गत सप्ताह इज़रायल की अपनी पहली यात्रा के दौरान मैं येरुशलम के प्राचीन शहर में वेलिंग वॉल– यह दीवार इसी नाम से प्रसिद्ध है– को निहार रहा था, जो कि सदियों की तबाही और मार-काट की गवाह है.
मेरे सामने द्वितीय टेम्पल का हिस्सा रही दीवार के पास आस्थावान यहूदियों का एक दल आ चुका था. उनमें से कई आंसू बहा रहे थे, जबकि अन्य दीवार को चूम रहे थे या उस पर हिब्रू में लिखी अपनी अर्जियां टिका रहे थे.
रोमन आक्रमण के दौरान ईस्वी सन् 70 में टेम्पल को निर्दयता से नष्ट कर दिया गया था. आस्था और शोक के उस दृश्य को देखकर मेरे मन में अयोध्या की छवि उभर आई, जहां मैंने अनेकों आस्थावान हिंदुओं को अपने भगवान राम लला को, उस पवित्र शहर में, जिसे कि उनका जन्मस्थल माना जाता है, एक सुरक्षा घेरे के पीछे तंबू में पड़ा देख रोते पाया है.
मैं दक्षिण भारत के लिए इज़रायल की मिशन प्रभारी डाना कुर्श की पहल पर इज़रायल दौरे पर गए भारतीय शिष्टमंडल का हिस्सा था.
‘पवित्र भूमि’ का अंकित इतिहास इस बात का गवाह है कि यह क्षेत्र कभी शांत और संघर्षमुक्त नहीं रहा है. एशिया और अफ्रीका की विभाजक भूमि पर स्थित येरुशलम सामरिक रूप से अहम व्यापार मार्गों पर नियंत्रण के लिए लालायित आक्रमणकारी शासकों और आक्रांताओं की रणभूमि रहा है.
नियमित अंतराल से इसका नियंत्रण एक विजेता शासक से दूसरे के हाथों में आता-जाता रहा और यहां की जनता त्रासदी भोगती रही. आक्रमणों और तबाहियों से भरे अपने इतिहास के मद्देनज़र अनेक भारतीयों को येरुशलम के लोगों से सहानुभूति हो सकती है.
इतिहासकार साइमन सिबाग मोंटफियोरि अपनी पुस्तक ‘येरुशलम: द बायोग्राफी’ में लिखते हैं: ‘येरुशलम एकाकार ईश्वर का निवास, दो समुदायों की राजधानी, तीन धर्मों का पूजास्थल और दो जगहों पर– स्वर्ग में और धरती पर– मौजूद एकमात्र शहर है.’
मूसा, ईसा और मोहम्मद द्वारा स्थापित इब्राहीमी धर्म यहीं से शुरू हुए थे, पर येरुशलम को निरंतर मौत का साथ मिला है. अंग्रेज़ लेखक ऐल्डस हक्सले ने इसे ‘धर्मों की कत्लगाह’ कहा था.
येरुशलम के आख्यान से मुझे अपने ‘सिटी ऑफ लाइट’ वाराणसी का स्मरण हो आता है. इसका ज़िक्र ऋग्वेद जैसे प्राचीन हिंदू ग्रंथों में आता है. वाराणसी ना सिर्फ हिंदुओं का पवित्रतम नगर है, बल्कि यह बौद्ध धर्म की विकास भूमि और चार जैन तीर्थंकरों की जन्मस्थली भी है.
हालांकि वाराणसी ने येरुशलम और इसके पवित्र टेम्पल जैसा विध्वंस नहीं देखा, पर इसके विश्वनाथ मंदिर को मुगल शासक औरंगज़ेब की फौज की मार झेलनी पड़ी थी. (ए शॉर्ट हिस्ट्री ऑफ औरंगज़ेब, जदुनाथ सरकार).
इज़रायल की 1947 में स्थापना के खिलाफ मत डालने के बाद भारत ने 1992 तक उसके साथ पूर्ण राजनयिक संबंध स्थापित नहीं किए थे. इतना ही नहीं, भारत ने यहूदीवाद को नस्लवाद के रूप में वर्गीकृत किए जाने के पक्ष में भी मतदान किया था.
पर भारत में थियोडोर हर्ज़ल (1860-1904) द्वारा प्रतिपादित राजनीतिक यहूदीवाद को कम ही लोग समझते हैं. इसने होलोकॉस्ट के बाद की दुनिया में पीड़ित यहूदियों की पहचान को परिभाषित किया, जिसमें विनायक दामोदर सावरकर द्वारा प्रतिपादित हिंदुत्व से कई प्रतीकात्मक समानताएं हैं.
