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Friday, 29 March, 2024
होममत-विमतयोगी आदित्यनाथ पहले नहीं हैं, शैव साधु एक हजार साल से राजनीति में हैं

योगी आदित्यनाथ पहले नहीं हैं, शैव साधु एक हजार साल से राजनीति में हैं

अपने बौद्ध और जैन पूर्ववर्तियों की तरह, मध्यकालीन शैव मठों ने प्रतिद्वंद्वियों को हराने और अनुयायियों को बनाने के लिए अपने शाही संबंधों का इस्तेमाल किया.

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शैव मठ, भारत के इतिहास की महान छिपी हुई ताकतों में से रहे हैं. आज की राजनीति में उनके प्रभाव को देखते हुए यह कुछ हद तक आश्चर्यजनक लगता है. उदाहरण के लिए, गोरखनाथ मठ, 1920 के दशक की शुरुआत से ही लगातार राजनीति में शामिल रहा है, और राम जन्मभूमि आंदोलन के माध्यम से भारत के हिंदू अधिकार के लिए एक महत्वपूर्ण शक्ति रहा है व वर्तमान में, इसके महंत – मठ प्रमुख – उत्तर प्रदेश में शासन कर रहे हैं.

लेकिन इस बारे में शायद कम ही लोगों को पता है कि मठों के महंत एक हजार से अधिक वर्षों से राजनीतिक रूप से सक्रिय रहे हैं. पुरातात्विक और ऐतिहासिक अनुसंधान से पता चलता है कि 11वीं शताब्दी में, मठों के कारण ही शैव मध्यकालीन भारत के विविध धार्मिक परिदृश्य पर हावी हो सके थे. वैसे तो आधुनिक और मध्यकालीन दोनों मठों का व्यापक अध्ययन किया जाना चाहिए, लेकिन इस लेख में हम मध्यकालीन मठों के बारे में बात करेंगे.

गुरुओं और शिष्यों की परंपरा

9वीं शताब्दी सीई में एक समय, उभरते हुए मध्य भारतीय वंश के एक राजकुमार, जिसे कलचुरि के नाम से जाना जाता है, ने अपनी राजधानी, मत्तमयूर में एक शैव तपस्वी को आमंत्रित किया. यह संन्यासी, एक पुरंदर, पहले से ही गुरुओं की एक लंबी श्रृंखला से संबंधित था. उनके किसी भी व्यक्तिगत नाम के बारे में जानकारी नहीं है, लेकिन बाद के एक शिलालेख के अनुसार, उन सभी के पास मठ से संबंधित उपाधियां थीं.

गुरु कदंबगुहादिवासिन, “कदंब गुफा के सबसे प्रमुख निवासी”, ने एक शंखमादिकाधिपति यानी “शंख मठ के अधीक्षक”, जिन्होंने बदले में तेरंबीपाल, यानी “तेरंबी के रक्षक”, को पढ़ाया था जो कि अमरदिकतीर्थनाथ यानी “अमर्दिक नदी-पार पर के स्वामी” के गुरु थे, जिन्होंने पुरंदर को पढ़ाया था.

शीर्षकों की यह श्रृंखला बहुत सी चीजों का खुलासा करती है. ज़ाहिर है, एक ही शैव आध्यात्मिक परंपरा में संन्यासी और जबरदस्त लौकिक शक्ति के मालिक दोनों मौजूद थे: एक गुफा-निवासी ने एक मठ के प्रमुख को पढ़ाया था. हम पुरातात्विक और लिखित साक्ष्यों से जानते हैं कि ऐसे मठ प्रमुख अत्यंत महत्वपूर्ण व्यक्ति थे.

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जैसा कि कला इतिहासकार प्रोफेसर तमारा सियर्स ने अपने 2008 के पेपर, कंस्ट्रक्टिंग द गुरु में लिखा है, इन व्यक्तियों को उनके द्वारा किए गए अनुष्ठानों और उनके द्वारा प्राप्त किए गए पवित्र ज्ञान के कारण पवित्र माना जाता था. उनसे धार्मिक दीक्षा प्राप्त करने से आम लोगों को मुक्ति और सांसारिक लाभ के विभिन्न रूपों को प्राप्त करने में मदद मिली.

