scorecardresearch
Wednesday, 20 November, 2024
होममत-विमतआहत हिन्दू मन और मोदी

आहत हिन्दू मन और मोदी

मोदी को राष्ट्रीय स्तर पर उभारने में ऐसे अनेक हिन्दूवादियों की भूमिका रही है, जो उनके भीतर हिन्दुत्व का नया नायक खोज रहे थे. ऐसे लोग अब क्या सोच रहे हैं?

Text Size:

बात 2012 की है. हिमाचल प्रदेश में विधानसभा चुनाव हो रहे थे. हिमाचल प्रदेश से बहुत दूर बनारस में कुछ जगहों पर एक बैनर लगा था, जिसमें गुजरात के मुख्यमंत्री को हिन्दुत्व का शेर बताते हुए हिमाचल में जीत की संभावना बताई गयी थी. यह थोड़ा अटपटा था.

हिमाचल प्रदेश के चुनाव का बनारस से कोई लेना-देना नहीं था और मोदी से भी कोई मतलब इसलिए नहीं था, क्योंकि न तो वह हिमाचल प्रदेश के प्रभारी थे, न राष्ट्रीय नेता और गुजरात भी राजस्थान की तरह हिमाचल के पड़ोस में नहीं था. फिर यहां काशी के पंडितों ने मोदी का बैनर लगाकर हिमाचल में जीत के लिए मोदी में संभावना क्यों देखी होगी?

हिन्दू मानस में कुछ तो ऐसा चल रहा था, जो अंडरकरंट की तरह काम कर रहा था. वह क्या था? क्या राष्ट्रीय क्षितिज पर उभरने से पहले मोदी हिन्दूवादियों के हृदय पर एक नायक के रूप में उभर आये थे? तात्कालिक घटनाएं इस बात को प्रमाणित करती हैं कि मोदी को राष्ट्रीय स्तर पर उभारने में ऐसे अनेक हिन्दूवादियों की भूमिका रही है, जो उनके भीतर हिन्दुत्व का नया नायक खोज रहे थे. यही खोज मोदी को 2014 की डेहरी पार कराकर 2019 तक खींच लायी है.

समर्थक हताशा में चुप

अब सवाल ये उठता है कि अपने साढ़े चार साल के कार्यकाल में खुद मोदी उन हिन्दूवादियों के हितों की कितनी रक्षा कर पाये हैं? उन समर्थकों की उम्मीदों पर कितना खरा उतरे हैं, जो मोदी के भीतर सभी समस्याओं का समाधान खोज रहे थे. यह सवाल इसलिए भी मन में उठता है, क्योंकि 2019 में अन्य सभी समीकरणों से ज़्यादा मोदी के खिलाफ या पक्ष में यही समीकरण काम करेगा.

अगर नरेन्द्र मोदी के साढ़े चार साल के कार्यकाल को देखें तो सबसे ज़्यादा निराश वही हैं, जिन्होंने सबसे बढ़-चढ़कर मोदी की पालकी ढोई थी. याद करिए आज से पांच साल पहले का समय. सोशल मीडिया जो कि नया-नया चुनाव का हथियार बना था, उस पर कौन मोदी के लिए ‘लोहा’ ले रहा था? क्या ये सब प्रायोजित लोग थे? अगर सब प्रायोजित थे तो फिर आज मोदी जब 2019 की देहरी पर खड़े तो वे कहां हैं? निश्चित रूप से उग्र हिन्दूवादियों का एक समूह जो उस वक्त मोदी को अपना हीरो मान कर अगली पंक्ति में लड़ रहा था, वह हताशा में चुप है. उसके मन में यह हताशा किसी और ने नहीं, बल्कि स्वयं मोदी ने ही भरी है.

मोदी के उग्र हिन्दू समर्थकों को सबसे पहला झटका तब लगा जब मोदी ने गौरक्षकों की तथाकथित ‘गुण्डई’ पर प्रहार किया. निश्चित रूप से मोदी ने समर्थकों से ज़्यादा अंतरराष्ट्रीय दबाव महसूस किया होगा, इसलिए मीडिया के एक वर्ग में आ रही ‘संदिग्ध’ रपटों पर प्रतिक्रिया देने से खुद को रोक नहीं पाये. लेकिन यह उनके कट्टर समर्थकों पर मोदी का यह पहला ‘प्रहार’ था.

