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Thursday, 21 November, 2024
होममत-विमतहिन्दू शायर जगन्नाथ आजाद ने रचा था पाकिस्तान का पहला कौमी तराना, कैसे उसने इसे हटा दिया

हिन्दू शायर जगन्नाथ आजाद ने रचा था पाकिस्तान का पहला कौमी तराना, कैसे उसने इसे हटा दिया

धर्माधारित राज्य किसी के नहीं होते. न अपनों के और न बेगानों के. यही कारण है कि अब पाकिस्तान को अपने संस्थापक द्वारा एक गैरमुस्लिम शायर से लिखवाया गया कौमी तराना तक कुबूल नहीं.

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क्या आपको याद है कि 1947 में देश के विभाजन के बाद अस्तित्व में आए पाकिस्तान का पहला कौमी तराना उस वक्त के उर्दू के लाहौर निवासी बेहद मकबूल हिन्दू शायर जगन्नाथ आजाद ने रचा था? नहीं याद तो कोई बात नहीं, आज के धार्मिक संकीर्णताओं में जकड़े पाकिस्तान को भी यह बात याद रखना गवारा नहीं. हालांकि, हिन्दू-मुस्लिम वैमनस्य के उन दिनों में यह बहुत बड़ी बात थी कि आजाद ने पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना की इस इच्छा का आदर किया कि यह तराना कोई बड़ा गैरमुस्लिम और धर्मनिरपेक्ष हिन्दू शायर ही रचे, मुस्लिम नहीं.

दरअसल, इस तरह जिन्ना दुनिया को यह संदेश देना चाहते थे कि पाकिस्तान बना भले ही धर्म के नाम पर है, उसमें धार्मिक भेदभाव के लिए कोई जगह नहीं होगी. लेकिन जगन्नाथ आजाद का उक्त तराने की रचना के बाद का पाकिस्तानी कृतघ्नता के बीच बीता जीवन इस बात का मुखर गवाह है कि पाकिस्तान बनाने के लिए हद से गुजर जाने की जिन्ना की गलती उनके वक्त में तो उनके इस संदेश पर भारी पड़ती ही रही, उनके दुनिया को अलविदा कहने के बाद के पाकिस्तानी हुक्मरानों ने भी उसका गला दबाने में कुछ भी उठा नहीं रखा.

बहरहाल, आज जगन्नाथ आजाद की पुण्यतिथि पर यह याद करना दिलचस्प है कि पाकिस्तान बनना तय हो गया तो जिन्ना ने अंग्रेजों से सत्ता हस्तांतरण के मुश्किल से हफ्ते भर पहले, 9 अगस्त, 1947 को रेडियो लाहौर में काम करने वाले एक शख्स की मार्फत आजाद से इस तराने की रचना का आग्रह किया तो यह ताकीद भी की थी कि उनके पास उसको मुकम्मल करने के लिए केवल पांच दिन हैं.


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जिन्ना का आग्रह तुरंत मान लिया था

यह शख्स आजाद का दोस्त था और चाहता था कि भावी पाकिस्तान की सबसे बड़ी शख्सियत की ओर से दिये गये इस सुनहरे मौके को वे बिना हील-हुज्जत फौरन से पेश्तर स्वीकार कर लें. दोस्त की निगाह में यह बहुत बड़ी बात थी कि लाहौर में मौलाना ताजवर नजीबाबादी, सैयद आबिद अली ‘आबिद’, सूफी गुलाम मुस्तफा ‘तबस्सुम’, अब्दुल मजीद ‘सालिक’, हफीज जालंधरी और इन सबसे ऊपर फैज अहमद फैज जैसे बड़े व नामचीन शायरों के रहते जिन्ना पाकिस्तान के कौमी तराने के सर्जक के तौर पर इतिहास में नाम दर्ज कराने का पहला मौका आजाद को देना चाहते हैं. लेकिन आजाद हील-हुज्जत से परहेज नहीं कर सके. उन्होंने दोस्त से इस बाबत थोड़ी बहस भी की. मगर अंततः उसकी बात मान गये. फिर उन्होंने जो तराना लिखा, उसके बोल थे, ‘ऐ सरजमीन-ए-पाक! जर्रे हैं तेरे आज सितारों से ताबनाक! रौशन है कहकशां से कहीं आज तेरी खाक.’

