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Saturday, 21 December, 2024
होममत-विमतमैं पैगंबर को मानती हूं, लेकिन मुझे कभी नहीं सिखाया गया कि ईशनिंदा दंडनीय है. पर पाकिस्तान ऐसा करता है

मैं पैगंबर को मानती हूं, लेकिन मुझे कभी नहीं सिखाया गया कि ईशनिंदा दंडनीय है. पर पाकिस्तान ऐसा करता है

पाकिस्तान के फैसलाबाद में हाल में हुई एक घटना, जहां भीड़ ने ईशनिंदा के आरोपों पर चर्चों और ईसाइयों के घरों को जला दिया, ने देश में अल्पसंख्यकों की दुर्दशा पर एक दर्दनाक मुद्दा उठाया है.

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पाकिस्तान लंबे समय से विविधता को स्वीकार करने के लिए संघर्ष कर रहा है. देश के धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ अक्सर ईशनिंदा के आरोप लगाए जाते हैं. हाल ही में फैसलाबाद के जारनवाला में भीड़ ने जमकर उत्पात मचाया. वहां भीड़ ने चर्चों में आग लगा दी जिसके कारण पूरा चर्च राख में तब्दील हो गया. साथ ही वहां के ईसाइयों के घरों में भी आग लगा दी. कथित तौर पर आरोप था कि वहां पवित्र पुस्तक कुरान को अपवित्र किया गया था.

पाकिस्तानी ईसाई, एक ऐसे देश में रहते हैं जो गर्व से खुद को “पवित्र भूमि” के रूप में प्रचारित करता है, एक बार फिर खुद को उत्पीड़न के अपरिहार्य जाल में उलझा हुआ पाता है जिसे अक्सर ईशनिंदा के आरोपों के माध्यम से अल्पसंख्यकों को निशाना बनाया जाता है.

हिंसा का यह चक्र दो चुनौतियों से उत्पन्न होता है जिनसे पाकिस्तान को निपटना होगा.

पहला पाकिस्तान दंड संहिता की धारा 295 है, जो देश का औपनिवेशिक युग का ईशनिंदा कानून है, जिसमें 1980 के उथल-पुथल भरे दशक के दौरान भारी बदलाव आया – जिसे जनरल जिया-उल-हक के सैन्य शासन के तहत “इस्लामीकरण” के उदय के रूप में चिह्नित किया गया था. इस कानूनी आदेश ने राष्ट्र पर एक भयावह छाया डाली, जिसने ईशनिंदा करने का साहस करने वालों को मौत या आजीवन कारावास की धमकी दी. यह कानून पाकिस्तान में असहिष्णुता और कठोर हठधर्मिता को दिखाता है.

इसके साथ सहज रूप से जुड़ी हुई दूसरी चुनौती है- उग्रवादी इस्लामवादी जो निडरता से कानून के अधिकार पर कब्जा कर लेते हैं. साथ ही वह खुद को इसके निगरानीकर्ताओं के रूप में प्रस्तुत करते हैं. ये जोशीले योद्धा गर्व से मार्च करते हैं, गर्व से कथित ईशनिंदा करने वालों को मौके पर ही फांसी देने की अपनी इच्छा प्रदर्शित करते हैं, जैसे कि उनके पास दैवीय प्रतिशोध की अंतिम शक्ति है. आक्रामकता के इस अस्थिर प्रदर्शन में, तहरीक-ए-लब्बैक के नाम से जाना जाने वाला एक राजनीतिक गुट पूरी लगन से इस उद्देश्य के लिए प्रतिबद्ध है. इस गुट के लोग अपराधियों को नायक के रूप में सम्मानित करते हैं और अपने अनुयायियों को काफी खतरनाक उत्साह के साथ एकजुट करते हैं.


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भीड़ पाकिस्तानी मूल्यों को कायम रखती है

हालांकि, हम निश्चित रूप से यह तर्क दे सकते हैं कि पाकिस्तान में भीड़ कानून को अपने हाथ में लेकर कानूनी और सामाजिक व्यवस्था को बाधित करती है. हम इस तथ्य को नजरअंदाज नहीं कर सकते हैं कि वे उन्हीं मूल्यों को कायम रख रहे हैं जिन पर पाकिस्तान की स्थापना हुई थी. देश का संविधान ईशनिंदा कानूनों और अल्पसंख्यक समूहों के हाशिए पर जाने को बर्दाश्त करता है, ऐसे नियमों को लागू करता है जो व्यक्तियों (जैसे अहमदिया) को मुस्लिम के रूप में पहचानने से रोकते हैं और गैर-मुसलमानों को राष्ट्रपति या प्रधान मंत्री बनने से रोकते हैं.

