गलवान गतिरोध के तीन महीने बाद स्पष्ट तौर पर चीन वास्तविक नियंत्रण रेखा से लगे विभिन्न इलाकों में मजबूत नजर आ रहा है, ऐसी स्थिति भारत को पूरी तरह अस्वीकार्य है. यहां तक कि जब सैन्य और कूटनीतिक स्तरों पर बातचीत चल रही थी, रक्षा मंत्रालय ने चीनी ‘अतिक्रमण’ को लेकर पहले आधिकारिक वर्जन से जुड़ा नोट वेबसाइट से हटा दिया, जिसने भारतीयों को हैरत में डाल दिया कि आखिर नरेंद्र मोदी सरकार को चीन के दुस्साहसों का इस हद तक खुलासा करने की जल्दबाजी क्यों थी.
हालांकि, बीजिंग की तरफ से ऐसे आधिकारिक बयानों की झड़ी लग गई जिसमें सारी गड़बड़ियों का ठीकरा भारत पर फोड़ा गया. उसका मीडिया लगभग निरंतर पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) के सैन्य कौशल को लेकर रिपोर्ट दे रहा था जो साफ तौर पर भारत के खिलाफ सशक्त मनोवैज्ञानिक युद्ध था जिसे भ्रमित करने और एक मजबूत लोकतंत्र में निर्णय लेने की प्रक्रिया बाधित करने के उद्देश्य से शुरू किया गया था.
चूंकि चीनी अब भी भारतीय सीमा पर मजबूती से जमे हैं, इसलिए बेहद जरूरी है कि इस लक्षित मनोवैज्ञानिक युद्ध को पहचाना जाए और प्रभावी तरह से रणनीतिक जवाब दिया जाए–जिसका मतलब है कि शीर्ष स्तर पर बयान और दिशा-निर्देश–और हमारे अपने साइ-वार विभागों का सामरिक स्तर पर सक्रिय होना.
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मनोवैज्ञानिक युद्ध नया नहीं
मनोवैज्ञानिक युद्ध को परिभाषित करना काफी मुश्किल है. एक परिभाषा इसे सुनियोजित ढंग से दुष्प्रचार और विरोधी समूहों के विचारों, भावनाओं, रुख और व्यवहार को प्रभावित करने के ‘अन्य मनोवैज्ञानिक अभियानों’ के तौर पर संदर्भित करती है. दुष्प्रचार के इस्तेमाल के बारे में तो ज्यादातर लोगों को थोड़ी-बहुत जानकारी है. लेकिन ‘अन्य’ तरीके ज्यादा दिलचस्प हैं.
1940 के दशक में अमेरिका की केंद्रीय खुफिया एजेंसी (सीआईए) ने साई-वार को ‘सशस्त्र युद्ध से इतर’ और साजिश और गुरिल्ला वार जैसे ‘काले’ उपायों के हिस्से के रूप में परिभाषित किया. 2010 तक साइ-वार या मनोवैज्ञानिक अभियानों ने खुद को युद्धक आवश्यकता से अलग कर लिया था. अब यह ‘इन्फॉर्मेशन वार’ का हिस्सा था, जैसा कि अमेरिकी ज्वाइंट चीफ्स ऑफ स्टाफ के संयुक्त प्रकाशन 3-13.2 में बताया गया था. इसने साइ-ऑप्स को अमेरिकी उद्देश्यों के हित में विदेशी लोगों को प्रभावित करने वाले ‘रणनीतिक कम्युनिकेशन को बढ़ाने की प्रमुख क्षमता’ के रूप में परिभाषित किया. इसमें स्पेशल ऑपरेशंस कमान की भूमिका, और कमांडरों और राजनीतिक प्रमुखों के लिए निर्धारित हथियारों की श्रेणी शामिल थी, जिससे बिना लड़े ही युद्ध जीता जा सके.
यह अवधारणा सत्ताच्युत करने की कला में माहिर कई रणनीतिकारों के पसंदीदा सूत्रों में भी नजर आती है जैसे कार्ल वॉन क्लॉजिट और युद्ध पर उनका काम, हमारे अपने कौटिल्य, जिन्होंने प्रवेश के बिना ही किला फतह करने पर एक पूरा अध्याय लिखा है, और चीन के सुन त्जु.
