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Friday, 29 March, 2024
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हेमंत सोरेन क्यों कर रहे हैं अलग ‘धर्म कोड’ की मांग, ‘आदिवासी हिन्दू नहीं हैं’ कहकर किसे किया है चैलेंज

हेमंत सोरेन ने कहा जनगणना में हम अदर्स में गिने जाते थे, इस बार तो केंद्र सरकार ने उस कॉलम को भी हटाने की तैयारी कर ली है. इसी वजह से हमने अपने लिए अलग धर्म कोड की मांग की है.

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रांची: हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में छात्रों की ओर से आयोजित एक कांफ्रेंस में झारखंड के सीएम हेमंत ने कहा, ‘आदिवासी कभी भी हिन्दू नहीं थे, न हैं. इसमें कोई कंफ्यूजन नहीं है. हमारा सबकुछ अलग है.’

सोरेन ने यह भी कहा कि हम अलग हैं, इसी वजह से हम आदिवासी में गिने जाते हैं. ‘हम प्रकृति पूजक हैं. अभी भी हम उस जगह तक नहीं पहुंच पाए हैं जहां ऐसे प्रोपेगेंडा को पकड़ पाएं. ट्राइबलों को मान्यता नहीं मिल रही है, कि ये ट्राइबल है. आजादी के बाद से हाल तक में कभी आदिवासी, तो कभी इंडीजिनस के नाम से जाना गया.’

मुख्यमंत्री सोरेन से छात्रों से बातचीत के दौरान यह भी कहा, ‘जनगणना में हम अदर्स में गिने जाते थे, इस बार तो केंद्र सरकार ने उस कॉलम को भी हटाने की तैयारी कर ली है. इसी वजह से हमने अपने लिए अलग धर्म कोड की मांग की है. ताकि हम अपनी परंपरा, संस्कृति को बचा सकें.’

‘जिन जंगलों को लोगों को खनिज और पैसा दिखता है, वहां आदिवासी को उसमें भगवान दिखते हैं. लोग इस समुदाय को नैपकीन की तरह यूज कर फेंक देते हैं. अगर ये समाज पढ़ लेगा तो पूंजीपतियों के घर में ड्राइवर कौन बनेगा, दाई का काम कौन करेगा.’ कांफ्रेंस का विषय ‘झारखंड कैसा है और भारत कैसा है’, था.

कितने आदिवासी

जब बात आदिवासियों के लिए अलग धर्म कोड की है तो एक आरटीआई से पता चला है कि झारखंड में 86 लाख से अधिक आदिवासी हैं. इसमें सरना धर्म मानने वालों की संख्या 40,12,622 है. वहीं 32,45,856 आदिवासी हिन्दू धर्म मानते हैं.

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ईसाई धर्म मानने वालों की संख्या 13,38,175 है. इसी तरह से मुस्लिम 18,107, बौद्ध 2,946, सिख 984, जैन 381 आदिवासी इन धर्मों को मानने वाले हैं. वहीं 25,971 आदिवासी ऐसे हैं जो किसी भी धर्म को नहीं मानते हैं. राष्ट्रीय स्तर पर इससे संबंधित आंकड़ें क्या हैं, वो अभी तक पब्लिक डोमेन में नहीं हैं.

देशभर में 2011 की जनगणना के मुताबिक भारत में आदिवासियों की संख्या 10,42,81,034 है. यह देश की कुल आबादी का 8.6 प्रतिशत है. केंद्रीय जनजातीय कार्य मंत्रालय के मुताबिक देश के 30 राज्यों में कुल 705 जनजातियां रहती हैं.


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आखिर इसी वक्त हेमंत ने ऐसा क्यों कहा

अब सवाल उठता है कि आदिवासी और उनके धर्म पर इस वक्त इतनी बहस क्यों? क्या ये पहचान की लड़ाई है? क्या उनके पहचान के संकट को अलग धर्म की मांग से बल मिल सकता है? आखिर झारखंड के सीएम हेमंत सोरेन ने पहली बार इतना खुलकर क्यों कहा कि आदिवासी कभी हिन्दू नहीं थे?

बीते साल 10 नवंबर को हेमंत सरकार ने विधानसभा में सरना धर्मकोड बिल पारित किया. इसके बाद उसे केंद्र सरकार के पास भेज दिया गया. कई राज्यों से आदिवासी संगठन और नेता अलग धर्मकोड की मांग पर सहमति जता चुके हैं.

