओपिनियन और फीचर एडिटर हैं. उनका ट्विटर हैंडल है @RamaNewDelhi. विचार निजी हैं)


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