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Monday, 4 November, 2024
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कैसे मध्ययुगीन कश्मीर वैष्णववाद, पुराण और युद्ध के साथ दुनिया का केंद्र बन गया था

कश्मीर के पांचरात्र और कर्कोटक ने इस प्रकार उपमहाद्वीप के केंद्र, राज्य का समर्थन करने वाले धर्म, धर्म का समर्थन करने वाले राज्य पर कब्जा कर लिया.

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7वीं और 8वीं शताब्दी सीई में, हिंदूओं के भगवान विष्णु के मध्यकालीन अनुयायियों ने शक्तिशाली चीनी, तिब्बतियों और अरबों के साथ कश्मीर के भू-राजनीतिक खींचतान में हस्तक्षेप किया. उन्होंने एक विशाल ग्रंथ, विष्णुधर्मोत्तर पुराण की रचना के माध्यम से ऐसा किया, जिसका विचार प्रसिद्ध कश्मीरी राजा ललितादित्य मुक्तापीड द्वारा विजय – भारत के भीतर और बाहर दोनों – के माध्यम से व्यक्त किया गया था.

हो सकता है कि “पुराण” शब्द से एक शाश्वत, अपरिवर्तनीय हिंदू धर्म की छवि उभर कर सामने आती हो. 21वीं सदी में हमारे लिए, वे धार्मिक कहानियों के काफी पुराने, कालातीत संग्रह प्रतीत होते हैं. लेकिन जैसा कि हम देखेंगे, उनकी रचना के समय पुराण पूरी तरह से राजनीतिक ग्रंथ थे.

कश्मीर के ‘नागवंशीय’ राजा

6वीं शताब्दी में, गांधार की प्राचीन संस्कृति – एक समय में इंडो-ईरान की जीवंत दुनिया जो मथुरा से लेकर मध्य एशिया तक फैली हुई थी – के बारे में ज्यादा नहीं पता था. एक जबरदस्त भूकंप ने इंडो-सीथियन, कुषाण और हूणों द्वारा कभी बनाए गए नेटवर्क को तोड़ दिया और इस क्षेत्र का राजनीतिक केंद्र खिसककर अफगानिस्तान के शाहों के अंतर्गत आ गया.

लेकिन कश्मीर भी उभर रहा था, जो अब तक भारत-ईरानी दुनिया का बॉर्डर था. कभी बौद्धों और पाशुपत शैवों के प्रभुत्व वाला यह भूभाग एक महत्वपूर्ण परिवर्तन का कगार पर था. गांधार के पतन के बाद एक सदी के भीतर – लगभग 650 CE – एक नए राजवंश ने वहां सत्ता हथिया ली थी. यह परिवार, कार्कोट नाग, लगभग आधी सहस्त्राब्दि के लिए कश्मीरी उत्थान की नींव रखने वाला था.

कार्कोट के शिलालेखों के अनुसार, वे एक नाग – पानी के एक जादुई, अर्ध-सर्प व्यक्ति – के वंशज थे. यह एक महत्वपूर्ण दावा था, क्योंकि मिथक के अनुसार, कश्मीर की घाटी कभी एक विशाल झील, नाग साम्राज्य थी. जिसका पानी सूखने के बाद कई ताल और धाराएं छोड़ बच रहीं जहां माना जाता है कि अभी भी नाग निवास करते हैं.

इतिहासकार रोनाल्ड इंडेन इंपीरियल पुरानास (Imperial Purānas): Kashmir as Vaishnava Center of the World, के कुछ एडिटेड वॉल्यूम में लिखते हैं, कि इस समय के आसपास, कश्मीर में एक पुराण की रचना की गई थी, जिसका नाम नीलमत था. इसने नील नाम के नाग राजा को विष्णु के महान भक्त और घाटी के शासक दोनों के रूप में प्रतिष्ठित किया. इसने कश्मीर के शुरुआती शैव राजाओं को भी नैतिक रूप से भ्रष्ट के रूप में प्रस्तुत किया. जैसे, नाग वंश का दावा करने से पता चलता है कि मानवीय कार्कोट नाग राजा, जिन्होंने खुद को विष्णु के भक्त के रूप में प्रस्तुत किया, कश्मीर में दैवीय व्यवस्था को बहाल करने के लिए तैयार हो चुके थे.

वैष्णववाद पुराना और नया

हम पहले से ही ऊपर संकेत देख सकते हैं कि कैसे पुराण राजनीतिक परिवर्तन के साथ जुड़ गए, लेकिन यह तो बस शुरुआत थी. 8वीं शताब्दी की शुरुआत में, कार्कोट की महत्वाकांक्षा बढ़ी और मैदानी इलाकों तक फैल गई. यहां उन्होंने उपरोक्त काबुल शाहों-बौद्ध (और कभी-कभी हिंदू) तुर्कों के साथ संघर्ष किया.

