-5 मार्च को बामसेफ समेत एससी-एसटी-ओबीसी संगठनों और बुद्धिजीवियों ने भारत बंद का आह्वान किया. उनकी प्रमुख मांग ये थी कि यूनिवर्सिटी में रिज़र्वेशन लागू करने का पुराना रोस्टर सिस्टम बहाल करके यूनिवर्सिटी और कॉलेजों को यूनिट माना जाए. कोर्ट के आदेश के बाद विभागों को यूनिट माना गया, जिससे कि रिज़र्वेशन व्यावहारिक रूप से खत्म हो गया था. सरकार ने 5 मार्च को ही ये घोषणा कर दी कि वह पुराने रोस्टर सिस्टम के पक्ष में है और उसे लागू करने के लिए दो दिन के अंदर अध्यादेश लाएगी. ये उस समय हो रहा है जब देश भारत-पाकिस्तान तनाव में तप रहा है. और सरकार तक सत्ताधारी दल इसी मुद्दे पर चुनाव को ले जाने की तैयारी कर रहे हैं.
– 2 अप्रैल 2018 को एससी-एसटी संगठनों और बुद्धिजीवियों ने एससी-एसटी एक्ट को पुराने रूप में बहाल रखने के लिए भारत बंद की अपील की. लेकिन उसी दिन सरकार ने ये घोषणा कर दी कि एससी-एसटी एक्ट को वह बहाल रखेगी और कोर्ट के आदेश को पलट देगी. जबकि इससे पहले केंद्र के एडिशनल सॉलिसिटर जनरल ने सुप्रीम कोर्ट में सरकार का पक्ष रखते हुए कहा था कि एससी-एसटी एक्ट का दुरुपयोग होता है और इसके तहत अग्रिम ज़मानत दी जा सकती है. कोर्ट का फैसला इसके बाद ही आया था. लेकिन सरकार को पीछे हटना पड़ा और आज एससी-एसटी एक्ट अपने पुराने रूप में बहाल है.
– इससे पहले 2016 में हैदराबाद के रिसर्च स्कॉलर रोहित वेमुला की आत्महत्या, जिसे कई लोग सांस्थानिक हत्या भी कहते हैं, को लेकर देशभर के कैंपस में कई दिनों तक एससी-एसटी संगठन आंदोलन करते रहे. आखिरकार प्रधानमंत्री ने ये कहकर लोगों को शांत करने की कोशिश की कि रोहित वेमुला भारत मां का बेटा था और उन्हें इस घटना का दुख है. इस आंदोलन की वजह से सरकार ने यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर को छुट्टी पर भेज दिया. इस आंदोलन के कुछ समय बाद केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी का विभाग बदल दिया गया.
– गुजरात के ऊना में जब दलितों को पीटा गया, तब भी प्रधानमंत्री ने सीधे हस्तक्षेप किया और कहा कि मुझे मार लो, पर मेरे दलित भाइयों को मत मारो.
इन सभी घटनाओं में कुछ चीज़ें समान हैं. ये सभी आंदोलन समाज के सबसे नीचे के तबकों के थे. इनके पीछे कोई राजनीतिक दल नहीं था, बल्कि इन तबकों के शहरी, पढ़े-लिखे और मध्यमवर्गीय लोगों ने इसे चलाया. इनका असर था, ये सभी आंदोलन पहले सोशल मीडिया पर फैले और बाद में इसका असर समाज तक पहुंचा. इन सभी आंदोलन में सरकार ने अपने कदम पीछे खींचे और वह झुकती हुई नज़र आई.
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सरकार क्यों झुकने को तैयार हो जाती है?
चूंकि इन आंदोलन के चरित्र पर काफी बात हो चुकी है, तो हम इस पूरे मामले में सिर्फ इस बिंदु पर विचार करेंगे कि सरकार ने इन आंदोलन के आगे झुकना क्यों स्वीकार किया. वह भी तब जबकि इन आंदोलनों की मांगों को मानने का मतलब था कि सत्ताधारी बीजेपी का कोर सवर्ण वोटर नाराज़ होता. एससी-एसटी एक्ट को पुराने स्वरूप में बहाल किए जाने से ऐसा माना गया कि सवर्ण नाराज़ हो गए और मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में बीजेपी की हार के लिए इसे एक वजह माना गया. ऐसा कहा जा रहा है कि यूनिवर्सिटी का नया रोस्टर सिस्टम सवर्णों के हित में है और अब अगर सरकार इसे खत्म करने के लिए अध्यादेश लाएगी, तो सवर्ण नाराज़ हो जाएंगे. रोहित वेमुला के मामले में आरएसएस सीधे शामिल था. इसके बावजूद सरकार ने कदम पीछे खींचे.
