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Saturday, 21 December, 2024
होममत-विमतकितने बचे हैं गांव? 'भारत जिन गांवों का देश कहलाता था, वे अब कुछ कवियों की स्मृतियों भर में बचे हैं'

कितने बचे हैं गांव? ‘भारत जिन गांवों का देश कहलाता था, वे अब कुछ कवियों की स्मृतियों भर में बचे हैं’

गांवों में आमतौर पर उन्हीं परिवारों के हालात थोड़े बेहतर हुए हैं, जिनमें ‘परदेस’ से थोड़े ज्यादा पैसे पहुंच रहे हैं.

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हम जानते हैं कि ग्राम स्वराज्य और पंचायती राज को लेकर महात्मा गांधी और बाबासाहब डाॅ़. भीमराव अम्बेडकर के बीच गहरे मतभेद थे. महात्मा जहां इन दोनों को न सिर्फ गांवों बल्कि देश के भी ढ़ेर सारे मर्जों की रामबाण दवा मानते थे, वहीं बाबासाहब दलितों व वंचितों के लिहाज से गांवों को घेटो, तबाही लाने वाले और खुदगर्ज आदि करार देते हुए कहते थे कि सवर्ण व सामंती वर्चस्व वाले उनके परम्परागत ढांचे के रहते उनमें इन वर्गों का कतई निस्तार नहीं होने वाला.

चार नवम्बर, 1948 को संविधान-सभा में एक प्रस्ताव रखते हुए उन्होंने कहा था कि उन्हें हैरत होती है कि क्षेत्रवाद व साम्प्रदायिकता का विरोध करने वाले भी गांवों के बडे पैरोकार बनते हैं. फिर उन्होंने पूछा था कि गांवों में स्थानीय बोली, अज्ञान, संकीर्णता और साम्प्रदायिकता के सिवा है क्या? और ग्राम समुदाय ने देश के इतिहास में जैसी भूमिका निभाई है, उसे जानकर किसी के मन में उनके प्रति गर्व का क्या भाव आता है?

आज की तारीख में यह एक खुला हुआ तथ्य है कि ‘बाबासाहब के बनाऐ संविधान से शासित होने’ के बावजूद उनके इस मतभेद को स्वतंत्र भारत में कभी कोई तवज्जो नहीं मिली और उसके गांवों को महात्मा को अभीष्ट ग्राम स्वराज्य लाने की ‘आधे-अधूरे मन से की गई’ कोशिशों के हवाले ही किऐ रखा गया. इसलिए आज प्रायः सवाल पूछा जाता है कि क्या इससे गांवों के मूल स्वरूप, स्थितियों और समस्याओं में कोई बड़ा अंतर आया है? अगर नहीं तो इसका हासिल क्या है?

पिछले दिनों अयोध्या जिले और नगर के आस-पास के गांवों में विभिन्न वर्गों के लोगों से बातचीत कर इसका जवाब तलाशने की कोशिश की तो जो जवाब मिले, वे बार-बार उर्दू के अपने वक्त के शीर्षस्थ साहित्यकार पद्मश्री प्रोफेसर काजी अब्दुल सत्तार की याद दिलाते रहे. काजी यावतजीवन अवध के गांवों को अपने उपन्यासों का विषय बनाते रहे और इस तकलीफ के साथ संसार से विदा हुए कि भारत जिन गांवों का देश कहा जाता था, वे तो अब कुछ कवियों की स्मृतियों भर में बचे हैं.

एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था, ‘मेरे बचपन का गांव, सारी गरीबी व गिरानी के बावजूद, ठोस जमीन पर खड़ा था, अन्दर से मजबूत था. मगर आज वह पिलपिला हो गया और हाहाकार करने लगता है. पहले उसे एक ही चूसता था, तालुकेदार या जमीनदार. लेकिन आज क्षेत्र के एमएलए से लेकर पटवारी व दरोगा तक सब चूस रहे हैं. यानी चूसने वाले एक से दस हो गए हैं और स्थितियां इतनी जटिल कि मैं उन्हें समझ ही नहीं पाता.’