इसके तुरंत बाद, वास्तव में एक शानदार ग्रंथ सामने आता है: विष्णुधर्मोत्तर पुराण. पांचरात्र (पांच रातें) वैष्णव के अनुयायियों द्वारा रचित, विष्णुधर्मोत्तर ने वैकुंठ विष्णु की पूजा पर ध्यान केंद्रित किया, जिनकी मूर्तियां बनाई गईं और श्लोकों व छंदों के माध्यम से प्रसन्न करने की कोशिश की गई.

पांचरात्र मूल रूप से वन में रहने वाले सन्यासी थे. उनकी मूर्ति पूजा की धारणा तत्कालीन मुख्यधारा की वैदिक धार्मिक प्रथाओं के हाशिये पर थी, जो अग्नि यज्ञ के इर्द-गिर्द घूमती थी. विष्णुधर्मोत्तर के साथ, उन्होंने वैदिक विचारों को शामिल करने के साथ विष्णु को सर्वोच्च मानकर पूजा करने की कोशिश की. उनके विश्वास के केंद्र में मानसून से पहले और बाद में विष्णु के सोने और जागने का वार्षिक पांचरात्र –  पांच-रात्रि उत्सव – था जिसके नाम पर उनका नाम रखा गया था. उनके विचार में, यह विष्णु द्वारा आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए एक राज्य के निवासियों और उसके शासक दोनों द्वारा किया जाना था. लोगों को समझाने के लिए, उन्होंने अपने विचारों को एक भव्य कथा में पिरोया जहां ऋषि मार्कंडेय महाभारत युद्ध के बाद राजा वज्र को बताते हैं.


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आश्चर्यजनक रूप से, विष्णुधर्मोत्तर ने स्वयं को वैध बनाने के लिए इतिहास की मान्यताओं और समकालीन वास्तविकता के समानांतरों का उपयोग किया. यह उसी तरह है जैसे आधुनिक राजनीतिक-धार्मिक आख्यानों को न्यायोचित ठहराया जाता है. अपनी पहली पुस्तक के अंत में, मार्कंडेय ने राजा वज्र को रामायण का थोड़ा संशोधित संस्करण प्रस्तुत किया. उन्हें बताया गया है कि भगवान-राजा राम के राज्याभिषेक के बाद, अनियंत्रित गंधर्व – अमर स्वर्गीय प्राणी जिन्होंने गांधार में शासन किया था – ने झेलम के पश्चिमी तट पर आक्रमण किया, जहां राम की सौतेली माता कैकेयी का निवास था. राम ने अपने भाई भरत को भेजा, जिन्होंने गंधर्वों को हराया और गांधार में विष्णु के शयन और जागरण का जश्न मनाया. इसके बाद उन्होंने अपने पुत्रों पुष्कर और तक्ष के लिए पुष्करवती और तक्षशिला शहरों की स्थापना की और घर लौट आए. विष्णुधर्मोत्तर को भी यह समझाने में पीड़ा हो रही है कि भरत, अपने भाई राम की तरह, विष्णु के अवतार थे.

यह विशुद्ध रूप से अप्रासंगिक मिथक लग सकता है, लेकिन ऐसा नहीं है. विष्णुधर्मोत्तर की रचना से कुछ दशक पहले, कश्मीरियों ने काबुल शाहों से, झेलम के पश्चिमी तट के साथ-साथ वास्तविक गांधार में तक्षशिला पर विजय प्राप्त की थी. और कश्मीर के तत्कालीन शासक राजा, जिन्हें विष्णुधर्मोत्तार प्रस्तुत किया गया था, का नाम “वज्रादित्य” चंद्रपीड रखा गया था. जैसा कि इंडेन का तर्क है, विष्णुधर्मोत्तर जो कह रहे हैं वह यह है: प्राचीन काल में गांधार की विजय के बाद विष्णु के एक अवतार द्वारा पांचरात्र अनुष्ठानों की स्थापना की गई थी, और एक राजा वज्र को एक ऋषि द्वारा इसे बताया गया था. क्या राजा वज्रादित्य को उनके नक्शेकदम पर नहीं चलना चाहिए?

शाही वैष्णववाद

The ruins of a Buddhist stupa at Parihasapura , the new imperial Vaishnava capital of Kashmir | Wikimedia Commons
कश्मीर के परिहासपुर में बौद्ध स्तूप के अवशेष । विकीमीडिया कॉमन्स

इंडेन का तर्क है कि यह बहुत संभव है, वज्रादित्य ने पहले ही पांचरात्र के विचारों को अपने दरबार के संगठन में शामिल कर लिया था. वास्तव में, काफी संभावना है कि उनके गुरु मिहिरदत्त, एक पांचरात्र गुरु, ने विष्णुधर्मोत्तर की अधिकांश रचना की हो, हालांकि, पूरी तरह उन्होंने इसकी रचना की हो इसकी संभावना कम है. इस पीढ़ी-दर-पीढ़ी पुराणों की रचना और विस्तार हुआ.

