जाति की राजनीति पर अपने सैद्धांतिक रुख के मामले में भारतीय जनता पार्टी में 11 नवंबर को एक बड़ा बदलाव देखने को मिला. उस दिन, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हैदराबाद के सिकंदराबाद में माडिगा रिजर्वेशन पोराटा समिति (एमआरपीएस) द्वारा आयोजित एक रैली को संबोधित किया. मंदा कृष्णा माडिगा की अध्यक्षता वाली एमआरपीएस 1994 से अनुसूचित जाति (एससी) के उप-वर्गीकरण के लिए आंदोलन कर रही है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि माडिगाओं को नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण लाभ का उचित हिस्सा मिले. उनकी शिकायत यह रही है कि माला, जो नंबरों में भले ही कम हैं लेकिन एससी आरक्षण का बड़ा हिस्सा हथिया रही हैं. तेलंगाना में एससी के लिए 15 फीसदी आरक्षण है.
मोदी ने कहा,“भाजपा माडिगा समुदाय के साथ हुए अन्याय को समझती है… हम इस अन्याय को यथाशीघ्र समाप्त करने के लिए प्रतिबद्ध हैं. आपके सशक्तिकरण को हर तरह से सक्षम बनाने के लिए हम जल्द ही एक समिति का गठन करेंगे. आप और हम जानते हैं कि सुप्रीम कोर्ट में एक बड़ी न्यायिक प्रक्रिया चल रही है. मैं आपकी लड़ाई को न्याय की लड़ाई मानता हूं. बाबा साहेब अंबेडकर ने जो संविधान दिया, उसने मुझे न्याय की जिम्मेदारी सौंपी है.”
अगर प्रधानमंत्री के बयान की व्याख्या करें, तो एक तरह से वो कर रहे थे कि यह माडिगा लोगों के साथ “अन्याय” है कि उन्हें उनकी आबादी के अनुपात में आरक्षण का लाभ नहीं मिल रहा है. अगर हम इस लॉजिक के मूल में जाएं, तो मोदी वही कह रहे हैं जो कि राहुल गांधी कहते हैं “जितनी आबादी, उतना हक़.”
सुप्रीम कोर्ट में लंबित मामले का जिक्र करते हुए जो मोदी ने कहा उसका मतलब यह है कि संविधान के अनुसार, निर्वाचित सरकार के प्रमुख के रूप में उन्हें न्याय सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी सौंपी गई है. इसलिए, वह बेहतर आरक्षण लाभ सुनिश्चित करने के लिए माडिगाओं को सशक्त बनाने के लिए एक समिति का गठन करेंगे. प्रधानमंत्री ने बेहतर आरक्षण के लिए उनकी लड़ाई का समर्थन करते हुए एमआरपीएस प्रमुख से कहा, “कृष्णा, आपको बहुत साथी मिले हैं लड़ने के लिए, आज एक साथी और जोड़ दो.”
इससे पहले कि हम इस पर आएं कि मोदी की टिप्पणी का राष्ट्रीय राजनीति के लिए क्या मतलब है, आइए संक्षेप में यह समझने की कोशिश करें कि उन्होंने जो कहा वह क्यों कहा.
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तेलंगाना में बीजेपी की राजनीति
तेलंगाना की आबादी में 50 प्रतिशत से अधिक पिछड़ा वर्ग हैं. भाजपा ने दक्षिणी राज्य में सत्ता में आने पर उनकी कम्यूनिटी का एक मुख्यमंत्री लाने का वादा किया है. राज्य भाजपा प्रमुख के पद से हटाए गए बंदी संजय कुमार से लेकर, भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस) के दलबदलू और बंदी के आलोचक ईटेला राजेंदर और भाजपा संसदीय बोर्ड के सदस्य के लक्ष्मण तक – भाजपा के अधिकांश शीर्ष नेता तेलंगाना ओबीसी समुदाय से हैं. यह और बात है कि पार्टी ने जुलाई में ओबीसी नेता बंदी संजय की जगह ऊंची जाति के जी किशन रेड्डी को राज्य भाजपा प्रमुख बना दिया.
