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Monday, 23 December, 2024
होममत-विमतऊंचा बोलनेवालों का बोलबाला: यह भारतीय राजनीति का प्रवक्ता युग है

ऊंचा बोलनेवालों का बोलबाला: यह भारतीय राजनीति का प्रवक्ता युग है

स्थिति ये है कि प्रवक्ता को फटाफट या ऊंची आवाज में भड़भड़ बोलना आना चाहिए. उसमें दूसरे दलों के प्रति अवमानना का भाव होना चाहिए और ये क्षमता होनी चाहिए कि वह विरोधियों को चुप करा सके या उन्हें अपमानित कर सके.

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भारतीय राजनीति के ये नए किरदार हैं. ये हर शाम और रात और कभी-कभी दिन में भी सज-धज कर टीवी कैमरों या स्टूडियो में बैठ जाते (इनमें ज्यादातर पुरुष ही हैं) हैं और देश-दुनिया के तमाम विषयों पर चर्चा करते हैं. राष्ट्रीय और राज्य स्तरीय पार्टियों के ये नए पदाधिकारी हैं.

ऐसा नहीं है कि पार्टियों में पहले प्रवक्ता नहीं हुआ करते थे. हाल के दशक में उनकी संख्या में विस्फोट हुआ है और वे ज्यादा नजर आने लगे हैं. पहले पार्टियों में केंद्र और राज्य स्तर पर अक्सर एक प्रवक्ता हुआ करते थे. लेकिन निजी समाचार चैनलों के कुकुरमुत्ते की तरह उग आने के बाद हर चैनलों में बहस और चर्चा के लिए प्रवक्ताओं की जरूरत पड़ी और राजनीतिक दलों ने उस जरूरत को सहर्ष पूरा किया.

टीवी के विस्तार की वजह से आई प्रवक्ताओं की फौज

चैनलों ने राजनीतिक और कई बार आर्थिक और सामाजिक विषयों पर बहस के कार्यक्रम करने का चलन शुरू किया, जिसके लिए सत्ताधारी और उनका संतुलन बनाने के लिए विपक्षी दलों के प्रवक्ताओं को बुलाया जाने लगा. चूंकि देश में अब ज्यादातर घरों में टीवी है और समाचार चैनल भी देखे जाते हैं, इसलिए ओपिनियन मेकिंग में इन चैनलों में होने वाली बहस के महत्व से इनकार नहीं किया जा सकता. यही प्रोग्राम फिर डिजिटल मीडिया पर भी अपलोड किए जाते हैं और ह्वाट्सऐप जैसे मैसेजिंग ऐप और सोशल मीडिया के जरिए ये और आगे तक पहुंच जाते हैं.

यह आश्चर्यजनक है कि ज्यादातर राजनीतिक दलों ने टीवी चैनलों की इस जरूरत को पूरा करने में कोई हिचक नहीं दिखाई. इस जरूरत को देखते हुए जिन पार्टियों में कभी एक प्रवक्ता होते थे, उन्होंने प्रवक्ताओं की पूरी फौज खड़ी कर ली, जिनका काम टीवी बहसों में पार्टी का पक्ष रखना और सरकार की प्रशंसा या निंदा करना और विरोधियों के सवालों का जवाब देना है.

चूंकि ये प्रवक्ता ही पार्टी का पक्ष रखते हुए नजर आते हैं, इसलिए जनता की नजर में प्रवक्ता नाम की संस्था और प्रवक्ताओं का महत्व काफी बढ़ गया है. वे पार्टियों का सार्वजनिक चेहरा बन जाते हैं. इसे देखते हुए ये सवाल पूछना वाजिब होगा कि आखिर वो कौन से आधार हैं जिसे देखकर पार्टियां अपने प्रवक्ताओं का चयन करती है.


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आखिर वे कौन हैं, जिन्हें प्रवक्ता बनाया जाता है?

प्रवक्ता नियुक्त करते हुए क्या पार्टियां इस बात का ध्यान रखती हैं कि इन लोगों को बुनियादी राजनीतिक प्रशिक्षण मिला है? क्या ये देखा जाता है कि उन्होंने राजनीति में कितना समय बिताया है? क्या चुनाव लड़ना या न लड़ना प्रवक्ता चुने जाने का आधार है? क्या ऐसे लोग भी प्रवक्ता बन रहे हैं, जिन्होंने पंचायत से लेकर संसद तक का किसी भी स्तर का न तो चुनाव लड़ा है, और न ही जीता है? क्या उन्हें जनता के बीच काम करने का और पार्टी के मुद्दों को जनता के बीच ले जाने का कोई अनुभव है? क्या उन्हें राजकाज का कोई अनुभव है? उनकी शिक्षा का स्तर क्या है?