कहते हैं कि जिन्ना को तराने की ये पंक्तियां इतनी पसंद आयीं कि उन्होंने फौरन उसे मंजूरी दे दी. 14 अगस्त, 1947 की रात यह पहली बार रेडियो पाकिस्तान से प्रसारित हुआ और जब तक जिन्ना इस दुनिया में रहे, पाकिस्तान का कौमी तराना बना रहा. लेकिन उनकी मृत्यु के बाद संकीर्णतावादी पाकिस्तानी शासकों ने नये कौमी तराने की तहरीक शुरू कर दी. क्योंकि यह तथ्य उन्हें रास नहीं आ रहा था कि मुस्लिम राष्ट्र पाकिस्तान एक गैरमुस्लिम शायर के रचे तराने को अपना कौमी तराना माने.

यह लगभग वैसी ही बात थी जैसे बंटवारे के बाद के बेहद खराब हालात में लाहौर में जीना दूभर हो जाने के बाद ‘धर्मनिरपेक्ष’ आजाद को अपने प्यारे शहर का मोह छोड़कर भारत चले आना पड़ा था और उन्हें इस आधार पर भी सुरक्षा नहीं मिल पाई थी कि वे उस धर्माधारित राष्ट्र के कौमी तराने के रचयिता हैं.

मुस्लिम शायर से नया तराना लिखवाया

कहते हैं कि जिन्ना का भी ‘अपने सपनों के पाकिस्तान’ से मोहभंग होते देर नहीं लगी थी और उन्होंने उसकी नेशनल असेंबली में अपने पहले भाषण में इस बात पर जोर दिया था कि उसे सारे धर्मों व संप्रदायों के लोगों के बिना किसी भेदभाव के रहने लायक मुल्क बनाना है. लेकिन धर्मांधताएं अपने असली रंग में आईं तो उनके दबाव में बाद के पाक शासकों ने अपने संस्थापक की, जिन्हें वे सम्मानपूर्वक ‘कायदेआजम’ कहा करते थे, आखिरी सांस के साथ ही भेदभावरहित पाकिस्तान का रास्ता त्याग दिया. फिर वे कौमी तराने के मामले में ही उनकी सदिच्छा का सम्मान क्यों करते? उन्होंने हफीज जालंधरी से नये कौमी तराने की रचना करवायी और उसे आजाद के तराने का बदल बना दिया. पाकिस्तान के मशहूर पत्रकार हामिद मीर और हुसैन मजरूह की मानें तो इसके बावजूद आजाद का तराना 1954 तक न सिर्फ रेडियो पाकिस्तान से प्रसारित होता रहा बल्कि पाकिस्तान के सरकारी आयोजनों में भी बजाया जाता रहा.

इधर, भारत में एक बार किसी ने आजाद से पूछा कि अब जब आप इस देश में बस गये हैं तो भी क्या आप उस तराने को अपना मानते हैं, तो उन्होंने जवाब दिया था, ‘क्यों नहीं, मैं तो अपनी बातचीत में भी उसका हवाला देता हूं.’

2004 में दिल्ली में आज के ही दिन आजाद के देहांत के बाद पाकिस्तान में उनको लेकर नये सिरे से बहस शुरू हुई तो उनका एक इंटरव्यू सामने आया, जिसमें उन्होंने कहा था, ‘उक्त तराना मैंने लिखा तो पूरा उपमहाद्वीप फसाद की चपेट में था. मैं लाहौर में रहता था और वहां की एक साहित्यिक पत्रिका से जुड़ा था. मेरे तमाम रिश्तेदार हिंदुस्तान जा चुके थे. पर मेरे लिए लाहौर छोड़ना बहुत तकलीफ देने वाली बात थी. लिहाजा मैंने वहीं ठहरने का फैसला किया. दोस्तों ने भी मेरी हिफाजत का जिम्मा लेते हुए मुझ पर लाहौर में ही बने रहने के लिए जोर दिया. लेकिन बाद में दोनों तरफ वहशत के कारण हालात हद से ज्यादा खराब होते चले गये. तब मेरे दोस्तों ने बुझे मन से मुझसे कहा कि अब मुझे हिंदुस्तान हिजरत कर जाना चाहिए क्योंकि वे मेरी हिफाजत करने में खुद को असमर्थ महसूस कर रहे हैं. मैंने दोस्तों के मशवरे पर अमल किया और हिंदुस्तान चला आया.’