इस बात का समर्थन इतिहासकार रूपेंद्र कुमार चट्टोपाध्याय, स्वाति रे और शुभा मजूमदार ने अपने 2013 के पेपर, द किंगडम ऑफ द शैवाचार्याज़ में किया है. मठवासी अनुष्ठान विशेषज्ञों ने राजघरानों, व्यापारियों और अन्य संरक्षकों के लिए ग्रंथों का संकलन किया, और शैव मठों का प्रसार शाही और व्यापारिक दोनों केंद्रों में हुआ.

लेकिन शैव भिक्षु स्पष्ट रूप से इस क्षेत्र में अन्य भूमिकाएं भी निभा रहे थे. उदाहरण के लिए, शीर्षक “तेरांबी का रक्षक” एक सैन्य भूमिका की तरफ संकेत कर सकता है: पुरातत्व से पता चलता है कि कुछ मध्यकालीन मठों की किलेबंदी की गई थी. जैसा कि इतिहासकार जीएस घुर्ये ‘इंडियन साधूज़ (Indian Sadhus)’ (1953) में लिखते हैं, मध्यकालीन शैव भिक्षु हथियारों से लैस होकर घूमते थे और कभी-कभी शाही अंगरक्षक रेजीमेंट में भी शामिल हो जाते थे.

अंत में, “अमर्दिक नदी-पार पथ के भगवान” से विभिन्न नदी के उथले स्थानों या तीर्थों के क्रमिक शैव अधिग्रहण का संकेत मिलता है, जिनका दक्षिण एशियाई धर्मों में लंबे समय से महत्व है. आज भी, नर्मदा नदी एक स्पष्ट शैव झुकाव वाले स्थलों से आच्छादित है, जैसे माहेश्वर, जो कि होल्कर मराठों की पूर्ववर्ती राजधानी थी. ऐसा प्रतीत होता है कि इस अधिग्रहण की जड़ें प्रारंभिक मध्यकाल में हैं.

हालांकि, शैवों की अभी शुरूआत ही हो रही थी. अब जब उनका कलचुरियों से सीधा संबंध था, शिक्षक पुरंदर ने मत्तमयूर में एक मठ की स्थापना की. यह मत्तमयूर मठ जल्द ही पूरे मध्य भारत में, राजनीतिक क्षेत्रों में फैल गया, और शैववाद की अपनी विशेष व्याख्या की जीत सुनिश्चित की. वास्तव में, पूर्वोक्त शिलालेख पुरंदर के आध्यात्मिक उत्तराधिकारियों का वर्णन करते समय इसका संकेत देता है, जिसमें एक व्योमशिव का भी जिक्र है.

मध्ययुगीन शैव मठ की वास्तुकला

मत्तमयूर की स्थापना के तुरंत बाद, 10 वीं शताब्दी ई.पू. में, जिसे हम प्रशांत शिव (शांतिपूर्ण शिव) के रूप में जानते हैं, बघेलखंड में सोन और बनास नदियों के संगम के पास एक पेड़ से ढकी पहाड़ी की तलहटी में पहुंचे.

यहां इस चट्टानी, कुछ हद तक बाहर की जगह जिसे चंद्रेहे के नाम से जाना जाता है, क्षेत्र में उन्होंने फलों, जड़ों और कमल बीजों पर निर्वाह करते हुए अपना खुद का एक मठ स्थापित किया. उन्होंने वह तपस्या की जो उन्होंने गुरुओं की तीन पीढ़ियों से सीखी थी, और उन्होंने शिष्यों की एक नई पीढ़ी को शिक्षा दी.

जैसा कि प्रोफेसर सियर्स लिखते हैं, हालांकि, “प्रशांत शिव केवल एक संन्यासी नहीं थे, जिन्होंने दुनिया से नाता तोड़ लिया था; वह एक मत्तमयूर गुरु थे जिनका कलचूरि राज्य के साथ एक पुराना रिश्ता था.