कोई ये कह सकता है कि जब पार्टी में नेता बनने के लिए ऐसी कोई शर्त नहीं है, तो प्रवक्ता बनने के लिए कोई शर्त क्यों होनी चाहिए. इसका जवाब ये है कि इन शर्तों को पूरा करने वाले प्रवक्ताओं को पार्टी की विचारधारा ही नहीं, देश और समाज की बेहतर जानकारी होगी और उन्हें ये भी पता होगा कि समाज में अन्य विचार भी मौजूद हैं और उनके साथ संवाद कैसे किया जाना चाहिए. खुद एक राजनीतिक कार्यकर्ता होने के कारण वह दूसरे पक्ष के राजनीतिक कार्यकर्ताओं के प्रति बुनियादी सम्मान का भाव भी रखेगा.

सामाजिक विविधता का अभाव

अभी स्थिति ये है कि प्रवक्ता को फटाफट या भड़भड़ बोलना आना चाहिए. उसकी आवाज ऊंची और तीखी होनी चाहिए और उसमें ये क्षमता होनी चाहिए कि असहनीय शोर और टोकाटोकी के बीच अपनी आवाज का शोर औरों तक पहुंचा सके. उसमें दूसरे दलों और विचारों के प्रति अवमानना का भाव होना चाहिए और उसमें क्षमता होनी चाहिए कि वह विरोधियों को चुप करा सके या उन्हें अपमानित कर सके.

ये भी देखा गया है कि राजनीतिक पार्टियां अपने दलित या आदिवासी नेताओं को पार्टी प्रवक्ता नियुक्त नहीं करती हैं. इतनी बड़ी आवादी की आवाज और उनके चेहरे इसलिए टीवी बहसों में नदारद हैं. ऑक्सफैम और न्यूजलॉन्ड्री के एक सर्वे में पाया गया कि टीवी बहसों में शामिल होने वाले प्रवक्ताओं में 3.1 प्रतिशत दलित और 0.1 प्रतिशत आदिवासी हैं. यहां तक कि जब दलितों या आदिवासियों से जुड़े मुद्दों पर चर्चा होती है, तब भी अक्सर पार्टियों की ओर से सवर्ण समुदाय के ही प्रवक्ता बहस में हिस्सा लेते हैं.

प्रवक्ताओं को अक्सर विषय का ज्ञान नहीं

होना तो ये चाहिए कि पार्टी प्रवक्ता फैक्ट और डाटा के साथ बहस में जाएं और उन्हें ये डाटा पार्टी का रिसर्च डिपार्टमेंट उपलब्ध कराए. लेकिन मेरा निजी अनुभव है कि ज्यादातर पार्टी प्रवक्ता बिना किसी तैयारी के बहस में शामिल होते हैं. समाजशास्त्री के तौर पर मैं अक्सर टीवी बहसों में जाता रहा हूं और मैंने पाया है कि ज्यादातर पार्टी प्रवक्ताओं को चुनाव लड़ने, लोगों के बीच काम करने या शासन-प्रशासन का कोई अनुभव नहीं होता. ये भी देखा गया है कि एक पार्टी का प्रवक्ता जब पार्टी बदलता है तो उसे दूसरी पार्टी अपना प्रवक्ता नियुक्त कर देती है जबकि नए दल के बारे में उसे कुछ भी पता नहीं होता. टीवी एंकरों को भी पार्टी में शामिल होने पर अक्सर प्रवक्ता बना दिया जाता है.

जब ऐसे लोग पार्टी प्रवक्ता बनेंगे तो टीवी बहसों के स्तर का अंदाजा लगाया जा सकता है. इनसे विषयसम्मत, जानकारी वाली बहस की उम्मीद नहीं की जा सकती. ये असहिष्णुता भरी बहस करते हैं और शोर से अपनी कमियों को ढकते हैं. वे दूसरे पक्ष का जवाब नहीं दे पाते, तो हल्ला करते हैं. इसलिए टीवी बहसों में शोर बढ़ रहा है और वहां कोई सार्थक बहस संभव नहीं है.


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अगर हम चाहते हैं कि टीवी बहसों का स्तर बेहतर हो तो प्रवक्ताओ का स्तर बेहतर करना होगा. वरना ये प्रवक्ता शोर मचाकर बहस को जीतते हुए नजर तो आएंगे, लेकिन इस तरह से कोई सार्थक बहस और चर्चा नहीं हो पाएगी. ऐसी बहस में देश और जनता की समस्याओं के समाधान का कोई रास्ता नहीं खुलेगा. और एक समय वो भी आएगा, जब दर्शकों का भी इन बहसों से मोहभंग हो जाएगा.

(लेखक जेएनयू में समाजशास्त्र विषय के प्रोफेसर हैं. कास्ट एंड डेमॉक्रेसी इन इंडिया उनकी चर्चित पुस्तक हैं. यहां प्रस्तुत विचार निजी हैं.)

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