scorecardresearch
Sunday, 22 December, 2024
होममत-विमतहार्वर्ड के मंच पर हेमंत सोरेन की विभाजनकारी आदिवासी राजनीति बिरसा मुंडा के दर्शन के विपरीत है

हार्वर्ड के मंच पर हेमंत सोरेन की विभाजनकारी आदिवासी राजनीति बिरसा मुंडा के दर्शन के विपरीत है

झारखंड के मुख्यमंत्री सोरेन या तो नए ज़माने के मिशनरियों के हाथों में खेल रहे हैं या संभवतः धर्मांतरण लॉबी के इशारे पर काम कर रहे हैं.

Text Size:

दिसंबर 2019 में पदभार संभालने के बाद से ही झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन एक खतरनाक और विभाजनकारी राजनीतिक खेल में लगे हुए हैं. इसकी झलक हाल ही में हार्वर्ड विश्वविद्यालय में 18वें वार्षिक भारत सम्मेलन में दिखी, जहां उन्होंने कहा कि ‘आदिवासी न तो कभी हिंदू थे, और न कभी होंगे…’. लेकिन यह दावा त्रुटिपूर्ण है और इसे सुस्थापित तथ्यों के सहारे खारिज किया जा सकता है.

स्पष्टतया सोरेन की भारी-भरकम दलील की बुनियाद निहायत ही कमज़ोर है. हार्वर्ड के अपने संबोधन में उन्होंने कहा कि आदिवासी हिंदुओं से अलग हैं क्योंकि उनकी प्रथाएं अलग हैं, और आदिवासी ‘समुदाय हमेशा प्रकृति पूजक रहा है, और यही कारण है कि उन्हें ‘मूल निवासी’ माना जाता है.’

लेकिन क्या हिंदू धर्म में प्रकृति की पूजा नहीं की जाती है? सूरज, जिसे सूर्यदेव के रूप में जाना जाता है, की अनेकों रूपों में पूजा की जाती है, जिनमें से एक है उनको पूरी तरह समर्पित छठ पर्व. ओडिशा के कोणार्क स्थित सूर्य मंदिर देश के पूर्वी हिस्से के सबसे महत्वपूर्ण धार्मिक स्थलों में से एक है. रांची से 40 किमी दूर बुंडू के आदिवासी इलाके में स्थित इस मंदिर की प्रतिकृति, बड़ी संख्या में हिंदुओं और आदिवासियों को समान रूप से आकर्षित करती है.

कोई भी हिंदू अनुष्ठान नदी के बिना पूरा नहीं होता है. शरीर और आत्मा की शुद्धि के लिए, गंगा और अन्य नदियों में पवित्र डुबकी के महत्व से भला कौन इनकार कर सकता है. इसी तरह, देश के तीन अलग-अलग हिस्सों में मनाए जाने वाले कई अन्य हिंदू त्योहार ऐसे हैं जिनमें प्रकृति के प्रति सम्मान को जाहिर किया जाता है.

तेलंगाना में मनाया जाने वाला बाथुकम्मा या ‘पुष्पोत्सव’ में पृथ्वी, जल और मानव के बीच संबंधों का उत्सव मनाया जाता है. पश्चिमी भारत में मनाए जाने वाले वट पूर्णिमा के दौरान विवाहित महिलाएं बरगद के पेड़ में धागा लपेटकर पति के प्रति अपने प्रेम का इजहार करती है. हर शनिवार को पीपल के पेड़ की पूजा करना कई लोगों के जीवन का हिस्सा है. हिंदू धार्मिक प्रथाओं में तुलसी के पत्ते का बहुत अधिक महत्व है. हिंदू और आदिवासी समाजों के बीच इस तरह की स्पष्ट समानताओं के रहते, ये समझ में नहीं आता कि सोरेन कमज़ोर दलीलों पर आधारित अपना दावा कैसे प्रस्तुत कर सकते हैं, बशर्ते उन्हें अपने गठबंधन सहयोगी कांग्रेस के राहुल गांधी के कथानक को अपनाने के लिए मजबूर नहीं किया गया हो.