इसलिए साइ-ऑप्स भी युद्ध जितनी ही पुरानी परंपरा है, हालांकि इसका एक साश्वत नियम है. दुष्प्रचार अभियान को लोगों की नजर में एकदम एकदम सच की तरह पेश करना. उदाहरण के तौर पर आप हिंसक विरोध का हिस्सा नहीं बन सकते हैं. लेकिन आप मौजूदा नाराजगी को भड़काने के लिए मनोवैज्ञानिक युद्ध हथियारों का इस्तेमाल कर सकते हैं.
आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) के युग में यह नियम ज्यादा कारगर होने के आसार हैं. अमेरिकियों के बीच हुआ एक सर्वेक्षण इसका बेहतरीन उदाहरण है जो इस बात से सहमत थे कि सरकार एक विमान दुर्घटना से जुड़ी जानकारी छिपा रही है. सच्चाई क्या थी? कोई दुर्घटना हुई ही नहीं थी. इसे रिसर्च टीम ने तैयार किया था.
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चीनी मीडिया का संदेश
चीन की तरफ से जारी साई-वार(मनोवैज्ञानिक युद्ध) में मीडिया की तरफ से सशक्त संदेशों का इस्तेमाल किया गया, जिसमें ‘कुछ ही घंटों’ में सैनिकों को विमान और ट्रेन के जरिये हुबेई प्रांत से भारतीय सीमाओं तक पहुंचाने के सीसीटीवी फुटेज शामिल थे. इन दावों को दुनिभाभर के मीडिया पर प्रसारित किया गया, और सीमा तक चीन के सड़क और रेल नेटवर्क को देखते हुए इस पर पूरी तरह भरोसा भी कर लिया गया.
किसी ने इस पर ध्यान नहीं दिया कि सैनिक वुहान क्षेत्र से थे जहां नोवेल कोरोनवायरस की उत्पत्ति हुई थी, जिससे सैनिकों के संक्रमित होने का खतरा बढ़ गया था, और समुद्र तल से कई हजार फीट ऊपर तक जाना सिर घुमाकर रख देगा. और दूसरी तरफ भारत के सैनिक से पहले से ही ऊंचाई वाले इलाकों में जमे हुए थे. यह सब भारत के मनोवैज्ञानिक युद्ध अभियान का हिस्सा हो सकता था. लेकिन ऐसा नहीं था.
ऐसी ही कुछ अन्य रिपोर्ट जेड-10 युद्धक हेलीकॉप्टर समेत बेहद ऊंचाई वाले इलाकों के लिए अत्याधुनिक हथियारों की खेप और अभ्यास के वीडियो से जुड़ी थी. लेकिन इस सारी खुराफात की पोल इसके ब्योरे में ही छिपी है. जेड-10 को 2015 में पाकिस्तानी वायु सेना में शामिल किया गया था. लेकिन कमजोर इंजनों ने इसे विशेष तौर पर ऊंचाई वाले क्षेत्रों में अनुपयोगी बना दिया था, जिस वजह से इस्लामाबाद को दो साल बाद ही अमेरिकी इंजनों वाले तुर्की के हेलीकाप्टरों की पैरवी करनी पड़ी. जेड-10 का एक नया संस्करण सामने आया है, लेकिन हालिया रिपोर्टों से पता चलता है कि भारत के नए अपाचे के साथ बराबरी के लिए पाकिस्तान तुर्की के हेलीकॉप्टरों को ही तरजीह दे रहा है.
सीधे शब्दों में कहें तो यहां तक कि इस्लामाबाद में भी अविश्वसनीय चीनी की तुलना में उच्च तकनीक वाले अमेरिकी हथियार ही होंगे. इसलिए सीमा पर चीनी ‘ताकत’ उल्लेखनीय तो है लेकिन कुछ हद तक खोखली भी है. यह वास्तविकता थोड़ी-बहुत भारतीय मीडिया कवरेज में नजर आई है.
मनोवैज्ञानिक युद्ध के अन्य उपायों में गलवान में कराटे फाइटर तैनात किए जाने की रिपोर्ट शामिल है, जिसे व्हाट्सएप पर फैलाया गया था. दक्षिण चीन सागर में तैनात तीन अमेरिकी विमानवाहक विमानों के संदर्भ में नौसेना की क्षमताओं से जुड़े दावों को लेकर भी कुछ खबरें चलीं. लेकिन यह बहुत काम नहीं आया, और क्षेत्र में शक्तिशाली बेड़ा तैनात है. यह कारगर नहीं रहा क्योंकि दावे वास्तविकता से काफी अलग थे. अमेरिका-और चीन-को पता है कि समुद्री क्षेत्र में अमेरिकी झंडा बुलंद है.
