कन्हैया कुमार और राजू यादव के बीच कई समानताएं हैं. दोनों कम्युनिस्ट पार्टी में हैं और नरेंद्र मोदी और बीजेपी को हराने के वादे के साथ बिहार के दो चुनाव क्षेत्र बेगूसराय और आरा से मैदान में हैं. दोनों ने चुनाव का खर्चा जुटाने के लिए ऑनलाइन चुनावी चंदा यानी क्राउडफंडिंग का सहारा लिया. लेकिन चंदा देने वालों ने दोनों के प्रति बिल्कुल अलग तरह का व्यवहार किया. एक की झोली भर गई है, दूसरे की खाली है. उनके प्रति ये अलग व्यवहार क्यों हुआ, इसे समझने की कोशिश करते हैं, लेकिन उससे पहले कुछ बुनियादी बातें जान लेते हैं.
कन्हैया भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी यानी सीपीआई के टिकट पर बेगूसराय सीट से त्रिकोणीय मुकाबले में मैदान में हैं. यहां से दो प्रमुख कैंडिडेट बीजेपी के केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह और महागठबंधन के तनवीर हसन हैं.
राजू यादव आरा सीट से सीपीआई-एमएल यानी भाकपा-माले के उम्मीदवार हैं. यहां से बीजेपी के उम्मीदवार केंद्रीय मंत्री आर के सिंह हैं. राजू को यहां बीजेपी विरोधी लगभग हर पार्टी जैसे आरजेडी, कांग्रेस, आरएलएसपी, सीपीआई, सीपीएम का समर्थन प्राप्त हैं.
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चंदा जुटाने में कन्हैया सफल, राजू यादव असफल
दोनों सामान्य आर्थिक स्थिति वाले परिवारों से हैं. न बहुत अमीर, न इतने गरीब कि खाने-पहनने का संकट हो जाए. दोनों ने क्राउडफंडिंग के लिए 70 लाख रुपए जुटाने का लक्ष्य रखा. कन्हैया क्राउडफंडिंग के लिए आवरडेमोक्रेसी नाम के प्लेटफॉर्म पर गए. राजू भी यहीं पहुंचे. कन्हैया का 70 लाख रुपए का लक्ष्य एक हफ्ते से भी कम समय में पूरा हो गया. जिस रफ्तार से उनके पास चंदा आया, उन्हें देखते हुए कहा जा सकता है कि अगर वे इससे दो या तीन गुना बड़ा लक्ष्य रखते तो भी वे कामयाब हो जाते. इस लेख को लिखे जाने तक राजू यादव को सिर्फ 1.22 लाख रुपए का ही चंदा मिल पाया है. कन्हैया को सबसे ज्यादा एक चंदा 5 लाख रुपए का मिला. राजू यादव का सबसे बड़ा चंदा सिर्फ 10,000 रुपए का है.
दोनों उम्मीदवारों की चंदा जुटाने की क्षमता और चंदा देने वालों के दोनों के प्रति व्यवहार में अंतर एक दिलचस्प कहानी है, जिसकी जड़ें समाज और व्यक्ति दोनों में छिपी हैं.
चंदा मांगते समय राजू यादव का जो परिचय दिया गया है, उसमें लिखा है कि वे एक गरीब किसान परिवार से आते हैं और उनके पिता सेना में थे. कन्हैया की मां आंगनबाड़ी वर्कर हैं और उन्होंने भी चुनावी खर्च जुटाने के लिए चंदा मांगा. किसी भी लिहाज से इन दोनों को पावर इलीट या सत्ता के शिखर पर मौजूद नहीं कहा जा सकता.
सीधे-सपाट तरीके से देखें तो क्राउडफंडिंग प्लेटफार्म चंदा मांगने वालों में भेदभाव नहीं करते. ये सच भी है. वे दरअसल वर्चुअल स्पेस में आपके लिए एक टेबल लगा देते हैं, जहां कोई भी ऑनलाइन चंदा दे सकता है. उस टेबल को सजाना और चंदा लेने के लिए उन्हें आकर्षक बनाना या बना पाना चंदा लेने वाले की क्षमता या उसकी पृष्ठभूमि और उनके प्रभाव से तय होता है. फिर सवाल उठता है कि कन्हैया के टेबल पर पैसों का ढेर क्यों लग गया और राजू की टेबल खाली क्यों रह गयी, जबकि दोनों का लक्ष्य बीजेपी को हराना है.
