भारत में राम मंदिर-बाबरी मस्जिद विवाद के बाद के तीन दशक सांप्रदायिक हिंसा और तनाव के लिए भी याद किए जाएंगे. इस दौरान देश के कई हिस्सों में भयानक दंगे हुए और हजारों लोग मारे गए. सांप्रदायिक हिंसा की हर घटना का अपनी विशिष्टता होती है और ये भी जरूरी नहीं है कि पिछले तीन दशक में हुई हर हिंसा का संबंध मंदिर-मस्जिद विवाद से हो. मिसाल के तौर पर दिल्ली में हाल में हुई हिंसा का संबंध सीएए और एनआरसी से है. इसी तरह दादरी या अलवर में हिंसा गाय के सवाल पर हुई. सांप्रदायिक हिंसा अक्सर स्थानीय तेवर के साथ आती है.
लेकिन, सांप्रदायिक हिंसा के पिछले तीन दशक के समकालीन इतिहास में जो एक बात राजनीतिक प्रेक्षकों की नजरों से छिपी रह गई वो है, बिहार में इस पूरे दौर में कायम शांति. ऐसा भी नहीं है कि बिहार में पिछले 30 साल में सांप्रदायिक हिंसा की कोई वारदात नहीं हुई, लेकिन बाकी राज्यों में हुई घटनाओं की तुलना में और स्वयं बिहार में इससे पहले होने दंगों की तुलनाओं में ये घटनाएं बेहद मामूली और छोटी नजर आती हैं.
मौजूदा लेख का उद्देश्य इस गुत्थी को हल करने की कोशिश करना है कि भारत में सांप्रदायिक हिंसा के सबसे बुरे दौर में बिहार में अपेक्षाकृत शांति कैसे कायम रही. इस बारे में आगे बात करने से पहले कुछ तथ्यों पर गौर कर लेना आवश्यक है.
1. बिहार का अतीत सांप्रदायिक हिंसा के लिए कुख्यात रहा है. आजादी से ठीक पहले और उसके बाद के महीनों में बिहार ने सबसे बुरी सांप्रदायिक हिंसा देखी. कई इतिहासकारों ने इसे बंगाल में हिंदुओं के साथ हुए अत्याचार की प्रतिक्रिया के रूप में देखा. दरअसल बिहार की सीमा अविभाजित बंगाल की सीमा से सटी है और वहां की घटनाओं का असर बिहार पर जरूर हुआ होगा. विभाजन के दौर में हुए बिहार दंगों में हजारों लोग मारे गए, जिनमें ज्यादातर मुसलमान थे.
2. आजादी के बाद भी बिहार में सांप्रदायिक हिंसा की घटनाएं होती रहीं. उन घटनाओं में उर्दू भाषा को लेकर हुआ रांची का दंगा प्रमुख है. गौरतलब है कि उस समय रांची बिहार का ही हिस्सा हुआ करता था. राममंदिर आंदोलन से पहले दक्षिण बिहार के जमशेदपुर और हजारीबाग में रामनवमी जुलूसों को लेकर कई दंगे हुए. इसके बाद राममंदिर आंदोलन के शुरुआती दौर में बिहार कई बार दंगों की आग में जला और इसी दौर में भागलपुर के दंगे हुए, जिनमें 1,000 से ज्यादा लोग मारे गए. इस दौरान एक ऐसी घटना सामने आई, जिसे जानकर लोगों का दिल दहल उठा. भागलपुर के एक गांव में लोगों ने मुसलमानों की लाशों को दफन करके उसके ऊपर गोभी की खेती कर दी.
3. 1984 के सिख विरोधी दंगों का भी दिल्ली के बाद सबसे ज्यादा असर बिहार में देखा गया. उस दौरान बोकारो स्टील सिटी और पटना में कत्लेआम की कई घटनाएं हुईं.
4. सांप्रदायिक हिंसा के अलावा बिहार में जातीय नरसंहार की भी कई घटनाएं हुईं, जिनमें ज्यादातर शिकार दलित और पिछड़ी जातियों के लोग हुए. हालांकि, छिटपुट घटनाओं में सवर्ण जातियों के लोग भी मारे गए.
यह भी पढ़ें : ओबीसी क्रीमी लेयर को आर्थिक आधार पर निर्धारित करना भाजपा के लिए बिहार में भारी पड़ेगा
इन तथ्यों के आधार पर ये कहा जा सकता है कि बिहार हमेशा से शांत इलाका नहीं रहा है और सांप्रदायिक घटनाओं का तो वहां लंबा-चौड़ा इतिहास रहा है. कानून और व्यवस्था की बेहतर स्थिति के लिए भी बिहार को नहीं जाना जाता है. ये अकारण नहीं है कि बिहार की छवि एक अपराधग्रस्त राज्य की है, जिसे कई बार पत्रकार जंगल राज भी कह देते हैं. हालांकि उनके द्वारा दिया गया ये नाम विवादों में रहा है. लेकिन उस पर चर्चा फिर कभी.
लेकिन सवाल उठता है कि हिंसा के लिए कुख्यात रहा एक राज्य, जहां प्रशासन मुश्किल से ही कभी काम करता है, वहां पिछले 30 साल से सांप्रदायिक शांति कैसे कायम है? ये सवाल गहन समाजशास्त्रीय-राजनीतिशास्त्रीय शोध की मांग करता है और उम्मीद है कि कोई शोधकर्ता इस काम को अपने हाथ में लेगा. फिलहाल में इस बारें में कुछ अवधारणाओं और संकल्पनाओं का जिक्र कर रहा हूं, जिससे शायद इस गुत्थी को समझने में मदद मिल सके.