एक राष्ट्र के रूप में, पाकिस्तान अपने संविधान और जिन मूल्यों को कायम रखना चाहता है, उनमें खामियों को स्वीकार किए बिना अपने अल्पसंख्यक समूहों के हाशिए पर जाने के मुद्दे को हल नहीं कर सकता है. ईशनिंदा का विवादास्पद मुद्दा समस्या की केवल एक स्पष्ट अभिव्यक्ति है. जब तक पाकिस्तान अपनी संवैधानिक कमियों पर काबू नहीं पाता और अपने मूल्यों को आकार देने में ईशनिंदा की भूमिका पर पुनर्विचार नहीं करता, तब तक उसके सभी नागरिकों के लिए समानता और समावेशिता हासिल करना असंभव रहेगा. अंततः, ईशनिंदा कानून पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों को दबाने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले कई उपकरणों में से एक है.


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ऐसे कानूनों के पीछे तर्क

हालांकि, पाकिस्तान एकमात्र ऐसा देश नहीं है जो इस अवधारणा को मानता है. मिस्र, कतर, इंडोनेशिया, बांग्लादेश और अन्य देशों में ईशनिंदा कानून के अलग-अलग प्रकार हैं. कुछ देशों- जैसे अफ़ग़ानिस्तान, ईरान, पाकिस्तान और सऊदी अरब – में इसमें और भी कड़े प्रावधान हैं. यहां अपराध के लिए मौत की सज़ा है. इसलिए, समाधान खोजने के लिए एक मूल प्रश्न के गहन जांच की आवश्यकता है: इस्लाम के संदर्भ में ईशनिंदा के पीछे तर्क क्या है और मुसलमान इसका समर्थन क्यों करते हैं?

पैगंबर मुहम्मद (उन पर शांति हो) के प्रति गहरी श्रद्धा रखने वाले एक मुसलमान के रूप में, मुझे कभी नहीं सिखाया गया कि ईशनिंदा के लिए शारीरिक दंड की आवश्यकता होती है. आस्था के नाम पर निर्दोष लोगों को दी गई पीड़ा और उस पीड़ा को देखना व्यथित करने वाला होता है. ऐसे कार्य न तो धर्म के सम्मान में योगदान देते हैं और न ही उस समुदाय के हितों की पूर्ति करते हैं जिसके लिए वे किए जाते हैं.

पारंपरिक इस्लामी व्याख्या ने ईशनिंदा की प्रतिक्रिया के रूप में सज़ा का समर्थन किया है. हालांकि, अलग-अलग विचारधाराओं के बीच काफी छोटे-छोटे मतभेद हैं. उदाहरण के लिए, इस बात पर मतभेद उत्पन्न होते हैं कि क्या पश्चाताप करने से किसी ऐसे व्यक्ति को क्षमा किया जा सकता है जिसने पवित्र पैगंबर का अपमान किया है. इसके अलावा, शास्त्रीय इस्लाम के भीतर, एक कम लोकप्रिय दृष्टिकोण ईशनिंदा करने वाले केवल मुसलमानों को दंडित करने की वकालत करता है, गैर-मुसलमानों को नहीं.

फिर भी, ये विचार केवल न्यायविदों की व्याख्याएं और दृष्टिकोण हैं. महत्वपूर्ण बात यह है कि इस्लामी कानून के दो मूलभूत स्रोत-कुरान और सुन्नत में ईशनिंदा कानूनों के लिए कोई स्पष्ट आधार मौजूद नहीं है. यह विशेष रूप से कुरान में स्पष्ट है, जिसकी 6,236 आयतों में ईशनिंदा करने वालों को दंडित करने के लिए किसी भी प्रत्यक्ष आदेश का अभाव है. इस्लामिक विद्वान मौलाना वहीदुद्दीन खान भी कहते हैं कि “ईशनिंदा शारीरिक दंड का विषय होने के बजाय बौद्धिक चर्चा का विषय है.”

(आमना बेगम अंसारी एक स्तंभकार और टीवी समाचार पैनलिस्ट हैं. वे ‘इंडिया दिस वीक बाय आमना एंड खालिद’ नाम से एक वीकली यूट्यूब शो चलाती हैं. उनका ट्विटर हैंडल @Amana_Ansari है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(संपादन: ऋषभ राज)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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