मक़ाम ‘फ़ैज़’ कोई राह में जचा ही नहीं, जो कू-ए-यार से निकले तो सू-ए-दार चले (फांसी और मेरी प्यार की गली के बीच, मेरे लिए कोई और अच्छी जगह थी ही नहीं). मुझे नहीं लगता कि इन अमिट पंक्तियों को लिखते समय फ़ैज़ अहमद फै़ज़ उन विकल्पों के बारे में सोच रहे थे, जिनका हमारे मुख्य अधिकारियों को हमारे सेना प्रमुख का चयन करते समय सामना करना होता है. फिर भी बार-बार ऐसा ही कुछ होता रहता है.
पाकिस्तान के प्रधानमंत्रियों में से एक को उनके खुद के चुने हुए सेनाध्यक्ष (चीफ और आर्मी स्टाफ- सीओएएस) ने फांसी पर लटकवा दिया था; और कुछ अन्य के जीवन को फिर से एक मौका मिल गया जब वर्दीधारी कुनबे के तत्कालीन प्रमुख ने बिल्कुल क्रॉमवेलियन शैली में अपने ग़मों के दौर ख़त्म कर डाला. यह रद्दोबदल हमारे इतिहास, सेना की विशेष स्थिति, या हमारे नागरिक संस्थानों की नामुनासिब का न टाला जा सकने वाला नतीजा हो सकता है – लेकिन यह समय उन पर विलाप करने या अफसोस जताने का नहीं है. अच्छा तो यही होगा कि जैसे भी मुमकिन हो इस नागरिक-सैन्य असंतुलन को तुरंत दुरुस्त करें और इस बेतुके सर्कस को हमेशा के लिए बंद कर देने के लिए जरुरी कीमत चुकाएं; मगर, फ़िलहाल के लिए, एक ऐसे वक्त में जब हमारे दुखियारे प्रधानमंत्री बाढ़ से लड़ रहे हैं, कई निशानों को एक साथ साध रहे हैं, और अपने राजनीतिक दुश्मनों और दोस्तों से दूरी बनाए हुए हैं. आइए, हम उन्हें पाकिस्तान में संभावित रूप से वह सबसे शक्तिशाली व्यक्ति ढूंढ निकालने में मदद करें, जो हर वक्त अपनी ही धौंस न जमाता रहे.
पाकिस्तान एकमात्र ऐसा देश नहीं है जिसकी सेना के पास बंदूकें हैं, लेकिन यकीनन यह एक ऐसा मुल्क है जहां राजनीतिक शक्ति उनकी बन्दूक की नाल से होकर गुजरती है. अगर यही वजह है जिसके कारण हमारे कुछ चयनकर्ता एक ऐसा सेना प्रमुख खोजने के लिए निचले क्रमों में लोगों की तलाश करते हैं जो उनके सिंहासन बख्श दे, तो इसका नतीजा हमेशा से उलटा ही होता रहा है. जरूरी नहीं कि ऐसा गलत चुनाव की वजह से ही हो; लेकिन इससे भी अधिक ऐसा इसलिए होता है क्योंकि इस प्रकार चुने गए व्यक्ति के पास अब एक राजनीतिक बोझ होता था, और फिर उसे एक ऐसे कार्यालय में पहुंचा दिया जाता है जो उसे इससे छुटकारा पाने की सहूलियत देता है. इसी वजह से पाकिस्तान में सेना प्रमुख का चयन करना एक बूमरैंग को उछालने जैसा है. अगर इसे सही तरीके से नहीं किया गया, तो यह काफी नुकसान पहुंचा सकता है – खासकर इसे उछालने वाले को.
हालांकि, समस्या तो यह है कि अधिकतर अन्य मानदंडों को भी पूरा करना आसान नहीं है. वरिष्ठता और उपयुक्तता आसानी से जेहन में आती है. और वास्तव में, हर थ्री-स्टार जनरल, एडमिरल, या एयर मार्शल – सैन्य मामलों में उसकी महारत होने, न होने की परवाह किये बिना- जब एक सेना प्रमुख होने के कर्तव्यों से लद जाता है, तो वह उतना ही अच्छा साबित हो सकता है जितने के कुछ अन्य लोग. उस स्तर पर, सहयोगी सेनाओं और नागरिक संस्थानों के अपने साथियों एवं सहकर्मियों के साथ बातचीत करने के अलावा, सीमाओं से परे की कुछ तिकड़मबाजियां भी इसी काम का एक हिस्सा बन जाती है.