उपरोक्त गांधार कहानी बताती है कि वे “जटिल लोगों” द्वारा बनाए गए थे – शाही अदालतों ने भी उन्हें आकार देने के लिए प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से एक बड़ी भूमिका निभाई थी. वज्रादित्य के मंत्री, दरबारी, और जमींदार कुलीन पहले से ही पांचरात्र के दीक्षित हो सकते हैं; उनके शिक्षकों के साथ उनकी चर्चा, और आदेश की आंतरिक चर्चा और राजनीति, सभी ने विष्णुधर्मोत्तर के विकास में एक भूमिका निभाई.

पुराणों की दूसरी और तीसरी पुस्तकें इसका प्रबल संकेत देती हैं. दूसरा, प्रसिद्ध कश्मीरी नायकों की कहानियों को विष्णु द्वारा दी गई शक्तियों के वर्णन के बाद,चौथाई दुनिया को जीतने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली सैन्य रणनीति की चर्चा के साथ समाप्त होता है. तीसरी पुस्तक बताती है कि कैसे बनने वाले राजा-राजाओं ने पांचरात्र वैष्णववाद को राजकीय अनुष्ठान के केंद्र में वैकुंठ विष्णु के लिए एक विशाल मंदिर का निर्माण करके, चार प्रवेश द्वारों के साथ, उनके चार मुखों को उनके अधीन दुनिया के चार भागों में देखने के लिए रखा है. जैसा कि होता है, वज्रादित्य चंद्रपीड के भाई और उत्तराधिकारी, ललितादित्य मुक्तापीड का जीवन घटनाओं के इस क्रम से निकटता से मेल खाता है.

कश्मीर के प्राचीन बौद्ध धर्म की अंतिम अधीनता

ललितादित्य की महत्वाकांक्षाओं को उनके समय की भू-राजनीतिक अशांति से मदद मिली. काठमांडू और कुमाऊं घाटियों से होते हुए गंगा के मैदानों में घुसते हुए, नव-उभरते तिब्बती साम्राज्य ने बद्रीनाथ और प्रयाग के पुराने वैष्णव धार्मिक केंद्रों को नष्ट कर दिया था. चीनियों और कन्नौज के राजा के साथ मिलकर, ललितादित्य ने उन्हें झुकने के लिए मजबूर किया और इसी के साथ दुनिया के पश्चिमी क्षेत्र में भी जीत दर्ज की.

उसके बाद वह अपने सहयोगी की ओर मुड़ा और कन्नौज पर अधिकार कर लिया, जिसमें उसके दक्षिण की विजय भी शामिल थी. कुछ सदियों बाद कश्मीर में रचित कल्हण की राजतरंगिणी के अनुसार, ललितादित्य ने पूर्व की ओर “कम्बोजों” को, और शायद तुर्क शाहों को अधीनता के लिए मजबूर किया, और तुखारों (तोचारियों) को अपने उत्तर [पुस्तक IV, छंद 165-168] ] की ओर धकेल दिया. बहुत हद तक विष्णुधर्मोत्तर के अनुरूप, इस पांचरात्र राजा-राजाओं ने चारों दिशाओं पर विजय प्राप्त की थी.

इसके बाद, ललितादित्य ने झेलम और सिंधु नदियों के संगम परिहासपुर पर एक महान नए शाही शहर का निर्माण किया. यहां उन्होंने विष्णु के पांचरात्र रूपों के लिए कम से कम तीन विशाल मंदिरों का निर्माण किया और एक गरुड़ के ऊपर एक विशाल विजय-स्तंभ का निर्माण किया.

इंडेन कहते हैं, “इनमें से कम से कम दो मंदिर,”  “ललितादित्य के अन्य बड़े मंदिर से बड़े प्रतीत होते हैं जो कश्मीर में खड़े हैं, जैसे मार्तंड में सूर्य का मंदिर.” (इंडेन 2000, 86). परिहासपुर के एक निचले पठार पर बौद्ध स्तूप थे, उनमें से एक ललितादित्य के बौद्ध तुर्क मंत्री द्वारा बनवाया गया था, जो कश्मीर के प्राचीन बौद्ध धर्म को एक विजयी साम्राज्यवादी वैष्णववाद के अधीन करने का प्रतीक था. संक्षेप में और शानदार ढंग से, कश्मीर के पांचरात्रियों और कर्कोटकों ने इस प्रकार उपमहाद्वीप के केंद्र, राज्य का समर्थन करने वाले धर्म, धर्म का समर्थन करने वाले राज्य पर कब्जा कर लिया.

(अनिरुद्ध कनिसेट्टि एक सार्वजनिक इतिहासकार हैं. वह लॉर्ड्स ऑफ़ द डेक्कन, ए न्यू हिस्ट्री ऑफ मेडिवल साउथ इंडिया के लेखक हैं, और इकोज़ ऑफ़ इंडिया और युद्ध पॉडकास्ट की मेजबानी करते हैं. उनका ट्विटर हैंडल @AKanisetti है.)

यह लेख ‘थिकिंग मेडिवल’ सीरीज का एक हिस्सा है जो भारत की मध्यकालीन संस्कृति, राजनीति और इतिहास की गहराई में गोते लगाता है.

(संपादनः शिव पाण्डेय)
(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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