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Monday, 23 December, 2024
होममत-विमतरामदेव की कोरोनिल ने सोशल मीडिया की भ्रामक सूचनाओं के खिलाफ जंग में कैसे मुश्किलें बढ़ाईं

रामदेव की कोरोनिल ने सोशल मीडिया की भ्रामक सूचनाओं के खिलाफ जंग में कैसे मुश्किलें बढ़ाईं

मोदी सरकार ही पंतजलि से कोरोनिल को कोविड की 'दवा' के तौर पर प्रचारित न करने का निर्देश दे चुकी है लेकिन भ्रामक हैशटैग रोकने या स्वास्थ्य संबंधी दुष्प्रचार को रोकने के लिए सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म ने कुछ खास नहीं किया है.

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एक तरफ जहां दुनियाभर के वैज्ञानिक अभी कोरोनावायरस की वैक्सीन खोजने के लिए खासी मशक्कत कर रहे हैं, रामदेव की पतंजलि आयुर्वेद ने इसी हफ्ते घोषणा कर दी कि उसने कोविड-19 की ‘दवा’ बना ली है. रामदेव के मुताबिक, कोरोनिल और स्वासरी दवाओं के अच्छे नतीजे सामने आए हैं और इससे परीक्षण में शामिल ऐसे सभी कोरोनावायरस मरीज ‘ठीक’ हो गए जो वेंटीलेटर पर नहीं थे.

नई ‘दवा’ की घोषणा और उसके बाद की प्रतिक्रिया- नरेंद्र मोदी सरकार के आयुष मंत्रालय ने पतंजलि से कोरोनिल का प्रचार रोकने को कहा और उत्तराखंड आयुर्वेद विभाग ने कहा कि कंपनी ने लाइसेंस के लिए अपने आवेदन में कोरोनावायरस का जिक्र तक नहीं किया था. इसने विभिन्न सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर इन्फॉर्मेशन डिसऑर्डर को लेकर एक बड़ी बहस छेड़ दी. और सवाल उठा कि महामारी या ऐसी अन्य स्थितियों के दौरान स्वास्थ्य से जुड़ी कैसी भ्रामक सूचनाएं सामने आती हैं.

इन्फॉर्मेशन डिसऑर्डर से निपटना

सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म इस समय पूरी तरह इन्फॉर्मेशन डिसऑर्डर से निपटने में जुटे हैं और ऐसे समय में कोरोनिल का आना खासा रोचक हो गया है. इस माह के शुरू में हम इन्फॉर्मेशन डिसऑर्डर पर सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म की प्रतिक्रिया का आकलन करने वाले एक पेपर पर काम कर रहे थे और पाया कि सारी प्रतिक्रियाओं को चार श्रेणियों में बांटा जा सकता है.

1. धनराशि आवंटन: विभिन्न प्लेटफॉर्म की तरफ से कई संस्थानों को धनराशि आवंटित की जाती है ताकि उनकी मदद से इन्फॉर्मेशन डिसऑर्डर को नियंत्रित किया जा सके. इसमें फैक्ट चेकिंग ऑर्गनाइजेशन, मीडिया संस्थान और विश्वसनीय पत्रकारिता से जुड़े सूत्र भी शामिल हैं. उदाहरण के तौर पर गूगल दुनियाभर में भ्रामक सूचनाओं से निपटने के लिए 6.5 मिलियन डॉलर राशि खर्च कर रहा है जबकि फेसबुक सीईओ मार्क जुकरबर्ग ने विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) से कहा है कि वह जितनी भी जरूरत पड़े उतने फ्री विज्ञापन दे सकता है.

2. यूजर इंटरफेस (यूआई) में बदलाव: ये प्लेटफॉर्म अपने यूजर इंटरफेस में ही फीड या सर्च रिजल्ट के तौर पर विश्वसनीय पब्लिक हेल्थ अथॉरिटी से जुड़ी सूचनाएं हाईलाइट कर रहे हैं. इसमें कोविड-19 को लेकर एक्सप्लोर सेक्शन फंक्शन और सर्च रिजल्ट दिखाने की प्रक्रिया में भी कुछ बदलाव करना भी शामिल है. उदाहरण के तौर पर गूगल में कोरोनावायरस से जुड़ा कुछ सर्च करने पर एक एसओएस अलर्ट जाता है जिससे विश्वसनीय सूचना से जुड़ा डैशबोर्ड ही सामने आता है.