2011 की जनगणना के दौरान तेलंगाना आंध्र प्रदेश का हिस्सा था, जिससे अविभाजित राज्य में अनुसूचित जाति की आबादी लगभग 16 प्रतिशत थी. हालांकि, मुख्यमंत्री के चन्द्रशेखर राव ने कहा है कि 2015 में किए गए एक व्यापक घरेलू सर्वेक्षण के अनुसार तेलंगाना में एससी आबादी 17.53 प्रतिशत थी. इसलिए, उन्होंने मांग की कि एससी के लिए आरक्षण कोटा संशोधित किया जाना चाहिए.
अनुमान है कि तेलंगाना में अनुसूचित जाति में माडिगा लोगों की संख्या लगभग 60 प्रतिशत है, और यही कारण है कि भाजपा बीसी और माडिगा लोगों के लिए यह पिच बना रही है. कांग्रेस भाजपा पर बीआरएस के साथ मिलीभगत का आरोप लगाती रही है. कांग्रेस कहती है कि केंद्रीय जांच एजेंसियां कथित दिल्ली में एक्साइज स्कैम के आरोप लगाने के बाद भी केसीआर की बेटी और विधान परिषद सदस्य के कविता पर नरम रुख अपना रही हैं.
ऐसी भी अटकलें हैं कि मोदी चाहेंगे कि केसीआर, जिन्होंने संसद में बिल्स पास कराने में अधिकांशत: भाजपा सरकार का समर्थन किया था उनके पक्ष में रहे क्योंकि 2024 के लोकसभा चुनाव के बाद भाजपा को सहयोगियों की जरूरत पड़ सकती है. हालांकि, सच्चाई यह भी है कि बीआरएस ऐसे राज्य में भाजपा के सहयोगी के रूप में देखे जाने का जोखिम नहीं उठा सकता है, जहां कुल 119 विधानसभा सीटों में से लगभग 40 पर मुसलमानों का दबदबा है और वे चुनावी नतीजे बदलने की किस्मत रखते हैं.
विभिन्न विचारधाराओं के राजनेताओं और तेलंगाना के विश्लेषकों का मानना है कि भाजपा सिर्फ कांग्रेस को बाहर रखने के लिए बीआरएस के साथ नरमी बरत रही है. राज्य की बड़ी आबादी के विभिन्न वर्गों को कई मुफ्त सुविधाएं देने के बावजूद, केसीआर के नेतृत्व वाली सरकार के खिलाफ बड़े पैमाने पर सत्ता विरोधी लहर है, और भाजपा नहीं चाहेगी कि कांग्रेस को इसका फायदा मिले.
साजिश की बातों को एक तरफ रखते हैं. भाजपा के बीआरएस के लिए चुनौती बनने के बारे में भाजपा नेताओं ने मुझे बताया कि “मीडिया द्वारा बनाई गई धारणा” के बावजूद, ऐसा कभी था ही नहीं . एक वरिष्ठ भाजपा पदाधिकारी ने मुझे बताया, “हालांकि, हमें विश्वास है कि हम अपना वोट शेयर बढ़ाकर 15 प्रतिशत (2018 विधानसभा चुनावों में सात प्रतिशत से) कर लेंगे. आप 2024 के आम चुनावों में आश्चर्यजनक परिणाम देखेंगे (2019 में, भाजपा ने 19 प्रतिशत से अधिक वोटशेयर के साथ 17 लोकसभा सीटों में से 4 सीटें हासिल कीं).” मदीगाओं के लिए मोदी की वकालत से आगामी विधानसभा चुनाव में भाजपा को मदद मिल भी सकती है और नहीं भी मिली तो भी पार्टी अगले लोकसभा चुनाव में बेहतर लाभ की उम्मीद कर रही है.