सामाजिक पूंजी का क्राउडफंडिंग में महत्व
क्राउडफंडिंग का प्लेटफॉर्म उपलब्ध करा रहे एक जानकार, जो अपना नाम नहीं बताना चाहते, का कहना है कि चंदा जुटा पाने में सफलता या असफलता इस बात से तय होती है कि उस व्यक्ति या संस्था की ‘सामाजिक पूंजी’ कितनी और कैसी है. क्राउडफंडिंग में यही सामाजिक पूंजी धन में तब्दील हो जाती है.
सामाजिक पूंजी व्यक्ति और समाज में हमेशा से रही है, लेकिन इसे शास्त्रीय तरीके सबसे पहले फ्रांसीसी समाजशास्त्री पियरे बॉर्द्यू ने समझाया. उनके मुताबिक सामाजिक पूंजी या सोशल कैपिटल दरअसल समाजिक संबंधों के वह तंत्र है, जो जरूरत पड़ने पर आवश्यक सहयोग जुटा सकते हैं. इसकी परिभाषा देते हुए वे कहते हैं कि – ‘सामाजिक पूंजी, वे वास्तविक या वर्चुअल संसाधन हैं, जिसे व्यक्ति या समूह स्थापित संबंधों, जान-पहचान और आपसी सम्मान के आधार पर हासिल करते हैं.’
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आसान शब्दों में सामाजिक पूंजी का मतलब है कि आप किनको जानते हैं, कौन आपको जानता हैं और जिनको आप जानते हैं और जो आपको जानते हैं, वे कौन हैं और उनकी हैसियत कितनी है. सामाजिक पूंजी वो जरिया है, जिससे होने से काम बन जाता है. यह ताकत और प्रभाव का एक प्रमुख स्रोत हैं और जैसा कि कन्हैया के मामले में हमने देखा कि सामाजिक पूंजी को आर्थिक पूंजी में तब्दील किया जा सकता है.
अगर इस सैद्धांतिक नजरिए से कन्हैया और राजू यादव का तुलनात्मक अध्ययन करें तो हम पाते हैं कि –
आप कितने लोगों को जानते हैं और कितने लोग आपको जानते हैं?
1.कन्हैया सोशल मीडिया में जबर्दस्त असर रखते हैं. वे सोशल मीडिया इनफ्लूएंशर हैं, इस वजह से जरूरी नहीं है कि वे चुनाव जीत लें, लेकिन वे अपनी बात आसानी से लाखों लोगों तक पहुंचा सकते हैं और इसके लिए उन्हें कोई खर्च भी नहीं करना पड़ता. उनके वीडियो लाखों में देखे जाते हैं. क्राउडफंडिंग से जुड़े एक शख्स का कहना है कि किसी व्यक्ति या संस्था के चंदा जुटाने का प्रचार सोशल मीडिया पर ही होता है और जो भी सोशल मीडिया में मजबूत है, उन्हें इसका फायदा पहुंचता है.
कहने को राजू यादव भी फेसबुक पर हैं और उनके समर्थको ने उनके लिए एक पेज भी बनाया है, लेकिन उनके फेसबुक पेज पर सिर्फ 6,400 लाइक हैं जबकि कन्हैया के फेसबुक पेज पर 4.4 लाख लाइक्स हैं. इसका मतलब यह कतई नहीं है कि राजू यादव आरा सीट पर मुकाबले में इसलिए कमजोर पड़ जाएंगे कि वे सोशल मीडिया में कमजोर हैं. चुनावी जीत और हार कई बातों से तय होती है, जिसमें अब सोशल मीडिया भी एक फैक्टर है, लेकिन जहां तक क्राउडफंडिंग की बात है तो सोशल मीडिया में मौजूद ज्यादातर लोगों को मालूम ही नहीं राजू यादव कौन हैं और क्या उनका कोई क्राउडफंडिंग कैंपने चल रहा है. सोशल नेटवर्क के साइज से क्राउडफंडिंग पर फर्क पड़ता है. राजू इस मामले में कन्हैया से पीछे हैं.
आपकी जान-पहचान वालों की हैसियत कितनी है?