3. सूचना के प्रवाह में बदलाव: इसमें न्यूज फीड पर कंटेंट की डाउन रैंकिंग, विज्ञापन रोकना या हटाना, पब्लिक हेल्थ अथॉरिटीज के वैरीफाइड चैटबोट दिखाना, कंटेंट मॉडरेशन क्यू को प्राथमिकता देना और यूजर को भ्रामक सूचना के साथ उसके इंटरैक्शन के बारे में सूचित करना शामिल है. उदाहरण के तौर पर इंस्टाग्राम दावा करता है कि वह ऐसे किसी भी कंटेंट को डाउनरैंक कर देगा जिसे किसी थर्ड पार्टी फैक्ट चेकर की तरफ से गलत बताया जा रहा हो. ऐसे झूठे दावों और साजिशपूर्ण सिद्धांतों को हटा देगा जिसे किसी प्रमुख ग्लोबल हेल्थ अर्गनाइजेशन की तरफ से भ्रामक बताया जाए.

4. नीतिगत बदलाव: नीतियों को लेकर इन प्लेटफॉर्म की प्रतिक्रिया एक समान नहीं है. ज्यादातर ने या तो कोविड-19 को लेकर विशेष तौर पर नए सिरे से नीतियां बनाई हैं या मौजूदा नीतियों में कुछ सुधार किया है. वहीं कुछ ने नई नीतियां तो नहीं बनाई हैं लेकिन अपनी मौजूदा नीतियों को ही इस पर लागू कर रहे हैं.

इस संबंध में व्यापक परिप्रेक्ष्य में सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म की प्रतिक्रिया में एक भिन्नता है (जैसा नीचे दी टेबल दर्शाती है). और यह देखते हुए कि आने वाले समय में कोरोनावायरस को लेकर इन्फॉर्मेशन डिसऑर्डर बढ़ता ही रहेगा, इन नीतियों पर अमल भी पूरे जोरशोर से होते रहने की प्रबल संभावना है.


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इन्फॉर्मेशन डिसऑर्डर पर यूजर की प्रतिक्रिया

अनिश्चितता का यह दौर विभिन्न प्लेटफॉर्म पर सूचनाओं के प्रसार के लिए खासा समय और जगह दोनों ही मुहैया करा रहा है. कोविड-19 के इलाज के संदर्भ में ऐसे कंटेंट पर इंटरैक्शन को आगे बढ़ाने वाले दो माध्यम हो सकते हैं – एडवारटाइजिंग और इंगेजमेंट. ज्यादातर प्लेटफॉर्म में कोरोनावायरस के इलाज को लेकर भ्रामक सूचनाओं वाले विज्ञापनों पर रोक की नीति लागू है. और अगर भारतीय परिप्रेक्ष्य में बात करें तो ऐसा जरूरी नहीं है कि ऐसे विज्ञापनों का इंटरैक्शन बड़े पैमाने पर होता हो.

यद्यिप दूसरी कैटेगरी यानी इंगेजमेंट पर विचार करना जरूरी है. इसमें सुव्यवस्थित के साथ-साथ कृत्रिम इंटरैक्शन दोनों शामिल हैं (किसी टॉपिक को ट्रेंड कराने के लिए पोस्ट में जानबूझकर किए गए बदलाव आदि). कई बार तो इनमें अंतर करना भी मुश्किल हो जाता है. यहां तक कि जब मोदी सरकार पतंजलि को कोरोनिल को कोविड-19 के इलाज के तौर पर प्रचारित न करने का निर्देश दे चुकी है, सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म की शुरुआती पड़ताल बताती है कि यूजर्स को सूचना के अधिकृत स्रोत की तरफ इंगित करने की इच्छा दर्शाने के बावजूद भ्रामक हैशटैग को ट्रेंड करने से रोकने और स्वास्थ्य संबंधी दुष्प्रचार फ्लैग/रिमूव करने में कुछ खास कोशिश नहीं की गई.

कोरोनिल पर सोशल मीडिया में कैसी प्रतिक्रिया रही

चर्चाओं के तुलनात्मक अध्ययन के लिए ‘कोरोनावायरस’ और ‘कोरोनिल शब्दों’ को संदर्भ के तौर पर लिया गया:

फेसबुक

खबर लिखे जाने तक न तो कोरोनावायरस से जुड़ी सूचना का कोई सुझाव और न ही कोई पोस्ट फ्लैग की हुई मिली.

इंस्टाग्राम

विश्वसीय सूचना देने का कोई संकेत सामने नहीं आया. यह लिखे जाने तक कोई पोस्ट फ्लैग मार्क की हुई नहीं दिखी.

टिकटॉक

‘लर्न द फैक्ट’ सेक्शन में ऐसी कोई जानकारी नहीं मिली.

निजी पोस्ट पर कोविड-19 से जुड़ी जानकारियां नहीं नज़र आईं.

ट्विटर

‘नो द फैक्ट्स’ फीचर में कोई उत्साह नहीं दिखा.