तेलंगाना में मोदी का SC दांव
“अन्याय को समाप्त करने” के लिए संख्या बल के आधार पर आरक्षण लाभ की माडिगाओं की मांग पर विचार करने के लिए एक समिति का वादा करके, मोदी ने जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण के विचार को — और इस हिसाब से जाति जनगणना को नहीं– विश्वसनीयता प्रदान की है. जाति जनगणना के पीछे मुख्य राजनीतिक विचार आरक्षण लाभ और संसाधनों के आवंटन के लिए संख्यात्मक आधार है. मोदी ने पहले गांधी के “जितनी आबादी, उतना हक” नारे का मजाक बनाते हुए कहा था कि ऐसा लगता है कि कांग्रेस नेता अल्पसंख्यकों के अधिकारों को कम करना चाहते हैं.
गांधी ने तब से इस नारे को लेकर चुप्पी साध ली है, हालांकि, उन्होंने राष्ट्रीय जाति जनगणना की मांग जारी रखी है. मोदी ने विपक्षी दलों पर देश को जाति के नाम पर बांटने का ”पाप” करने का आरोप लगाया.
संयोग से, यह भाजपा ही है जो अब जाति जनगणना पर अपने रुख में संशोधन करती दिख रही है.
2018 में तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने 2021 की जनगणना में ओबीसी की गणना करने का फैसला किया था. एक आधिकारिक प्रेस विज्ञप्ति के माध्यम से निर्णय को सार्वजनिक किया गया. गृह मंत्रालय की 31 अगस्त 2018 की प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया, “पहली बार ओबीसी पर डेटा एकत्र करने की परिकल्पना की गई है.” यह केंद्र द्वारा ओबीसी के उप-वर्गीकरण के लिए रोहिणी आयोग की स्थापना के एक साल बाद आया था.
बाद में सरकार ने अपना रुख बदल लिया. इसने नीति के तहत जाति जनगणना कराने से इनकार कर दिया, यहां तक कि वाणिज्य और उद्योग राज्य मंत्री अनुप्रिया पटेल, जो राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की सदस्य हैं, सरकार को अपने पुराने वादे की याद दिलाती रहीं.
यही वह समय था जब मोदी ने जाति जनगणना के बारे में बात करके “भारत को जाति के आधार पर विभाजित करने” के लिए विपक्षी दलों की आलोचना शुरू कर दी. पार्टी एक बार फिर अपना रुख बदलती नजर आ रही है. छत्तीसगढ़ के रायपुर में भाजपा के घोषणापत्र के लॉन्च के अवसर पर प्रेस से बात करते हुए, गृह मंत्री अमित शाह ने घोषणा की कि उनकी पार्टी कभी भी जाति जनगणना के विरोध में नहीं थी और ऐसे निर्णय उचित समय पर “सावधानीपूर्वक विचार” के बाद लिए जाने चाहिए.
बीजेपी का जाति जाल
‘जितनी आबादी, उतना हक’ और जाति जनगणना पर भाजपा और मोदी का यू-टर्न अनिश्चितता और आत्म-संदेह का संकेत देता है. सत्तारूढ़ दल आरक्षण की राजनीति पर एक ठोस दृष्टिकोण सामने लाने के लिए संघर्ष करता दिख रहा है. मदीगाओं की मांग का समर्थन करके, मोदी ने ओबीसी उप-वर्गीकरण की बात आने पर खुद को भी मुश्किल में डाल दिया है.
13 एक्सटेंशन के बाद, रोहिणी आयोग, जिसे जनवरी 2018 में रिपोर्ट प्रस्तुत करनी थी, ने अंततः इस वर्ष अगस्त में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की.
विपक्ष अब तक इससे बेपरवाह नजर आ रहा है. लेकिन मदीगाओं के पीछे अपना जोर देकर, मोदी ने रोहिणी आयोग की रिपोर्ट के कार्यान्वयन और राष्ट्रीय जाति जनगणना की आवश्यकता के बारे में सवालों के घेरे में खुद को डाल लिया है. वह अब इसे ‘पाप’ नहीं कह सकते.
(अनुवाद: पूजा मेहरोत्रा)
डीके सिंह दिप्रिंट में राजनीतिक संपादक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.
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