खेर्का-ए-शरीफ़ के तालों से बंद विशाल दरवाजों वाले गर्भगृह में लोहे की दो संदूकों में बेहतरीन चांदी से बने डिब्बे के अंदर ऊंट के ऊन से बनी पोशाक दशकों से बड़े जतन से लपेट कर पूरी सावधानी से रखी हुई है. पवित्र श्रद्धालुओं का मानना है कि पैगंबर मुहम्मद जब मिराज की शब में बुराक़ नाम के पंखों वाले घोड़े पर सवार होकर जन्नत की ओर उड़े थे तब उन्होंने यही पोशाक पहन रखी थी. किंवदंतियां बताती हैं कि इस पोशाक की मौजूदगी भर के कारण नेत्रहीनों को आंखों की रोशनी मिल गई, गूंगे लोग बोलने लगे.
1994 में, एक आंख वाले मौलाना मुल्ला मोहम्मद उमर ने इस पोशाक को खेर्का-ए-शरीफ़ से निकालकर हजारों की उस भीड़ के सामने लहराया था, जो इस्लामी अमीरात के गठन की खातिर छेड़ी जा रही जंग को देखने आई थी. पत्रकार नोरिमित्सु ओनिशी ने लिखा था कि जोश में भरी भीड़ इस निशानी को छूने के लिए बेताब थी और इस कोशिश में कुछ जोशीले लोगों ने जान तक गंवा दी.
अब, इस सप्ताह मुल्ला उमर के रहस्यमय उत्तराधिकारी हिबतुल्लाह अखूंदज़ादा ने अपना ऐलान किया और उस ऐतिहासिक तकरीर का उलटा रूप पेश किया. ईद पर दिए गए अपने संदेश में— जो उन्होंने भीड़ की तरफ पीठ करके अजीबोगरीब तरह से दी, जबकि सारे कैमरे दूर रखे गए—उन्होंने अफगानिस्तान के अवाम को उसकी ‘जीत, आज़ादी, और कामयाबी’ के लिए मुबारकबाद दी.
इस्लामी अमीरात के अधिकारियों ने पिछले साल हिबतुल्लाह के उस भाषण का एक ऑडियो टेप जारी किया जो उन्होंने हकीमिया मदरसे में दिया था, और जिसमें कैमरे ले जाने की इजाजत नहीं थी. मदरसे के एक छात्र ने कहा कि वह हिबतुल्लाह के आने से इतना खुश था कि वह ‘उनका चेहरा देखना भी भूल गया था’.
इन विचित्र हालात से कई सवाल उभरते हैं कि इस्लामी अमीरात के अमीर-उल-मोमीनीन, दुनियाभर के पाक मुसलमानों के स्वघोषित कमांडर वास्तव में जिंदा हैं भी या नहीं, और क्या वे वास्तव में कमांडर हैं भी या नहीं, या आंतरिक कलह पर परदा डालने के लिए उन्हें खड़ा किया गया है?
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तालिबान के रहस्यमय अमीर
जिस शख्स के बारे में दावा किया जा रहा है कि उसने पांच निर्णायक सालों में तालिबान का नेतृत्व किया, जिसके चलते अमेरिका की हार हुई और दूसरे इस्लामी अमीरात की स्थापना हुई उसके जीवन के बारे में कम ही जानकारियां उपलब्ध हैं. कांधार के पंजवाल पठार में सफीद रावां गांव के मौलाना मोहम्मद हसन अखूंद के घर में 1960 या 1961 में जन्मे हिबतुल्लाह सोवियत आक्रमण के बाद परिवार के साथ सीमा पार करके क्वेटा चले गए थे.
माना जाता है कि 1980 के दशक में हिबतुल्लाह ने क्वेटा में अफगान शरणार्थियों के लिए चलाए जा रहे मदरसों में पढ़ाई की. दावा किया जाता है कि उन्होंने जिहादी सिपहसालार मोहम्मद यूनुस खालिस के हज़्ब-ए-इस्लामी के साथ सोवियत संघ से लोहा लिया.
कुछ ब्योरे बताते हैं कि हिबतुल्लाह ने फराह सूबे में हिजाब और मूंछ-दाढ़ी के नियामों का पालन करवाने में कुख्यात ‘अम्र बिल मरूफ़ वा नाही अनिल मुनकर’ (अच्छाई लागू करने और बुराई दूर करने वाले) मंत्रालय की ओर से सक्रिय थे. बताया जाता है कि इसके बाद उन्होंने कांधार में तालिबानी मदरसे में मजहबी तालीम के इंस्ट्रक्टर के रूप में काम किया.