हालांकि, इन क्षेत्रों में एक फोर-स्टार जनरल के किसी उम्मीदवार की क्षमता को आंकना एक कठिन मसला है – आम तौर पर यह एक साधारण योग्यता वाले प्रधानमंत्री, या उन सलाहकारों की मंडली जिसके साथ वह आमतौर पर फंस जाता है, की क़ाबलियत के दायरे में आता ही नहीं हैं.
यह बात इस चुनौती को और भी कठिन बना देती है कि कभी-कभी कोई व्यक्ति इस पैमाने पर बहुत छोटा प्रतीत होता है, मगर जब वह पद पर होता है शानदार काम कर गुजरता है.
जनरल मुहम्मद जिया-उल-हक को उनकी कुछ निजी अजीबोगरीब आदतों के लिए जाना जाता था, लेकिन किसी ने भी यह उम्मीद नहीं की थी कि जब वह सत्ता में होंगे, तो वे दुनिया भर को चक्कर में डाल सकते हैं. आप इसे पसंद करें या नहीं: पर यह उस वक्त की दरकार थी.
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विदेशों की चयन प्रणाली
कुछ देशों ने एक इसे बारे में समुचित कार्य प्रणाली विकसित करने का प्रयास किया है, लेकिन मुझे यकीन नहीं है कि इससे हमारा मकसद पूरा हो सकेगा.
मिसाल के तौर पर, अमेरिका में, शीत युद्ध के चरम पर, तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति ने अलेक्जेंडर हैग, जो वरिष्ठता क्रम वाली सूची में लगभग पचासवें स्थान पर थे, को यूरोप में मित्र देशों की सेनाओं के सर्वोच्च कमांडर के रूप में चुना था. अगर उनका चयन इस काम के लिए किसी विशेष कौशल के लिए किया गया था, तो मुझे इस बारे में नहीं पता. लेकिन वह आगे चलकर अमेरिका के सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट (विदेश मंत्री) बने, जो यह दर्शाता है कि उस व्यक्ति के पास अमेरिकी योजना के लायक कुछ प्रतिभाएं थीं.
इस मामले में जर्मन एकदम अलग हैं. उनका मानना है कि भविष्य के जनरलशिप की क्षमता को एक अधिकारी के करियर (सेवा काल) में जल्दी ही पहचान लिया जाना चाहिए. स्टाफ कोर्स के लिए एक बैच का परीक्षण किए जाने के बाद, उनमें से शीर्ष 10 प्रतिशत को ही उच्च रैंक तक बढ़ावा देने के लिए फास्ट ट्रैक पर ले जाया जाता है. पूर्वी देशों में, जहां उम्र और सेवा काल अभी भी काफी मायने रखती है, इस प्रणाली से दिल का दौरा, आत्महत्या या तलाक जैसे हालात पैदा हो सकते हैं.
भारतीय सेना में योग्यता और वरिष्ठता दोनों को उनका उचित महत्त्व दिया गया है. सौ से अधिक लेफ्टिनेंट जनरल एक फिल्ट्रेशन प्रोसेस (छांटे जाने की प्रक्रिया) से गुजरते हैं और उनमें से लगभग आधा दर्जन ही क्षेत्रीय कमानों का नेतृत्व करने और सेना के उप प्रमुख के रूप में नियुक्त होने के लिए निकल कर सामने आते हैं. इसके बाद, एकदम कड़ाई से वरिष्ठता का पालन होता है, भले ही लाइन में लगे अगले व्यक्ति को कुछ ही महीनों के लिए शीर्ष पद प्राप्त हो. हो सकता है कि हमारी उच्च न्यायपालिका ने उस फॉर्मूले से कुछ सीखा हो, और किसी मुख्य न्यायाधीश का एक महीने से भी कम समय अपने पद पर रहने जैसी कीमत वरिष्ठ न्यायाधीशों के बीच के आपसी विवाद की तुलना में कहीं अधिक सस्ती है.
पदोन्नति की सीढ़ियां
हमारे मामले में, हमारे पास लगभग कई सारे लेफ्टिनेंट जनरलों के बीच से ‘संभावित सेना प्रमुखों’ को शॉर्ट-लिस्ट करने की प्रणाली उपलब्ध ही नहीं है. हालांकि, एक और कारक है जो हमारी सेना की वरिष्ठता क्रम सूची को बिगाड़ रहा है. जनरल जिया-उल-हक एक बार इस अजीब निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि चूंकि वह इतनी जल्दी अपने पद से नहीं हटने वाले हैं, इसलिए उनके नीचे के पायदान -तीन सितारा जनरलों की – को पदोन्नति की सीढ़ी को आगे बढ़ाते रहने के लिए और अधिक मोबाइल (गतिशील) बनना चाहिए. हमारे लेफ्टिनेंट जनरलों को चार साल बाद इसी रैंक में सेवानिवृत्त हो जाना होता है – सिर्फ एक-आध को छोड़कर, जो किसी निवर्तमान सेना प्रमुख द्वारा उत्पन्न किये गए मौके का लाभ उठा पाते हैं.
