3 जनवरी को जयपाल सिंह मुंडा को याद करने के साथ वह विमर्श भी एक बार फिर शुरू हो गया कि जयपाल सिंह झारखंड आंदोलन के नायक थे या प्रतिनायक. धर्मांतरण बिल के पास होने के बाद आदिवासी समाज में ईसाई और सरना आदिवासी का जो विवाद गहराया है, उसने इस विमर्श को और तीखा बनाया है, जो अशोभनीय है.
कुछ बातें समझने की है. आदिवासी समाज व्यक्ति पूजा में विश्वास नहीं करता. वह अपने पूर्वजों को, अपने जन नायकों को याद तो करता है, लेकिन उसे देवता नहीं बनाता. देवता बनाना तो दूर, खामखां का महिमामंडन भी नहीं करता. वह तो मान कर चलता है कि उसके पूर्वज उनके साथ ही रहते हैं. उनके सुख दुख के साक्षी बनते हैं. आदिवासी समाज व्यवस्था के लंबे इतिहास में बहुत ही गिने चुने लोग ही हैं, जो उनके गीतों में कभी कभार आते हैं. हमने कुछ गीतों में सिधो, कान्हू, चांद, भैरव आदि जैसे जन नायकों के नाम सुने हैं. बिरसा भी याद किये गये हैं. लेकिन आदिवासी समाज उन्हें उस तरह महिमामंडित नहीं करते जैसे गैर आदिवासी समाज अपने नायकों को करता है.
इतनी सी भूमिका इसलिए कि हम समझ सकें कि क्यों आदिवासियों के इतिहास में महापुरुष नहीं के बराबर मिलते हैं. आजादी के बाद के दौर के जिन जन नायकों को याद किया जाता है, उसमें शामिल हैं जयपाल सिंह, बाघुन सुम्बरई, शिबू सोरेन, एनई होरो, रामदयाल मुंडा आदि. लेकिन ये सभी अपने समाज के थोड़े विशिष्ट व्यक्ति हैं, उससे अधिक नहीं. बिरसा मुंडा या सिधो-कान्हू को भगवान बना देना या उनकी मूर्ति बना कर स्थापित करना हाल के वर्षों की परिघटना व बहिरागत संस्कृति का प्रभाव है.
मुख्यधारा का इतिहासकार आदिवासी नेताओं और उनके संघर्षों को नजरअंदाज करने की ही रणनीति पर काम करता रहा है और हालिया इतिहास के आदिवासी नायकों की छवि को बिगाड़ने की हर चंद कोशिश की जाती रही है, चाहे वे शिबू सोरेन हों या जयपाल सिंह. और वजह यह कि मृत नायकों पर श्रद्धा का फूल चढ़ा कर वे राजनीति कर सकते हैं, लेकिन जीवित जन नायक तो उनकी सत्ता को चुनौती देते हैं.
कैसी विडंबना है कि भाजपा का हर नेता उलिहातू जाकर बिरसा की मूर्ति पर फूल चढ़ाता है, बरहेट जाकर सिधो कान्हू के शहीद स्थल पर उनके साथ सेल्फी तो लेता है, लेकिन व्यवहार में आदिवासी समाज की स्वायत्तता को मिटाने की, उनके जीवनाधारों को छीनने की हर चंद कोशिश हो रही है. वे सीएनटी, सीपीटी कानून को समाप्त करने में लगे हुए हैं, चाहे वे मोदी हों या रघुवर दास.
हालिया राजनीति में इसके सबसे बड़े शिकार जयपाल सिंह और शिबू सोरेन हुये हैं. शिबू सोरेन को कभी अपने ही सचिव की हत्या के आरोप में फंसाने की कोशिश होती है, कभी चिरुडीह कांड में. वैसे, आज हम जयपाल सिंह की चर्चा करेंगे.