कुख्यात 9/11 कांड के बाद इस्लामी अमीरात के खात्मे के बाद हिबतुल्लाह भागकर पाकिस्तान पहुंच गए. अफगानिस्तान से मिलने वाली विश्वसनीय खबरों के मुताबिक वहां क्वेटा के पास कुचलक में बलूचिस्तान की अल-हज मस्जिद में सेवा दी. बताया जाता है कि मस्जिद के निर्माण में वहां ट्रांसपोर्ट सेक्टर से जुड़े व्यवसायी आलम मुहम्मद हसनी ने पैसे लगाए थे.
माना जाता है कि अल-हज मदरसे ने तालिबान के लिए काडर मुहैया कराए लेकिन समकालीन खोजों से पता चला कि हिबतुल्लाह जिहादी समूह की क्वेटा स्थित काउंसिल या दूसरी संस्थाओं में कोई महत्वपूर्ण नेता नहीं थे.
इसके बाद 2015 की गर्मियों में तालिबान ने अंततः कबूल किया कि मुल्ला उमर की मौत दो साल पहले ही हो चुकी है. इससे साफ हो गया कि उसके नाम से उसने जो तमाम बयान जारी किए थे, जिनमें शांति वार्ता के लिए अपील भी शामिल है, वे सब फर्जी थे. उसकी जगह लेने वाला ताकतवर फौजी कमांडर मुल्ला अख्तर मोहम्मद मंसूर भी एक साल के अंदर ही अमेरिकी ड्रोन के हमले में मार डाला गया.
बताया जाता है कि हिबतुल्लाह जब तालिबान अमीर बन गया, उसके 14 महीने बाद उसके बेटे अबदूर रहमान की मौत गेरेष्क में अफगानी फौजी अड्डे में विस्फोटकों से भरे ट्रक के हमले में हो गई. एक बड़े तालिबानी ने कहा कि ‘पुराने बड़े नेताओं के परिवार वालों ने फिदायीन बम हमले किए किए थे मगर शेख हिबतुल्लाह पहले बड़े नेता हुए जिनके बेटे ने अपनी जिंदगी क़ुरबान कर दी.’ बाद में, 2019 में हिबतुल्लाह के भाई अहमदुल्लाह को एक बम हमले में मार डाला गया.
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बेअसर विचारक
हिबतुल्लाह ने कभी, यहां तक कि बागी गुट का नेता बन गए तब भी किसी तरह की फौजी कार्रवाई में हिस्सा लिया हो यह दिखाने के लिए कुछ भी नहीं है. हालांकि कई विवरणों में दावा किया गया है कि उन्होंने एक धर्मशास्त्री और विचारक के रूप में योगदान दिया है लेकिन इस दावे की पुष्टि के लिए कुछ भी नहीं मिलता. उदाहरण के लिए, विद्वान लेखक एलेक्स स्ट्रिक वां लिंशोटेन ने तालिबानी साहित्य का जो प्रामाणिक संकलन तैयार किया है उसमें हिबतुल्लाह का बस एक ही योगदान दिखता है— तालिबानी बागियों की धार्मिक शिक्षा के लिए 122 पेज का पाठ.
इस पुस्तक में हिबतुल्लाह स्थापित इस्लामी धर्म सिद्धांत को ही दोहराया है कि इस्लाम धर्म का पालन ‘खलीफा के नेतृत्व वाली इस्लामी हुकूमत में ही हो सकता है, जो अपनी सरकार के जरिए अल्लाह के दिए क़ानूनों को लागू करेगी.’ इसके अलावा, हिबतुल्लाह के नाम से जारी तालिबान के अधिकृत बयानों का छोटा-सा कॉर्पस भी है. जनवरी 2021 में जारी एक लिखित संदेश कहता है कि ‘हमने इस्लामी अमीरात के हुक्मरानों को हिदायत दी है कि अगर जरूरी न हो तो इस्लामी शरिया के मुताबिक दूसरी, तीसरी, और चौथी शादी से परहेज करें.’
मुमकिन है कि यह घोषणा तब जारी की गई थी जब ज्यादा संख्या में ग्रामीण तालिबानी अफसर पढ़ी-लिखी लड़कियों से शादी करने लगे थे, जबकि पहले से वे अनपढ़ महिलाओं से शादी किए होते थे.
