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Saturday, 12 October, 2024
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वे कौन लोग हैं जो बाबरी मस्जिद ध्वंस को शर्म दिवस बता रहे हैं?

नब्बे के दशक में उभरा राजनीति का समाजवादी सेकुलरवाद आज लुप्तप्राय है. राष्ट्रवादी ताकतों का उभार सिर्फ सेकुलरवादी पाखंड की प्रतिक्रिया है.

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केके मोहम्मद भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के क्षेत्रीय निदेशक रह चुके हैं. इस समय वो आग़ा खान कल्चरल ट्रस्ट के निदेशक हैं. केके मोहम्मद एएसआई की तरफ से अयोध्या में हुई खुदाई का हिस्सा रह चुके हैं. केके मोहम्मद साफ तौर पर कहते हैं कि उन्हें अयोध्या की खुदाई के दौरान मंदिर के अवशेष मिले हैं और प्रमाणों को अदालत में जमा भी कराया जा चुका है लेकिन भारत में एक बौद्धिक और उस बौद्धिक वर्ग पर आश्रित राजनीतिक वर्ग ऐसा है जो आंखों देखी भी मानने को तैयार नहीं है.

यह वही वर्ग है जो बाबरी मस्जिद गिरने के बाद तर्क दे रहा था कि अगर यहां मंदिर के अवशेष मिलते हैं तो वो रामजन्मभूमि को हिन्दुओं के दावे के अनुरूप स्वीकार कर लेंगे. लेकिन जब प्रमाण आ गया तो उन्होंने चुप्पी साथ ली और पूरी बहस को शर्म दिवस की तरफ मोड़ दिया.

केके मोहम्मद से जब पूछा गया कि कौन लोग हैं जो इस ‘समस्या’ को बनाकर रखना चाहते हैं तो उन्होंने तपाक से एक ही नाम लिया. इरफान हबीब. इरफान हबीब कौन हैं यह बौद्धिक जगत में सब जानते हैं. वे लंबे समय तक इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ हिस्टोरिकल रिसर्च के डायरेक्टर रहे हैं.


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उनकी ऐतिहासिक खोजों से प्रभावित होकर कांग्रेस सरकार ने 2005 में पद्मभूषण से सम्मानित किया था. लेकिन इन्हीं इरफान हबीब के बारे में केके मोहम्मद जो वाकया बताते हैं उससे पता चलता है कि रामजन्मभूमि बाबरी मस्जिद का झगड़ा लगाने या बनाकर रखने वाले लोग कैसे पर्दे के पीछे से सक्रिय रहे हैं और आज भी सक्रिय हैं.

केके मोहम्मद मानते हैं कि एक समय ऐसा भी आया था कि उन्होंने खुद जामा मस्जिद के शाही इमाम सैयद शहाबुद्दीन को इस बात के लिए ‘लगभग’ सहमत कर लिया था कि रामजन्मभूमि मंदिर से मुसलमानों को अपना दावा वापस ले लेना चाहिए. हालांकि मुस्लिम मजलिस ने शाही इमाम की बात को नकार दिया लेकिन इस नकार में सबसे नकारात्मक भूमिका जिसने निभाई वह यही इरफान हबीब थे.

केके मोहम्मद बताते हैं कि आईसीएचआर के दफ्तर में बैठकर वे मुस्लिम नेताओं को ‘भड़काते’ रहे कि किसी भी कीमत पर मुसलमान बाबरी मस्जिद से अपना दावा वापस नहीं लेंगे. लेकिन इसके बाद भी इरफान हबीब जैसे इतिहासकार जब अपना झूठ साबित करने में कामयाब नहीं हो पाये तो लेफ्ट इतिहासकारों और बुद्धिजीवियों की तरफ से एक नया शिगूफा छोड़ा गया. ‘खुदाई में जो अवशेष मिला है वह बौद्ध मंदिर का अवशेष है.’ बीते कुछ सालों से बौद्धिक जगत में इस तरह की भ्रामक और आधारहीन बातें खूब प्रचारित की जाती हैं कि कोई बौद्ध मंदिर तोड़कर अयोध्या में राम मंदिर स्थापित किया गया था. इसलिए अगर वहां बनना ही है तो बौद्ध मंदिर बने.


