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Sunday, 22 December, 2024
होममत-विमत‘मुझे यह कहना बेतुका लगता है कि शाकाहारियों की ज़रूरतें पूरी नहीं की जानी चाहिए’

‘मुझे यह कहना बेतुका लगता है कि शाकाहारियों की ज़रूरतें पूरी नहीं की जानी चाहिए’

मुसलमानों के भोजन के विकल्पों को अक्सर निजी पसंद की तरह क्यों देखा जाता है, जबकि हिंदुओं और अन्य समुदायों द्वारा अपनाए जाने वाले शाकाहार को भेदभावपूर्ण माना जाता है?

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अवसरों से भरी दुनिया में कारोबार अक्सर इनोवेशन में सबसे आगे होते हैं. ज़ोमैटो के सीईओ दीपिंदर गोयल का भारत के बड़े शाकाहारी बाज़ार, जिसमें देश की 39 प्रतिशत आबादी शामिल है, में पैठ बनाने का हालिया कदम इसका प्रतीक है. हालांकि, जो बात रणनीतिक व्यापारिक फैसले से शुरू हुई वो तेज़ी से विवाद में तब्दील हो गई. ज़ोमैटो द्वारा विशेष रूप से शाकाहारी रेस्तरां को सूचीबद्ध करने वाली नई सुविधा शुरू करने जिसमें ऑर्डर प्रबंधित करने के लिए ‘शुद्ध शाकाहारी’ फ्लीट शुरू किया जाना था, ने ऑनलाइन बहस छेड़ दी.

उन्होंने भोजन से जुड़ी शर्तों को समेटने के समाधान की तरह जिसे पेश किया, उसे तुरंत जातिवाद का नाम दे दिया गया. इंडियन एक्सप्रेस ने Zomato’s ‘pure veg food’ scheme is pure casteism शीर्षक से एक लेख प्रकाशित किया. यही कारण है कि बहुत से लोगों को यह समझ नहीं आता. इस प्रतिक्रिया ने भारत में फूड ऑप्शन और सामाजिक गतिशीलता के अंतर्संबंध की जटिलताओं को उजागर किया. पारंपरिक हिंदू आहार संबंधी मान्यताओं में निहित शुद्धता और प्रदूषण की धारणा ही शायद आलोचकों को ‘शुद्ध शाकाहारी’ के उपयोग की तुलना जातिवाद से करने के लिए प्रेरित करती है.

शाकाहारी भोजन पवित्र और — सात्विक — से जुड़ा है, जबकि मांसाहार तामसिक — अशुद्ध और भोगवादी माना जाता है. इसके अलावा, मांस खाने को “निचली” जातियों और मुसलमानों से जोड़ने वाली एक व्यापक, लेकिन गलत रूढ़ि मौजूद है. नतीजतन, “शुद्ध शाकाहारी” की अवधारणा को भेदभाव में निहित रचना के रूप में देखा जाता है, जिससे यह जातिवादी बन जाती है.

भारत में पली-बढ़ी एक मुसलिम महिला होने के नाते मुझे देश के अभिजात वर्ग और बौद्धिक वर्ग से मुस्लिम आहार विकल्पों के प्रति इस तरह की आलोचना का सामना कभी नहीं करना पड़ा. जबकि हिंदू अधिकार के एक वर्ग ने हलाल प्रथाओं की आलोचना की है और कुछ ने इसे क्रूर करार दिया है, ऐसा कोई व्यापक तर्क नहीं है जो हलाल को मांस खाने वाले गैर-मुसलमानों के खिलाफ भेदभावपूर्ण मानता हो.

यह विरोधाभास एक विचारोत्तेजक सवाल उठाता है: ऐसा क्यों है कि मुसलमानों (या हलाल) के आहार विकल्पों को व्यक्तिगत पसंद की तरह देखा जाता है, जबकि हिंदुओं के कुछ वर्गों (शुद्ध शाकाहारी) को भेदभाव के चश्मे से देखा जाता है?


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एक स्पष्ट दोहरा मापदंड

आलोचकों का मानना है कि भारत में शाकाहार नैतिक विचारों के बजाय भेदभाव से प्रेरित है. यह सुझाव देता है कि व्यक्ति न केवल नैतिक चिंताओं के कारण शाकाहारी भोजन का विकल्प चुनते हैं, बल्कि अपने भोजन को प्रदूषकों के साथ मिलाने से भी बचना चाहते हैं. हालांकि, इसी तरह का तर्क मुस्लिम समुदाय में भी देखा जा सकता है, जहां व्यक्ति बेकन जैसे कुछ खाने के सामान से परहेज करते हैं, या गैर-अनुमेय खाद्य पदार्थों के संपर्क में आने वाले बर्तनों का उपयोग करने से बचते हैं. मुझे हैरानी है कि मुस्लिम आहार संबंधी प्राथमिकताओं को अक्सर निजी स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति के रूप में प्रशंसा और मान्यता मिलती है. हालांकि, शाकाहार रहने वालों के प्रति समान प्रतिक्रियाओं का ध्यान देने योग्य अभाव प्रतीत होता है.