घटनाएं बताती हैं कि 2021 में ईद पर उन्होंने ‘सबको नुमाइंदगी देने वाली, अफगानों को साथ लेकर बनाई जाने वाली जिस इस्लामी व्यवस्था’ की बात की थी उसकी खुद तालिबान ने अनदेखी कर दी थी. उस साल बाद में काबुल पर कब्जे के बाद दक्षिणी अफगानिस्तान के मुल्लाओं और पूर्वी अफगानिस्तान के जिहादियों के बीच सत्ता का विभाजन हो गया. दक्षिणी अफगानिस्तान के मुल्ला पहले अमीरात में सत्ता में थे, जबकि अफगानिस्तान के जिहादियों का नेतृत्व सिराजुद्दीन हक़्क़ानी कर रहे थे.
हिबतुल्लाह के कुछ मंत्री, जो पहले अमीरात के ख्यात नेताओं में से चुने गए थे, तालिबान में असली सत्ता का सुख भोग रहे हैं. वजीरे आजम हसन अखूंद को अमेरिकी खुफिया तंत्र के आकलन में, जिसे अब अवर्गीकृत दस्तावेज़ है, ‘सबसे नाकारा और अयोग्य तालिबान नेताओं में गिना’ है.
हिबतुल्लाह चीफ जस्टिस अब्दुल हाकिम और धार्मिक मामलों के मंत्री नूर मुहम्मद साकेब जैसे जिन मौलानाओं से घिरे हैं उन्होंने लड़कियों की शिक्षा और हिजाब जैसे धार्मिक सवालों के मामलों में जीत तो हासिल की है मगर जमीन पर वे ताकतवर नहीं हैं.
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ताकत का बहाना
अपनी नियुक्ति के बाद हिबतुल्लाह ने तालिबान में केंद्रीय फूट को संस्थागत रूप दे दिया और फौज की कमान हक़्क़ानी, और पहले अमीरात के नेता मुल्ला उमर के बेटे मोहम्मद याक़ूब के बीच बांट दी. याक़ूब के नेतृत्व म्विन दक्षिणी अफगानिस्तान के फौजी कमांडरों ने तालिबान के वित्तीय व्यवस्था के साथ अफीम की पैदावार के लिए मशहूर हेलमंद जैसे अमीर इलाकों पर पर कब्जा जमा लिया. उधर हक़्क़ानी दक्षिणी तालिबान के खिलाफ लड़ाई छेड़ दी और इस्लामी सरकार को अपने गढ़ लोया पकटिया से काम करने की इजाजत दे दी.
सत्ता के लिए जंग तेज हो रही है और आंतरिक फूट सामने आ रही है जिसे हिबतुल्लाह अब छिपा नहीं सकते. मार्च में, हक़्क़ानी ने, जो 1 करोड़ डॉलर के अमेरिकी उपहार के लक्ष्य है पर पहली बार अपना चेहरा सार्वजनिक किया. यह हिबतुल्लाह और उस दक्षिणी नेतृत्व के खिलाफ एक दंश है जिसका प्रतिनिधित्व वे करते हैं.
आर्थिक सुस्ती, और जिहादियों द्वारा सीमा पार से किए जाने वाले हमलों के कारण पाकिस्तान के साथ तनाव ने हिबतुल्लाह के अमीरात की पकड़ को और कमजोर किया है. स्थानीय टकराव भी होते रहे हैं. व्यापार, ट्रक परिवहन, खदानों से होने वाली आमदनी पर कब्जे की होड़ बेकाबू होती जा रही है.
काबुल पर तालिबान के कब्जे के महीनों पहले से यह अफवाह फैल रही थी कि हिबतुल्लाह कोविड महामारी के शिकार हो गए हैं और पाकिस्तान के एक अस्पताल में उनकी मौत हो चुकी है. हालांकि इसके सबूत सामने नहीं आए हैं लेकिन मुल्ला उमर की मौत के मामले में तालिबान ने जो धोखा फैलाया था उसके कारण यह मुमकिन लगता है. इस बात का कोई खुलासा नहीं किया गया है कि हिबतुल्लाह खुद सबके सामने क्यों नहीं आना चाहते.
मुमकिन है कि हिबतुल्लाह हमेशा ताकत के एक फरेब का प्रतिनिधित्व करना चाहते थे, वास्तविक चीज का नहीं. हिबतुल्लाह हमेशा उनकी गद्दी के पीछे जो सिपहसालार खड़े हैं वे खुद को असली लड़ाई के लिए तैयार कर रहे हैं.
प्रवीण स्वामी दिप्रिंट के नेशनल सिक्योरिटी एडिटर हैं. वह @praveenswami पर ट्वीट करते हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.
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