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ये सोची समझी साम्यवादी साजिशें हैं ताकि भारत में वर्ग संघर्ष बना रहे. अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक के बंटवारे के बाद बहुसंख्यक में भी बहुजन और अल्पजन के सिद्धांत इसीलिए गढ़े और प्रचारित किये जाते हैं कि भारत कभी भी अपनी सहज स्वाभाविक अवस्था में न लौट पाये. अस्सी के दशक से लेकर आज 2018 तक राम मंदिर का मुद्दा एक ऐसा मुद्दा है जो भारत को सहज नहीं होने दे रहा है. जब आप इस असहज स्थिति का विश्लेषण करेंगे तो पायेंगे कि पर्दे पर लड़ने वाले नेता की भूमिका किसी अभिनेता से अधिक नहीं है. इरफान हबीब जैसे असल कहानीकार पर्दे के पीछे बैठे हैं जो इन नेताओं को बौद्धिक खुराक मुहैया कराते हैं.

लेकिन जैसे-जैसे यह असहज स्थिति विकराल बनी, झूठ के बीज रोपकर उन्हें पल्लवित पुष्पित किया, भारत में बहुसंख्यक हिंदुओं का तेज़ी से ध्रुवीकरण होता गया. नब्बे के दशक में उभरा राजनीति का समाजवादी सेकुलरवाद आज लुप्तप्राय है. इसका सबसे बड़ा खामियाज़ा कांग्रेस को ही उठाना पड़ा जो इस समाजवादी सेकुलरवाद की अगुवाई कर रही थी. झूठ और कुप्रचार की कीमत इरफान हबीब जैसे इतिहासकारों को कम और उन पर निर्भर राजनीतिक दलों को ज़्यादा चुकानी पड़ी है. भारत में नरेंद्र मोदी की अगुवाई में राष्ट्रवादी ताकतों का उभार सिर्फ इस झूठ और पाखंड की प्रतिक्रिया है.


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लेकिन झूठ और पाखंड गढ़ने वाले लोग आज भी बाज़ नहीं आ रहे. जिस रामरथ यात्रा को भारत में अभूतपूर्व समर्थन मिला उसे सांप्रदायिक भगवा उभार बताकर खारिज किया गया और आज तक खारिज किया जा रहा है. यह बौद्धिक गिरोह अब बाबरी विध्वंस को शर्म दिवस के रूप में प्रचारित कर रहा है. ज़ाहिर है इसकी प्रतिक्रिया में भारत का बहुसंख्यक वर्ग इसे शौर्य दिवस के रूप में देख रहा है. वाम बौद्धिक गिरोह फिर वही ऐतिहासिक गलती कर रहा है जिसकी प्रतिक्रिया में भाजपा का तेज़ी से उभार और विस्तार हुआ. अगर भारत में राम से जुड़े किसी स्थान को बौद्धिक रूप से कलंकित किया जाएगा तो इतना तो निश्चित है कि भारत का बहुसंख्यक हिंदू वर्ग प्रतिक्रिया करेगा. क्या इस प्रतिक्रिया को राष्ट्रीय शर्म कहा जा सकता है?

भारत के सामान्य जनमानस को इन बौद्धिक पाखंडियों को पहचानना होगा. भारत के सामाजिक और सांप्रदायिक सौहार्द के दुश्मन न तो उग्र हिंदू हैं और न ही उग्र मुसलमान. इन दोनों को उग्र बनाने का काम कोई और कर रहा है. इन्हें पहचानना ज़्यादा कठिन काम नहीं है. राम मंदिर के खिलाफ कोर्ट में ये वामपंथी वकील मुस्लिम पक्षकार बने खड़े हैं तो अखबारों और मीडिया में यही वाम पक्षकार इसे राष्ट्रीय शर्म घोषित कर रहे हैं. इन पर भरोसा करने या इन्हें पक्षकार मानने से समस्या और जटिल होगी. ये दो बिल्लियों के बीच बैठे बंदर हैं जो बंटवारे में रोटी न इस बिल्ली को देना चाहते हैं और न उस बिल्ली को. बंटवारे में वे रोटी को ही खूनी बनाकर खुद खाना चाहते हैं.

(लेखक visfot.com के संपादक हैं. राष्ट्रवाद और हिंदू धर्म के टीकाकार हैं. यह उनके निजी विचार हैं.)

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