ऐसे में 8 मार्च से शुरू होनेवाले लोकसभा सत्र में इस पर चर्चा होने की संभावना बनती है. लोकसभा में फिलहाल झारखंड मुक्ति मोर्चा के विजय हांसदा, वहीं राज्यसभा में शीबू सोरेन सांसद हैं.

हालांकि, झारखंड में पारित इस बिल को कांग्रेस भी अपना समर्थन दे चुकी है. जाहिर है, लोकसभा और राज्यसभा में अगर इसपर चर्चा होती है, तो उसे विपक्षी दलों का भी साथ मिलेगा.

जेएमएम के एकमात्र लोकसभा सदस्य विजय हांसदा कहते हैं, ‘निश्चित तौर पर इसे आगामी सत्र में मैं उठाउंगा. बहुत सारे जगहों पर आदिवासियों को अलग धर्म में अंकित किया जा रहा है. इसका हमारी जनगणना पर फर्क पड़ता है.’

दिप्रिंट से बातचीत के दौरान हांसदा ने कहा,  ‘हेमंत ने बिल्कुल सही कहा है कि, आदिवासी हिन्दू थे ही नहीं. आखिर केंद्र सरकार हमें अपना अलग कोड देने से क्यों कतराती है. जाहिर सी बात है कि अलग धर्मकोड देने पर संघ द्वारा प्रायोजित आदिवासियों के हिन्दूकरण अभियान को इससे ठेस पहुंचेगी.’

अलग धर्म कोड की मांग पर बीजेपी के नेता प्रतिपक्ष बाबूलाल मरांडी ने पलटवार करते हुए कहा, ‘हेमंत को पहले अपने घर में झांकना चाहिए. उनके पिता शिबू सोरेन, भाई का नाम दुर्गा सोरेन, भाभी सीता सोरेन, भाई बसंत सोरेन, पत्नी कल्पना सोरेन….ये सभी नाम तो हिन्दू धर्म से ही जुड़े हुए हैं.’

मरांडी कहते हैं, ‘सीएम बनने के बाद जाने कितने मंदिरों में पूजा कर आए हैं और कह रहे हैं कि आदिवासी हिन्दू नहीं हैं.’

प्रिंट से बातचीत के दौरान उन्होंने कहा, ‘रही बात धर्मकोड की, तो हेमंत अपनी विचारधारा दूसरों पर नहीं थोप सकते. झारखंड से बाहर की राजनीति उन्होंने की नहीं है, इसलिए उन्हें जानकारी नहीं है. कश्मीर में जो आदिवासी हैं वो मुसलमानों की सूची में हैं. ऐसे ही अन्य राज्यों में है. इसे वो देशभर के आदिवासियों की मांग नहीं बता सकते हैं.’


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क्या है कहना आदिवासियों का 

जामिया मिलिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी से पीएचडी कर चुकीं डॉ स्टेफी टेरेसा मुर्मू एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं. वो कहती हैं, ‘जब मैं पैदा हुई तो परिवार वालों ने मुझे क्रिश्चियन बना दिया. क्योंकि वो खुद भी क्रिश्चियन थे. जब मैं शिक्षित हुई तो खुद को आदिवासी धर्म के करीब पाया. अब मैं केवल और केवल सरना जो कि अब नया टर्म है, को ही प्रैक्टिस करती हूं.’

जबकि जनजातीय धर्म सांस्कृतिक रक्षा मंच के अध्यक्ष मेघा उरांव का मानना है कि हम ‘हिन्दू धर्म’ के अंतर्गत आते हैं. वह आगे कहते हैं, ‘अगर हम आदिवासी प्रकृति पूजक हैं तो सूर्य, आकाश, पेड़ आदि की पूजा तो हिन्दू धर्म में भी होती है. जितने भी जनजातीय समाज हैं वो शंकर भगवान की पूजा करते हैं. संताली आदिवासी तो शिवरात्रि के बाद ही शादी विवाह की शुरूआत करते हैं. छठी, मुंडन भी करते हैं.’

