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Thursday, 19 December, 2024
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समलैंगिक शादियों की मान्यता और पंजीकरण की कानूनी लड़ाई जैसे मुद्दों को कैसे सुलझाएगा सुप्रीम कोर्ट

न्यायालय ने अपने फैसले में कहा था कि एलजीबीटीक्यू समुदाय के सदस्यों को भी संविधान में प्रदत्त मौलिक अधिकारों के तहत गरिमा के साथ जीने का हक है.

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समलैंगिक रिश्तों को अपराध के दायरे से बाहर करने की न्यायिक व्यवस्था के बाद से ही इस समुदाय में होने वाले विवाहों को मान्यता देने और इससे जुड़े दूसरे अधिकारों के मुद्दों के समाधान की जरूरत महसूस की जा रही है.

केन्द्र सरकार का अभी तक यह तर्क कि हमारे देश के कानून समलैंगिक विवाह की अनुमति नहीं देते हैं क्योंकि भारतीय कानून व्यवस्था में सिर्फ जैविक पुरुष और जैविक महिला के बीच ही विवाह हो सकता है.

भारतीय परिवेश में यह विवाह स्वीकार नहीं 

समलैंगिक रिश्तों में हो रहे विवाहों की मान्यता और इनके पंजीकरण का मसला लंबे समय से न्यायपालिका में लंबित है. इलाहाबाद हाई कोर्ट पहले ही ऐसे विवाह को मान्यता देने से इंकार कर चुका है जबकि दिल्ली हाई कोर्ट अभी भी इस पर विचार कर रहा है.

हाई कोर्ट में दलील दी गई है कि दुनिया के कई देशों में समलैंगिक विवाहों को कानून ने मान्यता दे रखी है लेकिन भारत में ऐसे विवाहों को मान्यता नहीं है और न ही ऐसे विवाहों का पंजीकरण ही हो रहा है.

इस समय दुनिया के 31 देशों ने अपने यहां समलैंगिक विवाहों को मान्यता प्रदान कर रखी है. इन देशों में अमेरिका, स्पेन, दक्षिण अफ्रीका, नार्वे, स्वीडन, ब्रिटेन, जर्मनी, आस्ट्रेलिया, ऑस्ट्रिया, ताइवान, नीदरलैंड, फिनलैंड, मैक्सिको, बेल्जियम, अर्जेन्टीना, ब्राजील, फ्रांस, न्यूजीलैंड, माल्टा और चिली आदि देश शामिल हैं.

इलाहाबाद हाई कोर्ट पहले ही दो वयस्क महिलाओं द्वारा स्वेच्छा से किए गए विवाह को मान्यता देने से इंकार कर चुका है. इस संबंध में हाई कोर्ट ने एक युवती की मां की बन्दी प्रत्यक्षीकरण का निपटारा कर दिया था.

इस मामले में उत्तर प्रदेश सरकार ने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि हमारे देश की व्यवस्था भारतीय संस्कृति, धर्म और भारतीय विधि के अनुसार चलती है जिसमे विवाह एक पवित्र संस्कार माना गया है जबकि दूसरे देशों में यह एक अनुबंध होता है.

राज्य सरकार ने तर्क दिया था कि हिन्दू विवाह अधिनियम में भी एक विवाह के लिए एक पुरुष और एक स्त्री की बात कही गयी है. स्त्री पुरुष के अभाव में भारतीय परिवेश में यह विवाह स्वीकार नहीं किया जा सकता है. यहां तक कि मुस्लिम, बौद्ध, सिख और जैन धर्म आदि में भी समलैंगिक विवाह मान्य नहीं है.

दिल्ली हाई कोर्ट में भी समलैंगिक जोड़ों के विवाह के पंजीकरण और उन्हें मान्यता देने के सवाल पर कम से कम आठ याचिकाएं लंबित हैं.

इस प्रकरण में अब सेवा न्याय उत्थान फाउंडेशन नाम का एक हिंदू संगठन भी कूद पड़ा है. इस संगठन का कहना है कि हिन्दू विवाह कानून के अंतर्गत समलैंगिक विवाहों को अनुमति नहीं दी जानी चाहिए क्योंकि ऐसा करना हिन्दू समाज के धार्मिक अधिकारों में हस्तक्षेप होगा.

समलैंगिक जोड़े चाहते हैं कि उनके विवाह को मौलिक अधिकार के रूप में कानूनी मान्यता प्रदान की जाए और इसके लिए हिन्दू विवाह कानून, विशेष विवाह कानून और विदेशी विवाह कानून में संशोधन के लिए उचित निर्देश दिये जाएं ताकि उनकी शादी का पंजीकरण हो सके. लेकिन केंद्र सरकार इसके लिए तैयार नहीं है. वह इस विषय पर व्यापक मंथन के बाद ही किसी नतीजे पर पहुंचना चाहती है.

इन सभी मामलों में उच्चतम न्यायालय की संविधान पीठ के छह सितंबर, 2018 के नवतेज सिंह जोहर और अन्य और यूनियन ऑफ़ इंडिया प्रकरण में दी गयी व्यवस्था को आधार बनाया है. इस फैसले में न्यायालय ने वयस्कों द्वारा स्वेच्छा से समलैंगिक संबंध स्थापित करने को भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के तहत अपराध के दायरे से बाहर कर दिया था.