य़ह भी पढ़ें: एक साल बाद भी बिना नेता प्रतिपक्ष के झारखंड विधानसभा, क्या चाहती है हेमंत सोरेन सरकार


बिरसा मुंडा की भूमिका

पिछले एक साल से मैं प्रतिष्ठित आदिवासी स्वतंत्रता सेनानी बिरसा मुंडा की जीवनी पर काम कर रहा हूं, हेमंत सोरेन जिनकी विरासत को आगे बढ़ाने की इच्छा रखते हैं. मैंने इस विषय पर व्यापक शोध किया है.

गौरतलब है कि 1890 के दशक की शुरुआत में, जब बिरसा मुंडा ने ईसाई धर्म को त्याग दिया और चाईबासा के लुथेरन मिशन स्कूल को छोड़ दिया, तो उस समय उनके मार्गदर्शक एक वैष्णव धर्मोपदेशक, आनंद पनरे, थे.

इस धर्मोपदेशक, जिसने उन्हें भगवदगीता की सीखों तथा रामायण और महाभारत के प्रसंगों से अवगत कराया, के साथ बिताए समय के कारण बिरसा में आध्यात्मिक बदलाव आया, जोकि 1894 के बाद से स्पष्ट दिखने लगा और जो विभिन्न दस्तावेजों में दर्ज भी है.

1895 में बिरसा ने एक धार्मिक आंदोलन शुरू किया, जिसे बिरसाइत के रूप में जाना जाता है, लेकिन उनका विद्रोह ‘दिकुओं’ या उत्पीड़कों/अतिक्रमणकारियों के खिलाफ केंद्रित था, जो ईसाई मिशनरी और ज़मींदार थे. वास्तव में, उनके धार्मिक आंदोलन से जुड़ने वालों में एक बड़ा हिस्सा उन मुंडा सरदारों का था, जो पूर्व में ईसाई धर्म अपना चुके थे. बिरसा ने अपने उपदेशों में हिंदू धर्म, ईसाई और मुंडारी, तीनों से ली गई बातों को शामिल किया. उन्होंने अपने अनुयायियों को रामायण और महाभारत की बातों से अवगत कराना जारी रखा, जबकि उनका गुस्सा चर्च के खिलाफ निर्देशित था, जो दिसंबर 1899 से शुरू सशस्त्र क्रांति के दौरान हुए विध्वंस से स्पष्ट है.

बिरसा मुंडा के जीवन में कभी भी हिंदू धर्म के प्रति उनका कोई निश्चित विद्वेष भाव नहीं दिखता. वास्तव में, गोपी कृष्ण कुंवर की मुंडा पर लिखी किताब ‘द लाइफ एंड टाइम्स ऑफ बिरसा मुंडा’ में दावा है कि उन्होंने अपने 1899 के विद्रोह से पहले रांची के पास जगन्नाथ मंदिर में पूजा की थी.

इसलिए, अगर हेमंत सोरेन का दावा बिरसा मुंडा के दर्शन को आगे बढ़ाने का है, तो वह जानबूझकर अधूरा सच पेश कर रहे हैं.

और कई समानताएं

कपिल कुमार मिश्रा के शोध पत्र ‘भारतीय जनजातियों की पवित्र परंपराओं मे शिव के आख्यान’ में मूल निवासियों द्वारा भगवान शिव की पूजा की परंपरा पर प्रकाश डाला गया है.

इसमें बताया गया है कि कैसे ‘भारतीय जनजातियां अपने प्राकृतिक निवास – जंगलों, पहाड़ियों, पहाड़ों, खेतों आदि में शिव की आराधना करती हैं. उन्हें मंदिरों में लाने का काम दरअसल हिंदुओं ने किया है. शिव को हमेशा आदिवासियों द्वारा लिंगम के रूप में ही पूजा जाता है.’