कुछ पोस्ट रिमूव की गई दिखीं लेकिन यह स्पष्ट नहीं हो पाया कि किस नीति के तहत यह कदम उठाया गया. संभवत: यह यूजर के कहने का नतीजा है.

शेयरचैट

इलाज से जुड़ा टॉपिक ट्रेंड कर रहा था. यद्यपि इसकी अनदेखी करने की कोशिशें साफ नज़र आई.

गूगल

कोविड-19 इन्फॉर्मेशन बार का डिस्प्ले नहीं किया गया.

यूट्यूब

सर्च रिजल्ट में कोविड-19 इन्फॉर्मेशन सेक्शन ऊपर नहीं दिखाया गया.


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कई स्तर पर चुनौतियां

अगर वह किसी हैशटैग विशेष पर कार्रवाई करते हैं तो भी समस्या हल होने वाली नहीं है. इससे जुड़े संदर्भ/ट्रेंड मसलन बाबा रामदेव/पतंजति/आयुर्वेद आदि— इस तरह का कंटेंट यूजर के सामने लाते रहेंगे. यह परिदृश्य दर्शाता है कि भ्रामक सूचनाएं और दुष्प्रचार रोकने की कोशिश में इन प्लेटफॉर्म को किन चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है. सैकड़ों देशों से ऑपरेट होने से इसमें बहुत सारी भाषाओं और भिन्न स्थानीय संदर्भ भी जुड़ जाने के कारण चुनौतियां और भी बढ़ जाती हैं, खासकर इसलिए भी क्योंकि ये प्लेटफॉर्म खुद उत्तर अमेरिका और पश्चिमी यूरोप को लेकर खासी रुचि दर्शाते हैं.

क्या ये प्लेटफॉर्म हर स्थिति में कार्रवाई कर सकते हैं? क्या उन्हें ऐसा करना चाहिए? सरकार इसके लिए नियम-कायदे क्यों नहीं तय करती है? क्या प्लेटफॉर्म के लिए अकेले काम करना कारगर है या फिर साथ मिलकर? यह बेहद अहम सवाल हैं. जब हम सोशल मीडिया के ज्यादा दखल की बात करते हैं तो इसका आशय उन्हें खुद को सच्चाई का निर्धारक मानने और ज्यादा नियंत्रण की छूट देना है. दूसरी तरफ अगर सरकार इन प्लेटफॉर्म पर ज्यादा नियंत्रण लागू करती है तो बोलने और अभिव्यक्ति की आजादी पर दूरगामी असर पड़ेगा.

ये प्लेटफॉर्म अगर इन्फॉर्मेशन डिसऑर्डर की किसी एक श्रेणी से निपटने के लिए हस्तक्षेप बढ़ाते हैं तो यह व्यवहार स्वैच्छिक रूप से या दबाव के तहत अन्य क्षेत्रों पर भी लागू होगा. अगर ये अलग-अलग काम करते हैं तो इन्फॉर्मेशन डिसऑर्डर में व्यापक भिन्नता हमारी परेशानी बढ़ा देगी. अगर वे एकजुट होकर बहुत अच्छा काम करते हैं तो हमें संगठित तथ्यों पर निर्भर रहना होगा. हम यहां से किस तरह आगे बढ़ते हैं, रामदेव की कोरोनिल के मामले में अपनाई गई प्रक्रिया के संदर्भ में, ये राज्यों, इन प्लेटफॉर्म और समाज के रिश्तों पर खासा असर डालेगा.

(रोहन सेठ और प्रतीक वाघरे तक्षशिला इंस्टीट्यूट में पॉलिसी एनालिस्ट हैं. ये उनके निजी विचार हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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1 टिप्पणी

  1. कोरोनिल पर रोक हमारे हिसाब से गलत है ,विदेशी एलोपैथिक फार्मा कंपनियाँ कुछ भी दवा बनाकर launch कर देती है कोई प्रश्न नहीं उठता जबकि ईन दवाओं के गंभीर साईडईफेक्ट होते है, कोरोनिल का कोई साईडईफेक्ट नहीं है उल्टा यह फायदेमंद है फिर भी सरकारी तंत्र के द्वारा चौतरफा विरोध को जनता भाप चूकी है,जनता जान चूकी है कि विदेशी फार्मा कंपनियो के इसारे से ये सब हो रहा है,विरोध कोरोनिल का नहीं अपितु विरोध स्वदेशी आयुर्वेद का है,जनता कोरोनिल के बारें में बाबा रामदेव से सहमत है क्योंकि इस देश की जनता रामदेव का विश्वास करती है,जनता यह भी जानती है कि बिकी मीडिया और भ्रष्ट सरकारी तंत्र कोरोनिल व आयुर्वेद को रोकने की पूरी कोशिश करेंगा,

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