18 सदियों तक अपनी भूमि से निर्वासित और दुनिया भर में बिखरे यहूदियों के लिए यहूदीवाद के रूप में नस्लीय राष्ट्रवाद ने एक शक्तिशाली धुरी का काम किया. यहां अपने देश में, सावरकर ने तराइन के युद्ध (1191-1192) से लेकर ब्रिटिश आधिपत्य के अंत तक हिंदू वर्चस्व के व्यवस्थित पतन पर निराशा व्यक्त की थी. यह भौगोलिक निर्वासन नहीं, बल्कि सांस्कृतिक निर्वासन का कारण बना. गैरधर्मशास्त्रीय राजनीतिक साधन के रूप में हिंदुत्व भारत के समुदायों को समेकित रूप से परस्पर जोड़ सकता था, और इस तरह राजनीतिक एवं सांस्कृतिक एकता स्थापित कर सकता था.
यहूदीवाद के मुखर समर्थक सावरकर ने अपने ग्रंथ ‘हिंदुत्व’ में 1923 में लिखा था कि अरब के मुसलमानों की पवित्र भूमि अरब इलाक़े में थी, फलस्तीन में नहीं और ‘संपूर्ण फलस्तीन यहूदियों को दे दिया जाना चाहिए.’
मुस्लिम राष्ट्रों की सद्भावना पाने के लिए प्रस्तुत विभाजित फलस्तीन के गांधीवादी और नेहरूवादी सिद्धांत के विपरीत सावरकर का कहना था: ‘यदि यहूदीवाद का सपना हकीकत बनता है, यदि फलस्तीन यहूदी राष्ट्र बनता है, तो इससे हमें उतनी ही खुशी होगी, जितनी कि हमारे यहूदी दोस्तों को.’
उन्होंने कहा कि नैतिक और राजनीतिक दोनों ही तरह से भारत को यहूदी राष्ट्र का समर्थन करना चाहिए.
इसलिए आश्चर्य नहीं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में हम भारत-इज़रायल संबंधों का पुनरोत्थान देख रहे हैं. इज़रायली अख़बार ‘हेर्त्ज़’ ने इस संबंध में लिखा: ‘भारत में नेतृत्व के दक्षिणपंथी रुझान आने के साथ ही इज़रायल और भारत के संबंधों में मज़बूती आना स्वाभाविक है.’
दिचलस्प बात यह है कि यहूदीवाद और हिंदुत्व के बारे में कही जाने वाली बातों के विपरीत दोनों ही दर्शनों में बहुलतावाद और समान शर्तों पर अल्पसंख्यकों के साथ शांतिपूर्ण सहअस्तित्व पर ज़ोर दिया गया है.
ना तो हर्ज़ल और ना ही सावरकर ने अल्पसंख्यक समुदायों के नागरिक और राजनीतिक अधिकार छीनने की वकालत की थी. अच्छी बात यह है कि हर्ज़ल, जिनके अवशेष येरुशलम में माउंट हर्ज़ल में सहेजकर रखे गए हैं, को इजरायल में राष्ट्रीय नायक माना जाता है.
पर भारत में सावरकर आज भी, संसद के सेंट्रल हॉल में उनकी तस्वीर टांगे जाने के 15 साल बाद भी, एक निंदित और विवादास्पद चरित्र बने हुए हैं.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की 2017 में इज़रायल की यात्रा, किसी भारतीय प्रधानमंत्री की पहली ऐसी यात्रा, के बाद भारत-इज़रायल रिश्तों में नई ऊर्जा आई है. इज़रायली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू के साथ मोदी के व्यक्तिगत स्तर पर अच्छे संबंध होने के कारण प्रौद्योगिकी, कृषि, बायोटेक्नोलॉजी, उद्यमिता, कचरा शोधन, तेल एवं प्राकृतिक गैस और अंतरिक्ष तकनीक के क्षेत्रों में दोनों देशों के संबंध मज़बूत हुए हैं. साथ रक्षा क्षेत्र में दोनों के बीच पारंपरिक सहयोग भी बढ़ा है.
आम इज़रायलियों द्वारा भारत के प्रति प्रदर्शित प्यार और गर्मजोशी, पूर्व में सोवियत रूसियों के भारत के लोगों और बॉलीवुड सितारों के प्रति प्रदर्शित प्रेम का दूसरा संस्करण नज़र आता है.
इज़रायल के पूर्व राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री शिमोन पेरेज़ ने एक बार कहा था: ‘नैसर्गिक संसाधनों के अभाव वाले इज़रायल में हमने अपनी सबसे बड़ी राष्ट्रीय विशेषता, अपनी बुद्धि का इस्तेमाल करना सीखा है. रचनात्मकता और आविष्कारों के सहारे हमने अपने बंजर रेगिस्तानों को उपजाऊ खेतों में बदल डाला है और विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में नई मिसालें कायम की हैं.’
यह खूबी ही, ना कि ऐतिहासिक बोझ, भारत और इज़रायल के बीच टिकाऊ संबंधों की नींव बन सकती है, जो कि ऐतिहासिक और सांस्कृतिक रूप से समान और एक जैसी चुनौतियों का सामना कर रहे राष्ट्र हैं.
(लेखक बेंगलुरु स्थित इतिहासकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं.)