जयपाल सिंह जितने बड़े कद काठी के नेता थे, उतनी जानकारी मुख्यधारा के बौद्धिक समाज में उनके बारे में नहीं. किसी से आप पूछेंगे तो तीन चार लाइन में उन्हें निपटा दिया जायेगा. वे हॉकी के एक महान खिलाड़ी थे. झारखंड पार्टी के नेता थे. और जो सबसे लोकप्रिय प्रवाद उनके बारे में है, वह यह है कि उन्होंने झारखंड आंदोलन को अपनी विलासिता के लिए बेच दिया.
दरअसल, आदिवासी समाज के बारे में ही मुख्यधारा के समाज ने एक खास छवि बना रखी है. वह भोला है, मासूम है, मेहनती है, नाचता गाता है और शराब के नशे में टुन्न रहता है. लेकिन यह एक क्रूर सोच है. आप उसे मुख्यधारा के इतिहासकारों की एक गहरी साजिश भी कह सकते हैं. वरना एक ऐसा शख्स जो हॉकी के महानतम खिलाड़ियों में से एक है, एक छोटे से आदिवासी गांव से निकल कर जो ऑक्सफोर्ड से अर्थशास्त्र का गोल्डमेडलिस्ट बनता है, जो कांग्रेस की लोकप्रियता को चुनौती दे 1952 और 57 के विधानसभा चुनाव में 34 सीटें जीत कर कांग्रेस का सफाया कर देता है, जो संविधान सभा के सदस्य के रूप में अपने समानांतर अंबेडकर सहित किसी अन्य नेता से कम प्रखर नहीं, को तीन चार पंक्तियों में निपटा देना एक क्रूर मजाक नहीं तो क्या है?
आज हम आपसे संक्षेप में सिर्फ उस आरोप की चर्चा करेंगे, जिसमें कहा जाता है कि उन्होंने कांग्रेस के साथ पार्टी का विलय कर बहुत बड़ी भूल की. दरअसल, झारखंड की आज की राजनीति और उसकी नीयति को समझने के सूत्र वहीं से निकलते हैं.
1957 के चुनाव में जयपाल सिंह की झारखंड पार्टी को 34 सीटें मिली थी, जो किसी भी झारखंडी पार्टी के लिए आज भी कल्पनातीत है. लेकिन 62 के चुनाव में उनकी संख्या घट कर 22 हो गई और सांसदों की संख्या भी पांच से घट कर चार हो गई. और इन 22 में से भी 12 विधायकों को कांग्रेस ने खरीद लिया. यानी, वही खेल जो आज भी कभी भाजपा खेलती है, कभी कांग्रेस. और गहरी निराशा के इन्हीं क्षणों में उन्होंने नेहरू के वादों पर भरोसा कर कांग्रेस के साथ अपनी पार्टी का विलय कर दिया. हालांकि, नेहरू के जीवन काल में ही उन वादों को सिरे से नकारा जाने लगा.
क्या यह जयपाल सिंह की विलासिता थी? यह एक त्रासद कथा है झारखंड की. दरअसल, झारखंड का इलाका मूलतरू आदिवासियों का था. लेकिन धीरे-धीर उस आदिवासी समुदाय और उनके साथ सदियों से रहने वाने अन्य समुदायों में विभाजन होना शुरू हो गया. कुर्मी आदिवासियत से मुक्ति चाहते थे. दलित भी हिंदू वर्णव्यवस्था के सबसे निचले पायदान पर रहने के बावजूद खुद को आदिवासियों से श्रेष्ठ समझने लगे. यहां की मुस्लिम आबादी भी आदिवासी समाज का ही हिस्सा थी. लेकिन मुसलमान बनने के बाद उनकी पहचान बदल गई.