यह असंगति खाद्य प्रथाओं को लेकर सामाजिक धारणाओं और पूर्वाग्रहों के बारे में महत्वपूर्ण सवाल उठाती है. दोहरा मापदंड इस पूर्वाग्रह की ओर इशारा करता है और भारतीय बौद्धिक वर्ग की विफलता पर चिंतन को प्रेरित करता है.

दुनिया के विभिन्न हिस्सों में शाकाहार के प्रति विरोधाभासी दृष्टिकोण को देखना वास्तव में हैरान करने वाला है. पश्चिमी दुनिया में शाकाहार की काफी सराहना की गई है और इसे अपनाया गया. पौधे-आधारित आहार की ओर इस बदलाव को पोषण संबंधी, नैतिक और हाल ही में पर्यावरणीय विचारों सहित इसके कई लाभों के लिए सराहा गया है. शाकाहार को बढ़ावा देने या मांस की कम खपत की वकालत करने वाली पहल को अक्सर बुद्धिजीवियों और समाज द्वारा एक स्वस्थ और अधिक टिकाऊ जीवन शैली की दिशा में नैतिक कदम के रूप में मनाया जाता है. हालांकि, यह आश्चर्यजनक है कि भारत में, जहां शाकाहार की गहरी सांस्कृतिक जड़ें और ऐतिहासिक महत्व है, इसी तरह की पहल को अक्सर आलोचना का सामना करना पड़ता है. इसे अपने नैतिक और पर्यावरणीय योगदान के लिए उस स्तर का समर्थन और मान्यता नहीं मिलती जैसा कि पश्चिम में देखा जाता है.

शाकाहारी फ्लीट के लिए अलग-अलग रंग की वर्दी को लेकर एक और आलोचना सामने आई. इसने व्यक्तिगत स्तर पर संभावित भेदभाव के बारे में चिंताएं बढ़ा दीं. हालांकि, समाज में व्यक्तियों द्वारा रखे गए पूर्वाग्रहों को संबोधित करना किसी व्यवसाय की ज़िम्मेदारी नहीं है. बल्कि, सबसे प्रभावी और स्थायी समाधान ऐसी मानसिकता को खत्म करने के लिए सामाजिक परिवर्तन की दिशा में काम करना है. इस चिंता के जवाब में ज़ोमैटो के सीईओ ने शाकाहारी बेड़े के ऑन-ग्राउंड अलगाव को हटाने की घोषणा की. इसके बजाय, सभी राइडर्स, चाहे वे नियमित बेड़े का हिस्सा हों या शाकाहारी बेड़े का, लाल रंग पहनेंगे. यह फैसला अलगाव और भेदभाव को बढ़ावा देने से सक्रिय रूप से बचते हुए अपने सभी उपभोक्ताओं की ज़रूरतों को पूरा करने की ज़ोमैटो की प्रतिबद्धता को दिखाता है. इस तरह की कार्रवाइयां सराहनीय हैं और उनकी व्यावसायिक प्रथाओं के भीतर समावेशिता और समानता को बढ़ावा देने के प्रति समर्पण प्रदर्शित करती हैं.

एक मुस्लिम होने के नाते, जिसे भावनात्मक कारणों से गोमांस को छोड़कर, अपना भोजन चुनने की स्वतंत्रता है, मुझे यह पूरी तरह से निरर्थक लगता है कि शाकाहारी व्यक्तियों की ज़रूरतें पूरी नहीं होनी चाहिए. जबकि सभी के साथ समान मानकों का व्यवहार किया जाना चाहिए, यह पहचानना भी महत्वपूर्ण है कि शाकाहारी भोजन चुनने से अंततः पर्यावरण को लाभ होता है. सिर्फ इसलिए कि शाकाहार की जड़ें धार्मिक मान्यताओं में हैं, यह शाकाहारी होने की वैधता को कम नहीं करता है.

(आमना बेगम अंसारी एक स्तंभकार और टीवी समाचार पैनलिस्ट हैं. वह ‘इंडिया दिस वीक बाय आमना एंड खालिद’ नाम से एक साप्ताहिक यूट्यूब शो चलाती हैं. उनका एक्स हैंडल @Amana_Ansari है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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