इसमें उत्तर झारखंड के देवघर से लेकर दक्षिण पश्चिम झारखंड के गुमला तक के कई उदाहरण दिए गए हैं कि कैसे हिंदू और आदिवासी एक जैसे धार्मिक रिवाजों का पालन करते हैं. इसमें कहा गया है: ‘संथाल के सर्वोच्च देव को मारंग बुरु, ठाकुर बुरु या महादेव कहा जाता है. उनकी विशेषताएं मूलत: शिव से बहुत मिलती हैं. दिलचस्प बात यह है कि बैद्यनाथ का महान और ऐतिहासिक ज्योतिर्लिंग, जिसे रावणेश्वर महादेव के नाम से जाना जाता है, संथाल इलाके के केंद्र देवघर में स्थित है. कई संथाली इसले संथाल क्षेत्र का प्रवेश स्थल मानते हैं. यह एक ऐसा स्थान है जहां सभी देवी-देवता भगवान बैद्यनाथ के साथ विराजमान हैं.’

इस शोध पत्र के निष्कर्षों की पुष्टि मेरे अपने व्यक्तिगत अनुभवों से भी होती है. जमशेदपुर में बिताए बचपन के दौरान, मैं आदिवासियों की शिव भक्ति का गवाह रहा हूं. हमारे घरेलू कामगार का परिवार, जो हमारे आउट-हाउस में रहता था, हर साल महाशिवरात्रि के मौके पर बड़े समूहों में जुटकर शहर से 30 किलोमीटर दूर दलमा पहाड़ी स्थित प्राचीन शिव मंदिर में अराधना के लिए जाया करता था. मैंने आदिवासियों की देवरी माता (मां दुर्गा का एक रूप) के लिए भी ऐसी ही आस्था देखी, जिनका जमशेदपुर-रांची राजमार्ग पर स्थित मंदिर भारतीय क्रिकेटर एमएस धोनी के दौरे के बाद पूरी दुनिया में चर्चित हो गया था.

इसलिए, हेमंत सोरेन द्वारा व्यक्त विचार निश्चित रूप से झारखंड के आदिवासियों के बहुमत का दृष्टिकोण नहीं है. यह अलग राज्य की मांग की तरह ही एक राजनीतिक कथानक है, जोकि मतलबी निहित स्वार्थों से प्रेरित है.


यह भी पढ़ें: हेमंत सोरेन सरकार ने जारी किया आदेश, झारखंड में CBI जांच के लिए अब लेनी होगी इजाजत


झारखंड में मिशनरियों का इतिहास

यह एक सुस्थापित तथ्य है कि पिछली डेढ़ शताब्दियों से भी अधिक समय से झारखंड धर्मांतरण का केंद्र रहा है. इसके लिए ईसाई मिशनरियों को दक्षिणपंथी समूहों का विरोध भी झेलना पड़ा है. झारखंड की रघुबर दास के नेतृत्व वाली भारतीय जनता पार्टी सरकार ने न केवल धर्मांतरण विरोधी कानून बनाया, बल्कि राज्य में धर्मांतरण के मामलों की जांच के लिए एक विशेष जांच दल (एसआईटी) का भी गठन किया था.

प्रकृति उपासक सरना संप्रदाय के अनुयायियों के लिए अलग सरना धार्मिक संहिता के हकीकत बनने के साथ ही इस समुदाय के लोगों को अपने धर्म में लाने वाले ईसाई मिशनरियों को हिंदुओं की छानबीन से मुक्ति मिल जाएगी. हेमंत सोरेन की धर्मांतरण लॉबी से मिलीभगत की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता है. आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री वाईएस जगन मोहन रेड्डी के समान ही सोरेन ने हिंदू धर्म के प्रति खुला विद्वेष भाव दिखाया है, और मुख्यमंत्री पद की शपथ लेते हुए उन्होंने ‘ईश्वर’ शब्द के उल्लेख से परहेज किया था.

झारखंड में विदेशी मिशनरियों का प्रवेश बहुत पहले 1840 के दशक में ही हो गया था. आदिवासियों को सांस्कृतिक रूप से मातहत बनाना ब्रिटिश रणनीति का हिस्सा था, जबकि सामाजिक और आर्थिक रूप से उन्हें पहले ही अधीन किया जा चुका था. इस इलाके में सबसे पहले, 1845 में, गॉसनर इवैंजेलिकल लुथेरन मिशन ने अपना कदम रखा था. इसे जर्मन या लूथरन मिशन के रूप में भी जाना जाता है. इस मिशन ने 1851 में मुंडाओं का धर्मांतरण कराया था. 1868 तक, लगभग 10,000 मुंडा ईसाई धर्म में शामिल हो चुके थे. जैसा कि केएस सिंह की किताब ‘बिरसा मुंडा एंड हिज मूवमेंट’ में वर्णित है, 1890 के दशक के उत्तरार्ध में बिरसा के विद्रोह के दौरान, वास्तव में उनका सर्वाधिक आक्रोश जर्मन पादरी जोहान्स हॉफमैन और उनके जर्मन मिशन के खिलाफ था.

संभव है कि अपने बनावटी दावों के साथ सोरेन नए जमाने के मिशनरियों के हाथों में खेल रहे हों या संभवतः धर्मांतरण लॉबी के इशारे पर चल रहे हों.

बिरसा मुंडा के नाम पर नहीं

कोई भी इस बात से इनकार नहीं करता कि आदिवासियों की खुद की कुछ विशिष्ट सांस्कृतिक प्रथाएं हैं. ये प्रथाएं काफी हद तक उनके पर्यावास से जुड़ी हैं और उन्हें एक अलग धार्मिक पहचान नहीं कहा जा सकता है. इसलिए सरना कोड को आदर्शत: एक सांस्कृतिक कोड के रूप में देखा जाना चाहिए, हिंदू धर्म (इसकी पूरी आदिवासी आबादी के लिए) और ईसाई धर्म (पहले से ही धर्मांतरित आदिवासियों के लिए) दोनों के ही भीतर.

हमें इस तथ्य का ध्यान रखना चाहिए कि भारत की 8.6 प्रतिशत आदिवासी आबादी पूर्वोत्तर सहित देश के कई हिस्सों में विस्तृत है. देश के पश्चिमी और मध्य भागों में रहने वाले भील और गोंड लोग शायद खुद ही सोरेन के विचार से सहमत नहीं हों.

खुद को अखिल भारतीय आदिवासी नेता के रूप में स्थापित करने की मंशा के विपरीत, सोरेन की अदूरदर्शिता ने उन्हें उसी विभाजनकारी नीति को अपनाने के लिए मजबूर कर दिया है जिसका उपयोग ब्रिटिश शासक आदिवासियों को अधीन करने के लिए किया करते थे. विद्रोह के लिए बिरसा मुंडा का आह्वान, अबुआ दिशुम अबुआ राज (हमारी ज़मीन, हमारा राज) का उनका नारा, आदिवासियों के लिए था. उस नारे के पहले हिस्से – अबुआ दिशुम – को जहां 2000 में झारखंड का निर्माण कर पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने हकीकत बना दिया, वहीं उसके दूसरे हिस्से के संदर्भ में हेमंत सोरेन जैसे नेताओं से लोगों को भारी निराशा हुई है, जो राज्य में विभाजन के नए बीज बो रहे हैं.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(टिप्पणीकार पुस्तकों के लेखक और मीडिया में भाजपा की एक प्रमुख आवाज हैं. ये उनके निजी विचार हैं.)


य़ह भी पढ़ें: हेमंत सोरेन क्यों कर रहे हैं अलग ‘धर्म कोड’ की मांग, ‘आदिवासी हिन्दू नहीं हैं’ कहकर किसे किया है चैलेंज


 

share & View comments

1 टिप्पणी

  1. ये आ गए हिंदू धर्म के ठेकेदार जो सबको हिंदू इसलिए बनाना चाहते हैं ताकि ब्राह्मणवाद क़ायम रहे और ब्राह्मण राज करें और दलित, आदिवासी इनके पैरों के नीचे हमेशा दबे रहें । ये ज्ञान की साड़ी है, महज ठीकेदारी से काम नहीं चलेगा तर्कपूर्ण विवेचना करने की आवश्यकता है। हिंदू एक धर्म नहीं बल्कि पैरों की बेड़ी है।

Comments are closed.