ये सब एक ऐसी सरकार के लिए असाधारण स्थिति है, जो बेहद मज़बूत मानी जाती है. नरेंद्र मोदी की सरकार न सिर्फ पूर्ण बहुमत की सरकार है, बल्कि उसके शिखर पर एक ऐसा व्यक्ति है, जिसकी छवि न झुकने वाले, मज़बूत नेता की बनाई गई है.
फिर ऐसी सरकार एक खास तरह के आंदोलन के आगे बार-बार क्यों झुक जाती है? इस पहेली का जवाब शायद कास्ट और क्लास के इंटरसेक्शन यानी उस जगह पर हैं, जहां जाति और वर्ग एक दूसरे को काटते हैं.
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ये आंदोलन जिन तबकों के सवालों पर हुए, वो भारतीय समाज व्यवस्था में सबसे नीचे की सीढ़ी पर हैं. समाज और देश के संचालन में उनकी हिस्सेदारी की कल्पना आधुनिक लोकतंत्र की वजह से ही हो पाई है. इन तबकों की आंतरिक संरचना को देखें, तो पिछले 70 साल में खासकर सरकारी शिक्षण संस्थानों और सरकारी नौकरियों में आरक्षण के कारण इनके बीच एक मिडिल क्लास पैदा हुआ है. ये तबका शहर में आया है.
जिन आंदोलनों की ऊपर चर्चा है, उनमें यही तबका सामने दिखता है, जो शहरी है, पढ़ा-लिखा है और जो मध्य वर्ग का हिस्सा है. हालांकि भारत में जाति जनगणना नहीं होती, फिर भी सर्वे आदि से अंदाज़ा लगाया जाता है कि इन तबकों में मध्य वर्ग निर्माण की प्रकिया सवर्णों से धीमी है और अभी सीमित संख्या में ही लोग मिडिल क्लास में शामिल हो पाए हैं.
सरकार की चिंता की वजह
फिर इतनी कम संख्या वाले दलित-आदिवासी-ओबीसी मध्य वर्ग की चिंताओं और उनके आंदोलनों से सरकार को फर्क क्यों पड़ता है?
दरअसल, इस सवाल का जवाब मास कम्युनिकेशन की एक थ्योरी में है, जिसे टू स्टेप थ्योरी या मल्टी स्टेप थ्योरी कहते हैं. समाज के ज़्यादातर लोगों तक कोई भी विचार अक्सर सीधे नहीं पहुंचता. समाज में ज़्यादातर लोग किसी संदेश को अपने समाज के ओपिनियन लीडर्स से ग्रहण करते हैं. पहले कोई विचार ओपिनियन लीडर्स तक पहुंचता है और फिर वहां से वो नीचे जाता है. सोशल मीडिया के प्रभावशाली होने के दौर में विचारों के नीचे तक पहुंचने की प्रक्रिया आसान और तेज़ हो गई है.
ओपिनियन लीडर्स का चमत्कार
वंचित जातियों के ओपिनियन लीडर्स अब तैयार हो चुके हैं और जब ओपिनियन लीडर्स आंदोलित होता है, तो इसका असर नीचे तक पहुंच जाता है.
मोदी सरकार, बीजेपी और आरएसएस इस भ्रम में नहीं है कि ये सारे ओपिनियन लीडर्स उसके साथ हो जाएंगे. इन तबकों की जो समस्याएं हैं, उनका आसान समाधान मोदी सरकार ही नहीं, शायद किसी सरकार के पास नहीं है. इन तबकों को फिलहाल असंतुष्ट ही रहना है. लेकिन ये स्थिति सरकार के लिए ठीक नहीं है कि वंचित जातियों का मिडिल क्लास आंदोलित रहे, सड़कों पर रहे और अपनी नाराज़गी व्यापक समाज तक पहुंचाता रहे.
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इन जातियों का जो अनपढ़-गरीब-ग्रामीण है, उसे नाराज़ होने से रोकने के लिए सरकार कोशिश करती है कि इन जातियों के शहरी, पढ़े-लिखे लोग ज्यादा समय तक आंदोलित न रहें. इन समाज के नीचे के तबकों को एक गैस का सिलेंडर, तीन महीने में दो हज़ार रुपए या एक जन-धन खाता खोलकर खुश किया जा सकता है, कम से कम सरकार तो यही मानती है. लेकिन इन तबकों का शहरो में रह रहा मिडिल क्लास उन्हें खुशी महसूस नहीं करने दे रहा है. शायद यही वजह है कि ये आंदोलन अपने वास्तविक विस्तार की तुलना में कई गुना ज़्यादा असर पैदा कर रहे हैं और सरकार इनकी मांगों के सामने झुक जाती है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं )