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Friday, 22 November, 2024
होममत-विमतपिछले कुछ सालों में आंबेडकर कैसे बन गए मुख्यधारा के आंदोलनों के नायक

पिछले कुछ सालों में आंबेडकर कैसे बन गए मुख्यधारा के आंदोलनों के नायक

उपेक्षित समाज, दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक, पिछड़ा वर्ग, महिला, ट्रांसजेंडर के लोग आज बाबा साहेब के विचारों में अपनी आवाज ढूंढ़ता है इसलिए वे सामाजिक न्याय और मानवाधिकार आंदोलनों की धुरी बन गए हैं.

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बाबा साहेब आंबेडकर को छह दशक के बाद भी आज तक वह सम्मान नहीं मिला जिसके वो हकदार रहे हैं. उनके असीमित योगदान के बावजूद उन्हें सिर्फ दलित नेता या ज्यादा से ज्यादा संविधान निर्माता तक सीमित कर दिया गया. उन्हें सिर्फ दलित आइकन समझा गया जबकि वो पूरे राष्ट्र की पहचान और सम्पूर्ण विश्व के लिए पीड़ित मुक्तिदाता की मशाल समझे जाने चाहिए थे. उन्होंने समानता, स्वतन्त्रता, भाईचारे और न्याय को आधार बनाते हुए हर वर्ग का ध्यान रख उनके मानवाधिकार, संवैधानिक अधिकार सुनिश्चित किये.

उन्होंने सामाजिक-आर्थिक रूप से बंटे हुए भू-भाग को एक राष्ट्र बनाने का प्रयास किया. उन्होंने एक प्रभुत्व संपन्न, समाजवादी, लोकतंत्रात्मक प्रबुद्ध भारत का सपना देखा. इसलिए यदि उनको राष्ट्र निर्माता कहा जाये तो यह बिल्कुल गलत नहीं होगा. आज के दौर में आंबेडकर की सबसे ज्यादा जरूरत है. यह शब्द पिछले कुछ समय में काफी लोगों ने इस्तेमाल किया था लेकिन तब देश नहीं जानता था कि जल्द ही देश में एक अपूर्व जन-आंदोलन होने वाला है. जिसके हर पोस्टर में आंबेडकर छाए हुए होंगे और हर किसी की जुबान पर जय भीम और जय संविधान होगा.

मैं एनआरसी-सीएए के खिलाफ हुए आन्दोलन की बात कर रहा हूं जो बीते कुछ दिनों सर्वाधिक चर्चा का विषय रहा. लोगों ने अपने विरोध के अधिकार का इस्तेमाल करते हुए एक बड़े आन्दोलन की रुपरेखा रखी और यह सब बाबा साहब आंबेडकर की छत्रछाया में हुआ. आंदोलन पूरी तरह बाबा साहेब आंबेडकर की तस्वीरों और बैनरों से भरे हुए थे. देश के हर कोने में चले इन आंदोलनों में जय भीम और बाबा साहब आंबेडकर के संविधान बचाने की ही बात हो रही थी. आज हर बड़े आन्दोलन में बाबा साहब की तस्वीर आपको मिल जाएगी. दलित आन्दोलन की तो बिना बाबा साहब आंबेडकर के आप कल्पना नहीं कर सकते, लेकिन पिछले कुछ समय से महिलाओं के आन्दोलन, ट्रांसजेंडर के आन्दोलन, आदिवासियों, भूमिहीनों, सामाजिक न्याय के हर आन्दोलन में बाबा साहब मौजूद हैं.

बाबा साहेब आंबेडकर मानवाधिकार आंदोलनों के परिचायक बनते प्रतीत हो रहे है. जैसे कुछ समय पूर्व तक हर आन्दोलन के महात्मा गांधी एकछत्र प्रतीक होते थे, आज हर आन्दोलन में डॉ आंबेडकर उनके साथ नजर आते हैं बल्कि लोगों में गांधी से ज्यादा लगाव आंबेडकर से देखने को मिल रहा है. आज आंबेडकर हक अधिकारों की आवाज के प्रतीक बन गए हैं.

महू में जन्मे आंबेडकर ‘सिंबल ऑफ नॉलेज’ बन गए

बाबा साहेब डॉ भीमराव आंबेडकर का जन्म 14 अप्रैल 1891 को इंदौर के महू नामक स्थान में हुआ था. उनके पिता रामजी फौज में सूबेदार थे. उनकी माता का नाम भीमाबाई सकपाल था. जब वो महज पांच साल के थे तभी उनकी माता का देहांत हो गया था. आंबेडकर ने सन् 1907 में मैट्रिक और एल्फिन्स्टन कॉलेज से इंटर की परीक्षा पास की. 1912 में उन्होंने बीए पास करने के उपरांत न्यूयार्क विश्वविद्यालय से 1915 में एमए की डिग्री हासिल की.


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कोलम्बिया विश्वविद्यालय से उन्हें डॉ. ऑफ़ फिलॉसफी की उपाधि मिली. बाबा साहेब आंबेडकर भारत ही नहीं बल्कि पूरे दक्षिण एशिया के ऐसे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने अर्थशास्त्र में पीएचडी की थी. बाबा साहेब ने पाली भाषा शब्दकोश भी लिखा था और वे संस्कृत सहित 9 से ज्यादा भाषाएं जानते थे. इसलिए उन्हें सिंबल ऑफ नॉलेज भी कहा जाता है.

बाबासाहेब को किताबें पढ़ने का बड़ा शौक था. कहा जाता है कि आंबेडकर की व्यक्तिगत लाइब्रेरी दुनिया की सबसे बड़ी व्यक्तिगत लाइब्रेरी थी, जिसमें 50 हज़ार से अधिक पुस्तकें थीं. बाबा साहेब ने अपने जीवन में तथागत तौर पर गौतम बुद्ध, संत कबीर और महात्मा ज्योतिबा फुले को अपना गुरु माना.

किसके हैं आंबेडकर?

निसंदेह आज बाबासाहेब आंबेडकर अधिक प्रासंगिक नजर आ रहे हैं. लोगों में आंबेडकर को पढ़ने की उत्सुकता भी बढ़ी है. संसद में भी हर बहस में आपको पक्ष-विपक्ष दोनों के तर्कों में बाबा साहेब सुनने को मिल जाएंगे. आज हर नेता की जुबान पर ‘जय भीम’ है. पक्ष-विपक्ष के हर पार्टी के नेता आंबेडकर पर अपना हक जताना चाहते हैं लेकिन हकीकत में आंबेडकर किसके हैं?

सत्ता पक्ष के लिए आंबेडकर को साथ लेकर चलना आसान है? क्योंकि एक पार्टी जिसका ‘जय श्री राम’ एक अघोषित नारा रहा हो, जो खुलकर धर्म की राजनीति करती है, उस संगठन के दिशा-निर्देश में काम करती हो जो हिन्दुओं का सबसे बड़ा संगठन होने का दावा करता हो, वो बाबा साहेब आंबेडकर की 22 प्रतिज्ञाओं को और उनके हिन्दू धर्म के त्यागने को, उनके हिन्दू धर्म पर रखे विचारों को कैसे अपने एजेंडे में फिट कर सकती है जो कि संभव नजर नहीं आता है. क्योंकि जब भी सामाजिक न्याय की बात होगी तो ये लड़ाई सिमटकर मनुवाद बनाम आंबेडकरवाद की होगी और इस बीच बीजेपी का मनुस्मृति प्रेम जग-जाहिर रहा है.

कांग्रेस के लिए आंबेडकर को हथियाना और ज्यादा मुश्किल लगता है क्योंकि उनके जीवन काल में उनका कांग्रेस से रिश्ता अच्छा नहीं रहा बल्कि विवादों को छोड़ भी दिया जाये तो यह विवाद भूलना बहुत मुश्किल है जब बाबा साहेब के दलितों के लिए अलग निर्वाचक मंडल की मांग के विरोध में महात्मा गांधी आमरण तक चले गए थे और बाबा साहेब को निराश मन से रोते हुए पूना पैक्ट समझौता करना पड़ा था.

महात्मा गांधी सच्चे हिन्दू उपासक थे. वो जातिवाद के खिलाफ थे लेकिन वर्ण व्यवस्था के समर्थक थे जबकि बाबा साहेब मानते थे कि वर्ण व्यवस्था के खत्म हुए बिना जातिवाद खत्म नहीं हो सकता है. इसलिए बाबा साहेब आंबेडकर ने कभी भी गांधी को महात्मा नहीं माना. स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद संविधान के अंतिम संस्करण से नाखुश होकर पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का विरोध करते हुए उन्होंने क़ानून मन्त्री के पद से इस्तीफा तक दे दिया था. कांग्रेस के लिए इस इतिहास को छिपाना बहुत मुश्किल है इसलिए बाबा साहेब पर अपना हक जताने की डगर कांग्रेस के लिए बहुत मुश्किल है.


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अब बची भारतीय नायक विहीन लेफ्ट पार्टियां जो अपने वजूद की लड़ाई लड़ रही हैं, जिनके सामने अस्तित्व बचाने का संकट आ खड़ा हुआ है. दूसरी राजनीतिक पार्टियों की तरह इन्होंने भी अबसे पहले कभी बाबा साहेब आंबेडकर को स्वीकार नहीं किया, बल्कि बाबा साहेब के जीवन काल के दौरान विरोध ही किया था और इन्होंने कभी जाति की समस्या को स्वीकार नहीं किया.

लेकिन राजनीति से अलग हटकर यदि बात की जाए तो आज बाबा साहेब हर उपेक्षित समाज, दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक, पिछड़ा वर्ग, महिला, ट्रांसजेंडर के समान अधिकारों की आवाज बनते जा रहे हैं, क्योंकि हर उपेक्षित समाज के हकों की बात उन्होंने की है. इसलिए आज हर पीड़ित उनके विचारों में अपनी आवाज ढूंढ़ता है इसलिए आंबेडकर सामाजिक न्याय और मानवाधिकार आंदोलनों की धुरी बन गए हैं.

(लेखक ऑल इंडिया बहुजन कॉर्डिनेशन कमेटी के संयोजक हैं)

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2 टिप्पणी

  1. भारत रत्न बाबा साहेब डॉक्टर भीमराव अंबेडकर की जयंती पर लिखा गया यह लेख बहुत कुछ सामाजिक परिस्थितियों की प्रस्तुति कर रहा है। यह प्रसन्नता की बात है कि उनको लेखक में तुच्छ राजनीति से ऊपर उठकर प्रखर राष्ट्रवादी बताया है।
    बाबासाहेब विद्वता के साथ गहरी धार्मिक समझ भी रखते थे।
    उनके जीवन का ठीक अध्ययन करने पर यह सब समझ में आ जाएगा

  2. the print के लेखो से बहुत प्रभावित हूँ ।ओर सबसे खास ये की आप के लेख ज्यादा लम्बे नहीं होते जो इन्हें ओर भी रुचिकर बनाते है ।ज्ञान मे वृध्दि के लिए आपका आभार व्यक्त करता हूँ ।

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