निस्संदेह, बढ़ती जटिलताओं के कारण वे गांव, जिन्हें बाबासाहब ने दलितों व वंचितों के लिए घेटो बताया था, आज बहुत से दूसरे तबकों के लिए भी घेटो बन गये हैं. खासकर उनके लिए जो ‘नये भारत’ की ‘नई सभ्यता’ के ताल से ताल नहीं मिला पा रहे. वे बेचारे न अपना गंवईं भोलापन बचा पा रहे हैं, न धूर्तता-मक्कारी, लोभ-लालच व दांव-पेंचों के साथ उस गुंडई को ही साध पा रहे है, जो उनके अस्तित्व की अनिवार्य शर्त बनती जा रही है.


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अब पहले जैसे गांव बचे ही नहीं

एक ओर गांवों में परम्परागत जिन्दगी का मोह न छोड़ पाने वालों की गरीबी और महंगाई लाइलाज होती जा रही है. ‘जिसकी सबसे बड़ी गवाह मुफ्त राशन की योजना पर उनकी निर्भरता और उसके लिए सरकार के प्रति कृतज्ञता है’ और दूसरी ओर अराजक शहरीकरण की भ्रांति हरित क्रान्ति से भी बड़ी हो गई है. इसलिए गांव अब गांवों में ही नहीं बसते, शहरों में भी बसते हैं-उनके किनारे भी और अन्दर भी. अलबत्ता, जिनका नार गांव में ही गड़ा रहता है, वे इनमें से कहीं भी न धूप के हो पाते हैं, न छांव के और उनकी हालत फटी नाव के मांझी जैसी ही रहती है. किनारे वाले गांवों के लोग तो हाशिए पर होते ही हैं, अन्दर वाले भी उससे आगे नहीं बढ़ पाते. उलटे दोनों दीन से चले जाते हैं-गांव के रह नहीं जाते और शहर के बन नहीं पाते.

तिस पर हालत यह हो गई है कि काजी के कथन के विपरीत कवियों की स्मृति में भी अब वैसे गांव नहीं ही बचे हैं, जिनके लिए अभिभूत होकर ‘अहा ग्राम्य जीवन भी क्या है!’ कह सकें.

अयोध्या के लब्धप्रतिष्ठ गजलकार स्मृतिशेष चन्द्रमणि त्रिपाठी ‘सहनशील’ अपनी एक गजल में काफी पहले इसकी ताईद कर चुके हैं-‘गांव अन्दर से घुना है, शहर लोहे का चना है!’ अवधी के वरिष्ठ कवि कैलाश गौतम ने भी कभी लिखा था, ‘गांव गया था ‘गांव से भागा, पंचायत का हाल देखकर.’

याद करके उत्सुकता जागी कि जानें अब गांवों में पंचायतों का क्या हाल है तो मया ब्लाॅक के बबुआपुर गांव निवासी कवि-पत्रकार सुनील अमर से पूछा. उन्होंने बताया, ‘आज प्रेमचन्द होते तो ‘पंच-परमेश्वर’ लिखने से पहले सौ बार सोचते. पंच हों या सरपंच, अब परमेश्वर तो खैर क्या खाकर होंगे, विकास योजनाओं का धन डकारकर अदम गोण्डवी को सही जरूर सिद्ध कर रहे हैं– जितने हरामखोर थे पुरवो जवार में, परधान बनके आ गए अगली कतार में.’