न्यायालय ने अपने फैसले में कहा था कि एलजीबीटीक्यू समुदाय के सदस्यों को भी संविधान में प्रदत्त मौलिक अधिकारों के तहत गरिमा के साथ जीने का हक है. समाज और लोगों के नजरिये में बदलाव लाने पर जोर देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि समलैंगिकता एक जैविक तथ्य है और इस तरह के लैंगिक रुझान वाले समुदाय के सदस्यों के साथ किसी भी प्रकार का भेदभाव उनके मौलिक अधिकारों का हनन है.


यह भी पढ़े: समलैंगिक विवाह का मामला कानूनी दांव-पेंच में फंसा, हिन्दू विवाह कानून पंजीकरण के विचार का विरोध शुरू


कुछ सवालों का समाधान न्यायपालिका को खोजना होगा

संविधान पीठ के इस निर्णय के बाद नवंबर 2019 में ही संसद ने ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) विधेयक को मंजूरी दे दी थी. यह कानून जनवरी, 2020 से देश में लागू है.

सुप्रीम कोर्ट के फैसले और ट्रांसजेंडर समुदाय के अधिकारों की रक्षा के लिए जनवरी, 2020 से देश में नया कानून लागे होने के बाद से ही समलैंगिक जीवन व्यतीत करने वाले समुदाय के सदस्यों ने अपने विवाह को मान्यता देने के लिए कानून में उचित संशोधन की मांग शुरू कर दी.

हालांकि, धारा 377 के तहत ऐसे संबंधों पर सुनवाई के दौरान केंद्र सरकार ने कहा था कि ऐसे रिश्तों को अपराध के दायरे से बाहर करने पर कई समस्या पैदा हो सकती हैं. सरकार ने संकेत दिया था कि भविष्य में समलैंगिक जीवन गुजार रहे जोड़ों की शादी, उनके द्वारा बच्चा गोद लेने की प्रक्रिया, घरेलू हिंसा और संबंध विच्छेद होने पर गुजारा भत्ता जैसे मुद्दे भी उठेंगे और फिर इन सवालों का समाधान भी न्यायपालिका को ही खोजना होगा.

इस बीच, राकांपा की सांसद सुप्रिया सुले ने समलैंगिक विवाहों को बगैर किसी बाधा के संपन्न कराने के लिए विशेष विवाह अधिनियम, 1954 की धारा चार में संशोधन के लिए लोकसभा में एक निजी विधेयक पेश किया है.

सुप्रिया सुले चाहती हैं कि विशेष विवाह अधिनियम की धारा चार में संशोधन के माध्यम से यह प्रावधान किया जाए कि अगर दो पुरूष विवाह करते हैं तो उनकी आयु 21 साल और दो महिलाओं के विवाह करने की स्थिति में उनकी आयु 18 साल निर्धारित की जाए. साथ ही इस कानून में जहां जहां ‘पति-पत्नी’ का जिक्र है वहां ‘जोड़े’ शब्द का इस्तेमाल किया जाए.

सुप्रिया ने इस विधेयक में भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के संदर्भ में समलैंगिक रिश्तों के बारे में संविधान पीठ के 2018 के फैसले का ही जिक्र किया है. वह चाहती हैं कि इस फैसले के परिप्रेक्ष्य में एलजीबीटीक्यू समुदाय को विवाह का समान अधिकार मिलना चाहिए.

सुले ने विधेयक में जस्टिस केएस पुत्तास्वामी (रेटड) और यूनियन ऑफ़ इंडिया मामले में न्यायमूर्ति धनन्जय वाई चंद्रचूड़ की टिप्पणी का भी उल्लेख किया है जिसमें कहा गया था कि परिवार, विवाह, संतान उत्पत्ति और यौनाचार व्यक्ति की गरिमा का हिस्सा है. वैसे भी किसी व्यक्ति की निजता उसके इस अनुलंघनीय अधिकार को मान्यता देता है कि किस तरह से इस स्वतंत्रता का इस्तेमाल किया जाए.

सुप्रिया की तरह ही द्रमुक के सांसद डा एस सेंथिल कुमार ने भी ‘एलजीबीटीक्यू व्यक्तियों के समान अधिकारों का संरक्षण नाम से एक निजी विधेयक पेश किया है. इस विधेयक में इस समुदाय के सदस्यों को 12 अधिकार प्रदान करने का सुझाव दिया गया है. इनमें गोद लेना, अभिभावक का अधिकार, सरोगेसी,एलजीबीटीक्यू आई को परिवार के रूप में मान्यता, विवाह, मातृत्व संबंधी लाभ और सेना में नौकरी करने का अधिकार देना शामिल है.

चूंकि इस समय देश में विभिन्न धर्मों के कानूनों में समलैंगिक जोड़ों के विवाह का कोई प्रावधान नहीं है, इसलिए भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के तहत समलैंगिक जोड़ों के स्वेच्छा से यौनाचार को अपराध के दायरे से बाहर करने के फैसले के बाद उत्पन्न इन सवालों का समाधान खोजने की जिम्मेदारी भी न्यायपालिका पर ही आ गई है.

अब देखना यह है कि समलैंगिक विवाहों की मान्यता और इनके पंजीकरण को लेकर छिड़ी कानूनी लड़ाई में विभिन्न मुद्दों को न्यायपालिका किस तरह सुलझायेगी.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, जो तीन दशकों से शीर्ष अदालत की कार्यवाही का संकलन कर रहे हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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