इसका हमारी संस्थागत स्थिरता पर अस्थिर कर देने वाला प्रभाव पड़ा है. उस रैंक पर पदोन्नत किए गए किसी भी व्यक्ति को इसी सीमित समय सीमा के भीतर कई तीन-सितारा पदों के बीच घूमते रहना होता है – और उन लोगों से पहले सेवानिवृत्त हो जाना होता है जिन्हें पहले पदोन्नत नहीं किया गया था. इसके अलावा ऐसे भी कई उदाहरण थे जब पूरी तरह से अच्छे दावेदार भी केवल कुछ ही दिनों की वजह से किसी पद की दौड़ में शामिल होने से चूक गए. इस बात ने इन अटकलों को पैदा किया कि इस तरह की पदोन्नति (तीन सितारे रैंक के लिए) के समय के साथ अगली महत्वपूर्ण पसंद का समय आने तक ‘सही वरिष्ठता’ क्रम को बनाये रखने के मकसद से हेरफेर किया जाता है.
मिसाल के तौर पर कुछ लोग तो यह भी मानते हैं कि जनरल ज़िया, जो एक अनूठे सवाल के जरिये जनमत संग्रह में भी हेरफेर कर सकते थे, ने आने वाले कई वर्षों के दौरान अगले उप सेनाप्रमुख की नियुक्ति के लिए वरिष्ठता क्रम को पहले से ही प्रोग्राम कर रखा था. वास्तव में, इंसान की जोड़-तोड़ को उलटने के लिए कुदरत के पास अपने तरीके हैं, लेकिन केवल यह विचार कि इस प्रणाली को किसी की इच्छाओं के अनुसार ढाला जा सकता है, कोई खास सुकून की बात नहीं है.
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संस्थागत विकृतियां
इसके अलावा एक अन्य कारक जो इस सारे क्रम को बिगाड़ देता है, वह है जब एक सेना प्रमुख को उसके कार्यकाल में विस्तार मिलता है. इसके कुछ नतीजे तो सब को मालूम हैं – लाइन में इंतजार कर रहे कई लोग मौका चूक जाते हैं, और इससे यह बेक़ार सा संदेश जाता है कि अगला उम्मीदवार इस पद के लायक ही नहीं था. मगर संगठन के भीतर कुछ ऐसी भी चीजें हैं जो एक ऑर्गेनाइजेशन के रूप में इतनी विकृत हैं कि वो जानी पहचानी भी नहीं है , इसका फायदा उठाने वाला शख्स अपनी हनक खो देता है; और यह दूसरे लोगों को प्रतिष्ठित पद पाने या सेवा विस्तार की तलाश करने के लिए राजनीतिक आकाओं की जी-हुजूरी के लिए प्रेरित कर सकता है.
इस सारी आवाजाही का एक नतीजा यह है कि वर्तमान समग्र परिवेश में, सबसे अच्छा विकल्प कार्यकाल और वरिष्ठता पर टिके रहना है – न केवल इसलिए कि इसके अन्य विकल्प कहीं अधिक जटिल हैं, बल्कि इसलिए भी की ऐसा करने से हर चयन से पहले होने वाली नुक्सानदेश सार्वजनिक चर्चा को भी टाला जा सकता है. इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि यह किसी खास उम्मीदवार को इस पद के लिए अपनी पैरवी करने से रोकने के लिए जरुरी है. एकमात्र विकल्प इस बात को तय करना हो सकता है कि इन शीर्ष दो अधिकारियों में से कौन रक्षा मामलों पर सरकार का बेहतर सलाहकार बन पायेगा. वह तब जॉइंट चीफ ऑफ स्टाफ कमेटी का चेयरमैन बनने के लिए और सीओएएस को इस भारी- भरकम जिम्मेदारी से आजाद करने के लिए सही शख्श होगा.
(लेखक पाकिस्तान की ख़ुफ़िया एजेंसी इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस के पूर्व प्रमुख हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.)
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