चंद्रेहे में आने से पहले, उन्होंने गुर्गी के कलचूरि क्षेत्रीय केंद्र में प्रसिद्ध राजा युवराजदेव प्रथम (आर. 915-945 सीई) द्वारा स्थापित और राज्य समर्थित मठ के प्रमुख के रूप में प्रमुखता हासिल की थी, और चंद्रेहे में एक रिट्रीट का निर्माण करने के अलावा, उन्होंने पवित्र तीर्थ नगरी वाराणसी (जिसे बनारस भी कहा जाता है) में संतों के लिए एक और आश्रम बनाया. चंद्रेहे में, सियर्स बताते हैं कि खुद को कलचूरि दरबार से अलग करने के बाद भी, प्रशांत शिव के पास एक छोटा, पवित्र मंदिर और मठ बनाने के लिए पर्याप्त संसाधन थे.

हालांकि, उनके उत्तराधिकारी प्रबोध शिव ने मठ को “स्मारकीय” अनुपात में विस्तृत करके, मौजूदा कुएं का नवीनीकरण करके, “समुद्री जैसी झील” और आसपास की पहाड़ियों, नदियों और जंगलों के माध्यम से एक सड़क का निर्माण करके स्थान को पूरी तरह से बदल दिया. यह नया मठ स्पष्ट रूप से चंद्रेहे को नए कृषि और तीर्थयात्रा नेटवर्क से जोड़ने के लिए था, और इसमें लगभग निश्चित रूप से कलचूरि राजघराने की भागीदारी शामिल थी. संभवतः श्रीलंका में समकालीन बौद्ध मठों के समान, मठ का आसपास की भूमि पर भी नियंत्रण रहा होगा.

आज तक प्रबोध शिव का मठ बचा हुआ सबसे बड़ा मध्ययुगीन शैव मठ बना हुआ है, और देखने में ये मठ अभूतपूर्व लगते हैं. इस दो मंजिले और 77 x 69 फीट फर्श वाले मठ के द्वार पर नृत्य के देवता शिव नटेश की मूर्ति विराजमान थी, जो कि दर्शाता है कि मठ के निवासियों के पास मौजूद पवित्र ज्ञान और परंपराओं के कारण उनके मन में सम्मान का भाव था.

द्वार से सीधे आगे बढ़ने पर, एक बड़े, अच्छी तरह से प्रकाशित प्रांगण या आंगन में पहुंचा जा सकता था और उसके आगे एक अध्ययन कक्ष था जिससे जुड़ा हुआ एक पुस्तकालय था. प्रांगण के बाहर कई छोटे कमरों से जुड़ा एक गलियारा था जो भिक्षु निवास करते थे. मठ के महंत के पास बैठकों और अनुष्ठानों के लिए अपना कमरा भी था, और परिसर में एक और कमरा संभवतः पूर्व महंतों की पूजा के लिए समर्पित था, जिसकी परंपरा आधुनिक मठों में भी जारी है. कक्षा में महंत ने पवित्र ज्ञान दिया करते थे.

थिंकिंग मेडिवल के पहले के संस्करणों में, हमने देखा है कि मठ द्वारा पेश किए गए संस्थागत स्टील फ्रेम ने बौद्धों और जैनियों को आर्थिक, परंपरागत और सामाजिक पूंजी का लाभ लेने योग्य बनाया जिसने उन्हें राज्य धर्म बना दिया. इसी तरह की संरचना ने भी शैवों को महत्त्वपूर्ण बनने में मदद की. लेकिन आगे के कॉलम्स में हम जानेंगे कि यह मध्यकालीन शैवों के विविध, उथल-पुथल भरे धार्मिक संसार का केवल एक हिस्सा मात्र है.

(अनिरुद्ध कनिसेट्टि एक सार्वजनिक इतिहासकार हैं. वह लॉर्ड्स ऑफ़ द डेक्कन, ए न्यू हिस्ट्री ऑफ मेडिवल साउथ इंडिया के लेखक हैं, और इकोज़ ऑफ़ इंडिया और युद्ध पॉडकास्ट की मेजबानी करते हैं. उनका ट्विटर हैंडल @AKanisetti है.)

यह लेख ‘थिकिंग मेडिवल’ सीरीज का एक हिस्सा है जो भारत की मध्यकालीन संस्कृति, राजनीति और इतिहास की गहराई में गोते लगाता है.

(संपादनः शिव पाण्डेय)
(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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