जनजातीय कानून के जानकार वाल्टर कंडूलना कहते हैं, ‘आदिवासियत मेरे खून में है. धार्मिक तौर पर मैं ईसाई हूं. लेकिन सबसे पहले मैं आदिवासी हूं. हो सकता है कल को मैं फिर अपना धर्म बदल दूं. आदिवासियत मेरे खून में है, धर्म का कोई खून नहीं होता है. वह एक विचारधारा है.’

जानकार क्या कहते हैं, क्या आदिवासी कभी हिन्दू थे

जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी के शोधार्थी डॉ. गंगा सहाय मीणा कहते हैं, ‘वेद, पुराण का इतिहास तीन से चार हजार साल पहले नहीं जाता है. इससे पहले तो हिन्दू या सनातन धर्म की कल्पना नहीं कर पाते. अगर इन्ही किताबों को देखें तो इसमें जंगली या असुर के रूप में आदिवासी पहले से मौजूद हैं.’

वो आगे कहते हैं, ‘अगर बीते कुछ सौ सालों की बात करें तो 1871 की भारत की जनगणना में आदिवासियों के लिए ‘एनिमिस्ट’ श्रेणी रखी गई थी.’

मीणा कहते हैं, ‘आदिवासियों को हिन्दूओं की श्रेणी में रखा ही नहीं गया था. उनका हिन्दूकरण या कह लीजिए संस्कृतिकरण हुआ है. एमएन श्रीनिवास एक समाज विज्ञानी हैं, जिनकी अवधारणा है संस्कृतिकरण. जिसके तहत नीचे तबके के लोग खुद को ऊंचे तबके के लोगों की तरह रहने, पहनने, खाने लगते हैं, फिर कुछ समय बाद खुद को उसी की तरह का मानने लगते हैं.’

उन्होंने यह भी कहा कि, ‘हेमंत सोरेन को आदिवासी हिन्दू नहीं थे, ये कहने के बजाय कहना चाहिए था कि, आदिवासी कभी भी हिन्दू, मुसलमान, ईसाई नहीं थे. वो शुरू से ही केवल आदिवासी हैं.’

सेंट जेवियर कॉलेज रांची में मास कम्यूनिकेशन विभाग के एचओडी संतोष किड़ो कहते हैं, ‘हेमंत कोई नई बात नहीं कर रहे हैं. कई लोग पहले भी बोल चुके हैं. भारत में जितने तरह के ट्राइब हैं, सबके अपने भगवान हैं. झारखंड में सिंगबोंगा की पूजा होती है, जिसका कोई मूर्त रूप नहीं है. वहीं दूसरे राज्यों के ट्राइबल सिंगबोंगा को जानते नहीं हैं.’

किडो कहते हैं, ‘सोरेने से पहले जयपाल सिंह मुंडा और फिर बाद में रामयदाल मुंडा ने आदि धर्म की वकालत की ताकि सभी आदिवासियों को एक धर्म के नीचे लाया जा सके. लेकिन ऐसा नहीं हो सका. शायद कभी हो भी नहीं. ऐसे में आदिवासियों के लिए एक धर्मकोड लागू करने से पहले हजारों आदिवासियों को मिलकर पहले इसके फिलॉसफी, धार्मिक अभ्यासों का लिपिकरण आदि करना होगा.’

जयपाल सिंह मुंडा आदिवासी महासभा के संस्थापक और लोकसभा के सदस्य थे. संविधान सभा में संविधान निर्माण के दौरान बहसों में शामिल प्रमुख सदस्यों में एक थे.

साथ ही भारत को हॉकी में मिले पहले ओलंपिक गोल्ड मेडल वाली टीम के कप्तान भी थे. पद्मश्री रामदयाल मुंडा राज्यसभा सांसद रह चुके हैं और झारखंड राज्य निर्माण आंदोलन के प्रमुख चेहरों में एक थे. धर्मकोड को लेकर हाल फिलहाल में किसी केंद्रीय मंत्री का कोई बयान नहीं आया है.

इन सब चर्चाओं से जाहिर है हेमंत सोरेन ने एक बार फिर आदिवासियों के पहचान की लड़ाई को नए तरीके से आवाज देने की कोशिश की है. इस लड़ाई में वो देशभर के आदिवासियों के शामिल कर पाते हैं या नहीं, संसद से उन्हें अलग पहचान दिलाने की लड़ाई के परिणाम पर ही निर्भर करेगा.

(आनंद दत्ता स्वतंत्र पत्रकार हैं)


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