ये झारखंडी समाज की दरारे हैं, जिसे बाहर से आने वाली हर पार्टी उभारने की कोशिश करती है और आसानी से उसमें सफल भी हो जाती. यहां के कुड़मियों को समझाया जाता है कि वे तो शिवाजी के वंशज हैं. कोयरियों को समझाया जाता है कि वे तो मध्य बिहार से आये प्राणी हैं. मुसलमान तो धर्म के आधार पर अपना भविष्य बाकी मुसलमानों के साथ देखने लगता है. 52 और 57 के चुनावों में बुरी तरह शिकस्त खाने के बाद कांग्रेस अपनी शातिर चालें चलने लगी और वह सब किया जो आज भाजपा कर रही है. आप जयपाल सिंह की बेबसी को समझ सकते हैं. जिन 12 विधायकों को कांग्रेस ने तोड़ा उनमें से अधिकतर झारखंड के ही गैर आदिवासी थे.
आज भी बहिरगत राजनीति उसी साजिश को लेकर चलती है. कभी उसके शिकार शिबू सोरेन होते हैं, कभी बाबूलाल मरांडी. याद है न बाबूलाल के टिकट पर जीते अधिकतर गैर आदिवासी विधायक उन्हें छोड़ पिछली बार भाजपा में चले गये. शिबू सोरेन ने राजद से समर्थन वापस लिया तो महतो विधायक उनके टूल बन गये. यही है आदिवासी नेताओं की लाचारी की अंदरूनी कहानी.
इसलिए जयपाल सिंह मुंडा की राजनीति का आकलन इन विशिष्ट स्थितियों में करना चाहिए. उन्होंने जो राजनीतिक फैसले किए उनके पीछे की मजबूरी को समझिए.
तो, जयपाल सिंह की मूर्ति बना कर उनकी पूजा भले न करें, उन्हें कम से कम सम्मानपूर्वक याद करें.
(लेखक जयप्रकाश आंदोलन से जुड़े रहे. ‘समर शेष है’ उनका चर्चित उपन्यास है.)
इस लेख में भी न्याय नही किया गया, जयपाल सिंह के साथ। उनके व्यक्तित्व-कृतित्व पर व्यापक चर्चा करने के बजाय, इधर-उधर की ज्यादा हाकी गई है .. दुखद है यह।
झारखंण्ड की बदहाली का आरोप जयपाल सिंह मुण्डा ५ लगाना उचित नहीं।काँग्रेस या भाजपा नहीं यहाँ के नेता खुद जिम्मेदार हैं।क्या पी० वी० नरसिम्ह राव ने सरकार बचाने के लिए पाँच सांसद नहीं खरीदे,लालू ने अपने अल्पमत में आयी सरकार को बचाने के लिए झारखंण्ड पार्टी के विधायक नहीं खरीदे? जब झारखंण्ड राज्य का गठन हुआ ,तो केंद्र में भा०ज०पा० की ही सरकार थी।मधु कोडा ने आदिवासी होकर झारखंण्ड राज्य के साथ क्या किया?
आदिवासी नेता चंन्द पैसे में बिकते रहेंगे तो अदिवासी की आवाज हमेशा दबी रहेगी।20वर्षों तक आदिवासी मुख्यमंती
रहकर स्थानीय मजदुरों को रोजगार तक नहीं दे पाये चे नेता।हेमंत सोरेन का झुकाव भी काँग्रेस की तरफ ज्यादा है।अब खुदा ही खैर करे।
आपने कौन सा न्याय कर दिया यह वाहियात पोस्ट लिख के! ऐसा लगता है कि पोस्ट में जयपाल सिंह के बारे में बताने की बजाय भाजपा के प्रति द्वेष प्रदर्शित करना लेखक का धेय है। रही आदिवासियों की बात तो मिशनरियों द्वारा फैलाई जा रही ईसाइयत भी उनके दुर्दशा की एक प्रमुख वजह है। अधिकांश धर्मांतरित आदिवासी ही रिज़र्वेशन का लाभ उठा ले जाते हैं पर आपके जैसे लेखक इस मुद्दे पर सुविधाजनक चुप्पी साध जाते हैं। सुधर जाइये अब जनता बकवास पढ़ना पसंद नहीं करती।