हिन्दुस्तान के मुस्लिमों के लिए भी लिखी नज्म

प्रसंगवश, आजादी के समय आजाद ने हिंदुस्तान के मुसलमानों को संबोधित करते हुए भी एक नज्म लिखी थी, जिसकी शुरुआत की पंक्तियां थीं-इस दौर में तू क्यों है परेशा व हेरासां, भारत का तू फरजंद है बेगाना नहीं है. क्या बात है क्यों है मोतजलजल तेरा ईमां, ये देश तेरा घर है तू अस घर का मकीं है! आगे वे इसी नज्म में कहते हैं-गुजरी हुई अजमत का जमाना है तेरा भी. तुलसी का दिलावेज तराना है तेरा भी. जो कृष्ण ने छेड़ा था फसाना है तेरा भी. मेरा ही नहीं है ये खजाना है तेरा भी.

आजाद का जन्म 5 दिसम्बर, 1918 को ईसाखेल में हुआ था, जो अब पाकिस्तान में है. आजाद के पिता तिलोकचंद ‘महरूम’ भी उर्दू के बड़े उस्ताद थे. जन्मस्थली ईसाखेल व क्लोरकोट में आरम्भिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद आजाद ने मियांवाली के राममोहन राय हाईस्कूल से 1933 में मैट्रिक और लाहौर के गॉर्डन कालेज से 1937 में बीए और पंजाब विश्वविद्यालय से 1944 में फारसी में एमए किया था. इसके अगले बरस यानी 1945 में उन्होंने इसी विश्वविद्यालय से एमओएल की परीक्षा भी पास की थी. 1947 में वे लाहौर के डीएवी कालेज में पढ़ाते थे और ‘जयहिंद’ नाम की एक साहित्यिक पत्रिका के सम्पादक मंडल में भी शामिल थे.

बंटवारे के बाद स्थितियां एकदम से प्रतिकूल हो जाने पर शुभचिंतकों की सलाह पर भारी मन से लाहौर छोड़ आये तो भी उनका मन जैसे वहीं अटका हुआ था. वे इस उम्मीद में तमाम जोखिम उठाकर एक बार फिर लाहौर गये थे कि कौन जाने अब हालात बेहतर हो गये हों. लेकिन इस ‘कुसूर’ में उन्हें एक और हिजरत करनी पड़ी.

बंटवारे के बाद भी वे पूरे भारतीय उपमहाद्वीप के शायर बने रहे और लाहौर, कराची, रावलपिंडी, ढाका व चटगांव आदि में समय-समय पर आयोजित होने वाले मुशायरों में आते-जाते रहे. इन मुशायरों में वे कई ऐसी नज्में सुनाते थे, जो उन्होंने पाकिस्तान के हवाले से रची थी. उनकी ऐसी ही एक नज्म का शीर्षक था-15 अगस्त, 1949, जो उनके संग्रह ‘बेकरां’ में शामिल है. उनकी एक और रचना ‘वतन में अजनबी’ भी पाकिस्तान पर ही आधारित थी.

24 जुलाई, 2004 को 85 साल की उम्र में उन्होंने दिल्ली में आखिरी सांस ली तो इतिहास ने अपने किसी पृष्ठ पर लिखा-धर्माधारित राज्य किसी के नहीं होते. न अपनों के और न बेगानों के. यही कारण है कि अब पाकिस्तान को अपने संस्थापक द्वारा एक गैरमुस्लिम शायर से लिखवाया गया कौमी तराना तक कुबूल नहीं, न ही वह उस शायर का देश ही रह गया है. बकौल आजाद: इससे जियादा दौर-ए-जुनूँ की खबर नहीं, कुछ बे-खबर से आप थे कुछ बे-खबर से हम.

(कृष्ण प्रताप सिंह फैज़ाबाद स्थित जनमोर्चा अखबार के संपादक और वरिष्ठ पत्रकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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