वुल्फ वॉरियर्स
दूसरे स्तर पर है ‘रणनीतिक’ संदेश जो राष्ट्रपति शी जिनपिंग को, जिस तरह वह सत्ता पर नियंत्रण चाहते हैं उसकी बजाय चीन के उद्धारक के रूप में चित्रित करता है. इसमें ‘पॉवर मैसेजिंग’ शामिल है, जैसे पीएलए को युद्ध के लिए तैयार रहने का उनका निर्देश और ‘वुल्फ वॉरियर’ शब्दावली के इस्तेमाल की स्पष्ट झलक दिखना. इसकी शुरुआत एक अत्यधिक सफल एक्शन फिल्म से हुई थी है, जिसमें चीनी सैनिक अफ्रीका में अपने नागरिकों को बचाते हैं. इसकी टैगलाइन थी. ‘यदि हजारों मील दूर भी किसी ने चीन से मोर्चा लिया तो नतीजा भुगतेगा.’
जाहिर तौर पर पहले ‘वुल्फ’ राजनयिकों में से एक पाकिस्तान में पूर्व चीनी राजदूत झाओ लिजियन थे, जिनके अमेरिका में कथित नस्लवाद का आरोप लगाने वाले ट्वीट ने पिछले साल खासा हंगामा मचाया था. बाद में उन्हें ‘प्रोन्नत’ करके विदेश मंत्रालय प्रवक्ता के मौजूदा पद पर तैनात किया गया. एक अन्य ‘वुल्फ वॉरियर’ हैं नेपाल में चीनी राजदूत होउ यानकी.
इसके बाद बारी है इनमें सबसे ज्यादा गूढ़ साइ-वार की. हाल में चीनी विदेश मंत्री वांग यी ने एक बेहद चौंकाने वाला बयान दिया कि ‘स्वतंत्रता, लोकतंत्र और कानून का शासन चीनी संविधान में संहिताबद्ध है.’ अन्य चीनी स्रोतों की तरफ से भी ऐसी बातें कही जा रही हैं जिसका सीधा उद्देश्य पश्चिम के अपने ‘मित्रों’–खासकर जो व्यावसायिक हितों से जुड़े हैं–को यह आश्वस्त करना है कि चीन से नाता तोड़ने के बजाये उसके साथ काम करना फायदेमंद है.
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बीजिंग का मुकाबला
भारत के लिए अच्छी बात यह है कि चीन को इसका ज्यादा अंदाजा ही नहीं लग पाता कि यह मजबूत लोकतंत्र कैसे काम करता है क्योंकि उसकी धमकियों और दावों पर भरोसा करने के बजाये भारतीय उससे भड़क जाते हैं. इसका सूचना-युद्ध सांस्कृतिक समझ में कमी के कारण बाधित होता है न कि तकनीक के कारण. लेकिन इसकी आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) क्षमताएं बढ़ने के साथ यह सब बदल जाएगा. यह एक तथ्य है. 2017 में बीजिंग ने फेशियर रिकग्निशन में अमेरिका के 150 की तुलना में 900 से अधिक पेटेंट हासिल किए हैं.
नई दिल्ली को इस क्षेत्र में मजबूत पकड़ के लिए कड़ी मेहनत करनी होगी. लेकिन तात्कालिक तौर पर इसके लिए एक स्पष्ट रणनीतिक कम्युनिकेशन लाइन विकसित करने की जरूरत है-जो अपनी साइ-वार रणनीति मजबूत करने वाली हो. नेताओं को लोगों से बात करनी चाहिए ताकि कमांडर लड़ सकें. यह पूर्ण सत्य नहीं हो, लेकिन इसका एक वर्जन हो. उदारवादियों की सीमा की स्थिति पर पूरी जानकारी देने की मांग के बावजूद वास्तविकता यही है कि कोई भी राजनीतिक प्रमुख, भले ही कितना भी पारदर्शी हो, लोगों को सब कुछ नहीं बताएगा; केवल उतना ही बताएगा जितना उन्हें जानना चाहिए. यह भी एक तरह से साइ-वार है. लेकिन इसमें हम बेहतर हैं.
(लेखिका नेशनल सिक्योरिटी काउंसिल सेक्रेटरिएट की पूर्व निदेशक है. विचार व्यक्तिगत है)
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