एससी/एसटी एक्ट की बहाली आत्मघाती कदम

इसके बाद सवर्णों और अगड़ों की अगुवाई वाली पार्टी ने दूसरा आत्मघाती कदम उठाया एससी/एसटी एक्ट में सुप्रीम कोर्ट द्वारा किये गये बदलावों को वापस बहाल करके. मोदी ने एससी/एसटी एक्ट के प्रावधानों की बहाली करने से पहले न तो पार्टी फोरम पर चर्चा की और न ही किसी से सलाह मशविरा किया। यह मोदी का इकतरफा फरमान था, जो सांसदों को सुनाया गया कि संसद में यह विधेयक पारित कराना है.

भाजपा के सवर्ण सांसद जानते थे कि वो इस एक्ट का समर्थन नहीं कर रहे, बल्कि अपने ही समर्थकों के बड़े वर्ग की नाराज़गी के दस्तावेज़ को पारित कर रहे हैं, लेकिन सांसदों पर मोदी का दबाव ऐसा था कि वह अपना विरोध भी दर्ज नहीं करा सके. हालांकि, विधेयक पारित होने के बाद पार्टी फोरम पर ही इतना विरोध उभरा कि कोई नेता प्रवक्ता इस एक्ट का बचाव करने टीवी चैनल पर नहीं आया, लेकिन अब क्या हो सकता था? तीर तो कमान से निकल चुका था.

इसका असर उन सवर्ण कार्यकर्ताओं और समर्थकों तक भी पहुंचा जो मोदी को हिन्दू नायक मान रहे थे. वह एकदम से मोदी के खिलाफ मुखर भले न हुए हों, लेकिन हिन्दुत्व की ये अग्निज्वालाएं शीत निंद्रा में समाहित हो गयीं, जो तीन राज्यों में भाजपा की हार पर गम मनाने की बजाय खुशियां मनाती नज़र आयीं.

चार कदम जिन्होंने पहुंचाया नुकसान

ज़ाहिर है, पहले ‘गौ गुंडई,’ फिर नोटबंदी, फिर जीएसटी और आखिर में एससी/एसटी एक्ट ये चार कदम ऐसे हैं, जिन्होंने मोदी विरोधियों को समर्थक बनाया हो या न बनाया हो, समर्थकों को परेशान ज़रूर कर दिया. आज जब मोदी सरकार चुनाव की डेहरी पर खड़ी है लेकिन एक तरफ संघ और विश्व हिन्दू परिषद उस पर राम मंदिर का दबाव बना रहे हैं तो दूसरी तरफ ऐसे मोदी समर्थक भी हताश हैं जो मोदी से करिश्माई नेतृत्व की उम्मीद कर रहे थे.

संघ के सरसंघचालक और सरकार्यवाह ने जिस तरह से सार्वजनिक मंचों से मोदी सरकार पर मंदिर के लिए ‘जन दबाव’ बनाने की बात की है, वह मोदी से मिलीभगत नहीं है. इसके अलावा वैचारिक रूप से भी संघ इस सरकार का वैसा उपयोग नहीं कर पाया, जैसा अटल बिहारी वाजपेयी के समय कर सका था. यह संकेत है कि हिन्दूवादी समर्थकों में नाराज़गी ऊपर से नीचे तक है. मोदी का मस्जिदों में जाना, मुसलमानों के पैगंबर मोहम्मद के जन्मदिन पर बधाई संदेश देना, भले ही मोदी की छवि में उदारता के रंग भरता हो, लेकिन उनके इसी व्यवहार की वजह से उनके वो समर्थक बेरंग हो रहे हैं जो तब मोदी के साथ थे, जब मोदी कुछ नहीं थे.


यह भी पढ़ें: वे कौन लोग हैं जो बाबरी मस्जिद ध्वंस को शर्म दिवस बता रहे हैं?


ऐसे में इस समय सवाल ये है कि समर्थकों का मन तो घायल है, लेकिन क्या मोदी को इस घायल मन का अहसास है? अगर नहीं तो फिर कोई बात ही नहीं, लेकिन अगर जवाब हां है तो सवाल उठता है कि क्या मोदी उस घायल मन पर कोई मरहम लगाने जा रहे हैं?

गुजरात के संदर्भ से अगर मोदी को समझने की कोशिश करें तो फिलहाल किसी मरहम की उम्मीद नहीं है. समर्थकों पर मरहम लगाने के मामले में मोदी बहुत बेरहम रहे हैं.

(लेखक visfot.com के संपादक हैं. राष्ट्रवाद और हिंदू धर्म के टीकाकार हैं.)

share & View comments