क्राउडफंडिंग के मामले में लोगों को जानना जरूरी है, लेकिन उतना ही जरूरी ये भी है कि आप किन लोगों को जानते हैं और कौन आपको जानता है और उनकी हैसियत कितनी है. दिल्ली में छात्र राजनीति करने, देश के एक प्रमुख विश्वविद्यालय से पढ़े और मीडिया में उछाले जाने के कारण कन्हैया को देश भर में लोग जानते हैं. उनमें हैसियत वाले और पैसे वाले लोग भी हैं. कन्हैया खुद अमीर नहीं हैं, लेकिन मीडिया कॉनक्लेव जैसे मंचों पर लगातार जाने के कारण उन्हें ‘बड़े लोगों’ के साथ उठने-बैठने और संबंध बनाने का लगातार मौका मिला. लगातार मीडिया में रहने के कारण और सरकार द्वारा परेशान किए जाने के कारण उन्हें मोदी विरोध का प्रतीक माना जाने लगा है. इसलिए कई लोग जो देश में कम्युनिस्टों का राज नहीं चाहते, वे भी कम्युनिस्ट पार्टी के कैंडिडेट कन्हैया को चंदा देने वालों में शामिल हैं.
अमीरों का दुलारा है कन्हैया, राजू को कोई पैसे नहीं देता
कन्हैया और राजू को चंदा देने वालों की हैसियत में फर्क का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि कन्हैया को 8.75 लाख रुपए सिर्फ पांच दानदाताओं से मिल गए. राजू को सबसे ज्यादा चंदा देने वाले पांच लोग मिलकर 50,000 रुपए भी नहीं जुटा पाए. राजू बेशक अपने इलाके में जननेता हो सकते हैं, हो सकता है कि वे चुनाव जीत भी जाएं, लेकिन वे ऐसे लोगों को नहीं जानते जो उनके लिए एक लाख या पांच लाख रुपए यूं ही निकाल कर दे दें. यानी राजू के पास न तो बड़ा नेटवर्क है और न ही बड़े धन वालों तक उनकी पहुंच है.
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परवरिश के माहौल और सामाजिक-जातीय पृष्ठभूमि से पड़ता है फर्क
आर्थिक पूंजी के मामले में दोनों उम्मीदवारों में ज्यादा फर्क नहीं है. लेकिन दोनों की सामाजिक पूंजी में भारी फर्क है. सामाजिक पूंजी के सृजन में सांस्कृतिक पूंजी का बहुत बड़ा हाथ है. दोनों की पारिवारिक पृष्ठभूमि और वातावरण में जो अंतर रहा है, उससे उनकी चंदा लेने की क्षमता प्रभावित हुई है. कन्हैया समाज व्यवस्था के क्रम में ऊंची पायदान पर हैं, राजू यादव ओबीसी हैं. इसका असर ये होता है कि जहां ऊंची जाति का आदमी आसानी से ऊंचे सपने देख पाता है और आत्मविश्वास में रहता है, वैसा-वैसा आत्मविश्वास नीचे के क्रम की जातियों के लोगों के पास नहीं होता है.
कन्हैया जब करीब 10 साल के रहे होंगे, तब उन्हें कम्युनिस्ट पार्टी के देश के सबसे बड़े नेता ए.बी. वर्धन से एक पुरस्कार मिलता है और इसकी खबर और तस्वीर एक इंग्लिश अखबार में पूरे पन्ने पर छपती है. बचपन में अगर किसी के साथ ऐसा होता रहे तो उनका आत्मविश्वास सातवें आसमान पर होगा और यहीं कन्हैया के साथ है. ये सुविधा राजू को नहीं मिली है. आत्मविश्वास से भरपूर कन्हैया बड़े लोगों के साथ आसानी से घुल-मिल लेते हैं, राजू यादव के लिए ऐसा करना आसान नहीं होता होगा. बिहार के एक प्रमुख राजनीतिक परिवार से आने के कारण कन्हैया को आत्मविश्वास और नेटवर्क बनाने की क्षमता विरासत में मिली है.
राजू यादव सामाजिक पूंजी और सांस्कृतिक पूंजी के मामले में गरीब हैं और गरीब आदमी को बड़ा चंदा कौन देता है?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)