लगे हाथ उन्होंने खुद भी एक सवाल उछाल दिया, ‘आजकल गांवों में आ भी कौन रहा है? न डाक्टर, न इन्जीनियर, न वकील. यहां तक की वे कवि व पत्रकार भी नहीं जो गांवों कीविरुदावली गाते रहते हैं. नेता भी सिर्फ वोट मांगने या बवाल कराने आते हैं. रहते होंगे अमेरिका में अमीर गांवों में. भारत में अमीर और अमीरी दोनों शहरों में निवास करती हैं या फिर गांवों में नखलिस्तान बनाकर. उन्होंने गांवों से पलायन की ऐसी महामारी फैला रखी है कि खेती-किसानी की आपदाएं झेलते लाचार, अशक्त, वृद्ध, महिलाएं और बच्चे ही वहां बचे हैं. उनमें से भी अधिकांश का तन भले ही गांव में हो, मन शहर में अटका रहता है. कामकाजी तो वहां दिखते ही नहीं क्योंकि एक मनरेगा को छोड़ दें तो काम के बदले आमतौर पर जो मिलता है, वह कहीं ठहरता नहीं. परदेस की कमाई न हो तो जिन्दगी बैठकर रह जाती है.’

हमने देखा: गांवों में आमतौर पर उन्हीं परिवारों के हालात थोड़े बेहतर हुए हैं, जिनमें ‘परदेस’ से थोड़े ज्यादा पैसे पहुंच रहे हैं. पहुंच व प्रभुत्व भी उनके ही बढ़ रहे हैं, जो बाबासाहब के गांवों को घेटो कहने का लाजिक समझाते हैं. वह भी जब न पुराने योजनाकारों के पास गांवों के लिए विकास योजनाओं की कमी थी, न नए योजनाकारों के पास ही उनकी कमी है. इन सबकी योजनाओं का सबसे बड़ा ‘लाभ’ यही हुआ है कि गांव में भले व भोले ग्रामीण अब पाऐ ही नहीं जाते. पाऐ भी कैसे जायें, वहां लूट व फूट का राज है और शातिर काइयांपन ने मरती व मुंह छिपाती शेखियों व चैधराहटों को नया जीवन दे दिया है.

क्या-क्या बदल रहा

पूरा बाजार ब्लाॅक के गंगौली गांव निवासी किसान धीरेन्द्र प्रताप से भेंट हुई तो उन्होंने इस ‘परिवर्तन’ की कुछ ऐसी तस्वीर खींची: ‘जिस गुड़, गोरस, चना व चबैना के लिए गांव जाने जाते थे, वे तो कब के इतिहास में समा चुके. सुर्ती, चिलम और अलाव भी अब एक साथ नहीं रह गये हैं. उनकी जगह लूट-खसोट, भ्रष्टाचार व व्यभिचार ने ले ली है. लेकिन क्या कीजिएगा, राजीव गांधी आज से कई दशक पहले यह जानकर भी भ्रष्टाचारियों का कुछ नहीं कर पाए कि वे गांवों के लिए जो एक रुपया भेजते हैं, उसमें से 85 पैसे गांवों तक पहुंचते ही नहीं.’

गांवों में बेघर-बेदर लोगों की समस्याओं के इतर चौपाल अब रहे नहीं और आंगन व दालान बनाए ही नहीं जाते. पुराने दालानों में लोहे के चैनल गेट लगा दिए गए हैं ताकि जब भी जिसका भी मन करे, मुंह उठाए न चला आए. वैसे भी एक दूजे के प्रति हिकारत की निगाहों व चुनावी रंजिशों ने रिश्तों को ऐसी रिसन तक पहुँचा दिया है कि आने-जाने वाले भी ज्यादा नहीं बचे है.’

तारून ब्लॅाक के पारागरीबशाह गांव के जंगजीत ने जैसे निर्णायक बात कही, ‘भाई मेरे, क्या गांव, क्या शहर, सब जगह ‘लूटो-खाओ’ की आंधी आई हुई है. उसमें शामिल हुए बिना, सिर्फ मेहनत-मशक्कत के बूते, किसी की नियति शहर में भी वही रहती है जो गांव में. बवाल व सवाल कहीं भी पीछा नहीं छोड़ते उसका. गंवार का गंवार ही बना रहता है वह. ‘नागरिक’ नहीं बन पाता. निवेशक तो किसी भी हालत में नहीं.’

(कृष्ण प्रताप सिंह फैज़ाबाद स्थित जनमोर्चा अखबार के पूर्व संपादक और वरिष्ठ पत्रकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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