राजनीति और राजनेताओं की भूमिका: 1989-90 बिहार की राजनीति का एक प्रस्थान बिंदु हैं क्योंकि इसी समय बिहार की राजनीति में कांग्रेस हाशिए पर जाने लगती है और इसके साथ ही बिहार की राजनीति में सवर्ण हिंदू जातियों का वर्चस्व टूट जाता है. यह क्लासकीय अंदाज में हुआ साइलेंट रिवोल्यूशन या मूक क्रांति है, जिसका जिक्र राजनीति विज्ञानी क्रिस्टोफ जैफरलो अपनी इसी नाम की किताब में करते हैं. इसी दौर में पिछड़ी जातियों ने दलितों और मुसलमानों के साथ गठबंधन कायम कर लिया. बिहार में कई पत्रकारों ने इसी एमवाईडी यानी मुसलमान, यादव और दलितों का राजनीतिक गठबंधन माना. यह गठबंधन उस राजनीति की धुरी थी, जिसकी वजह से लालू प्रसाद-राबड़ी देवी ने बिहार में 15 साल तक लगातार शासन किया. इस राजनीतिक-सामाजिक गठबंधन की वजह से सरकार ने ये सुनिश्चित किया कि बिहार में सांप्रदायिक हिंसा न हो.
नीतीश राज में सांप्रदायिकता का सवाल: लालू यादव के बाद आए नीतीश कुमार के समय में भी सरकार की सांप्रदायिकता को रोकने की नीति कायम रही. इसकी एक वजह तो ये रही है कि बिहार को सांप्रदायिक शांति के साथ जीना शायद रास आ गया था और दूसरा तथ्य ये है कि नीतीश कुमार लालू यादव का सामाजिक आधार तोड़ना चाहते थे और इसके लिए उन्होंने मुसलमानों को अपने साथ जोड़ने की कोशिश की. बल्कि एक समय तो बिहार में इस बात की बहस भी हुआ करती थी कि बड़ा सेकुलर कौन है- लालू या नीतीश? ये इसलिए भी संभव हुआ कि बिहार के मुसलमानों ने किसी एक राजनीतिक संरचना के साथ खुद को बांधकर नहीं रखा. इसलिए लालू और नीतीश दोनों की राजनीति में मुसलमान संभावित पार्टनर बने रहे. ये एक दिलचस्प स्थिति थी. आम तौर पर बाकी राज्यों में मुसलमान सेकुलर गठबंधन के साथ जुड़े हैं और दूसरे पक्ष को मुसलमानों के वोट की परवाह नहीं होती. वहीं बिहार में दोनों पक्ष मुसलमानों को जोड़ने में लगे रहे. ये अब भी चल रहा है. इसी वजह से हाल में एनआरसी को बिहार में लागू न करके के प्रस्ताव पर जेडीयू और आरजेडी विधानसभा में एक साथ खड़े नजर आए. चूंकि बिहार में बीजेपी लगभग पूरे समय जेडीयू की पार्टनर है, इसलिए वो बिहार में अपनी स्वाभाविक राजनीति नहीं कर पाई.
यह भी पढ़ें : नीतीश कुमार को दिल्ली विधानसभा चुनाव के नतीजे से सीखना चाहिए
प्रशासन की भूमिका: इस बारे में कई शोध हो चुके हैं और इसके पर्याप्त प्रमाण हैं कि प्रशासन और खासकर पुलिस की सहमति के कोई बड़ा सांप्रदायिक दंगा नहीं हो सकता. मेरी धारणा है कि सांप्रदायिक हिंसा को शुरू होने से रोक पाना शायद किसी भी प्रशासन के लिए संभव नहीं है, लेकिन बिना प्रशासन की सहमति के दंगा लंबा नहीं चल सकता. बिहार में चूंकि प्रशासन पर सरकार का दबाव रहा कि सांप्रदायिक हिंसा को रोकना है, इसलिए वही प्रशासन जो राजकाज के अन्य क्षेत्रों में नाकारा साबित हुआ, उसने पूरा दम लगाकर सांप्रदायिक हिंसा को रोक दिया. यही वजह है कि राम रथ यात्रा को जब बिहार में रोका गया और लालकृष्ण आडवाणी को गिरफ्तार कर लिया गया, तब भी बिहार में हिंसा नहीं भड़की. ये दिलचस्प है कि जिस प्रशासन ने सांप्रदायिक हिंसा को रोके रखा, वही प्रशासन बिहार में जातीय नरसंहार की घटनाओं को रोकने में पूरी तरह विफल साबित हुआ.
सामाजिक शक्तियों की भूमिका: बिहार की राजनीति को लगभग साढ़े तीन दशक से देख रहे वरिष्ठ पत्रकार नवेंदु मानते हैं कि सांप्रदायिक हिंसा को रोकने में बिहार की जनता की भूमिका की अनदेखी नहीं की जानी चाहिए. गांव, चट्टी, मोहल्लों में हिंसा को रोकना बगैर जनता के सहयोग के संभव नहीं है. उनकी व्याख्या है कि बिहार के लोगों की चिंता इस समय रोजगार और जीने की सुविधाएं जुटाना है और वे नहीं चाहते कि कोई संप्रदायिक हिंसा हो.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और यह लेख उनका निजी विचार है.)