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Wednesday, 2 October, 2024
होममत-विमतस्वास्थ्य सेवाएं राज्य का विषय लेकिन कोविड ने साबित किया कि भारत के राज्य केंद्र पर कितने निर्भर हैं

स्वास्थ्य सेवाएं राज्य का विषय लेकिन कोविड ने साबित किया कि भारत के राज्य केंद्र पर कितने निर्भर हैं

मंकी फीवर और जापानी एनसिफिलाइटिस की तरह, कोविड-19 ने भी सार्वजनिक स्वास्थ्य संकटों से निपटने में, राज्य सरकारों की तकनीकी कमज़ोरी को उजागर कर दिया है.

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बजट, संस्थाओं और क्षमताओं की कमियों के चलते, भारत में राज्य सरकारें सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रबंधन के संवैधानिक दायित्व को पूरा करने में संघर्ष करती रही हैं. कोविड-19 के प्रकोप ने उजागर कर दिया है कि तकनीकी विशेषज्ञता और वित्तीय सहायते के मामले में, राज्य सरकारें केंद्र पर कितनी निर्भर हैं. अतीत में भी कर्नाटक के मंकी फीवर और उत्तर प्रदेश व बिहार के जापानी एंसिफिलाइटिस जैसे प्रकोपों ने, राज्य स्तर पर न सिर्फ सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रबंधन के संस्थागत फ्रेमवर्क की खामियां बल्कि ऐसे प्रकोपों से निपटने में राज्य सरकारों के पास उपलब्ध तकनीकी क्षमता की कमी को भी उजागर किया.

सार्वजनिक स्वास्थ्य, राज्य का विषय होने के बावजूद, स्वास्थ्य नीतियां और कार्यक्रम तैयार करने में केंद्र की एक प्रमुख भूमिका रहती है. काफी हद तक इसकी वजह, केंद्र के पास खर्च करने की अधिक क्षमता और तकनीकी संसाधनों की बेहतर उपलब्धता होती है. उदाहरण के तौर पर, स्वास्थ्य व परिवार कल्याण मंत्रालय को सलाह देने के लिए सरकार को नेशनल सेंटर फॉर डिज़ीज़ कंट्रोल, नेशनल हेल्थ सिस्टम रिसोर्सेज़ सेंटर और इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) से सहायता मिलती है.

दुर्भाग्यवश, राज्य सरकारें ऐसी एजेंसियों में निवेश करके, उनकी सलाह से वंचित रही हैं, जिसकी वजह से न सिर्फ देशव्यापी महामारियों बल्कि सार्वजनिक स्वास्थ्य के स्थानीय मामलों से निपटने में भी उन्हें केंद्र की सलाह और सहायता के भरोसे रहना पड़ता है.

केंद्रीकृत सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली

बायोमेडिकल रिसर्च के लिए समर्पित भारत की इकाई, आईसीएमआर कोविड-19 जैसे सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट से निपटने के लिए, उच्च क्वॉलिटी की तकनीकी सलाह देकर, राज्यों और केंद्र सरकार की सहायता करती रही है.

आईसीएमआर से कॉमन तकनीकी सलाह लेकर, कोविड-19 जैसी वैश्विक महामारी का मुकाबला तो किया जा सकता है लेकिन राज्य-विशेष के सार्वजनिक स्वास्थ्य संकटों से ऐसी टॉप-डाउन अप्रोच के साथ निपटना, चुनौती भरा हो सकता है. लेकिन आईसीएमआर का ढांचा जिस तरह का है, उसमें राज्यों की शिरकत और उनकी सलाह के लिए कोई जगह नहीं है.

आईसीएमआर को पास से देखने पर पता चलता है कि उसके अंदर राज्य सरकारों की क्षेत्रीय प्राथमिकताओं को जितना फोकस मिलना चाहिए, उतना नहीं मिल पाता. आईसीएमआर बोर्ड के अध्यक्ष केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री होते हैं, लेकिन इसमें राज्यों का कोई प्रतिनिधित्व नहीं होता. आईसीएमआर के शोध कार्य भी राष्ट्रीय स्वास्थ्य उद्देश्यों के हिसाब से होते हैं और इसका एजेंडा तय करने में राज्यों की भूमिका बहुत सीमित या ना के बराबर होती है.


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कनाडा की प्रीमियर पब्लिक हेल्थ टेक्निकल बॉडी, कनेडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्निकल रिसर्च, वहां की संसद के एक्ट से गठित की गई है. एक्ट में विशेष तौर पर कहा गया है कि ये संस्था प्रांतों के साथ सलाह करके, सहयोग और साझेदारियां करेगी. कनाडा के एक्ट में ये भी माना गया है कि हर प्रांत के लिए पब्लिक हेल्थ रिसर्च अलग होनी चाहिए, जो कि भारत के टॉप-डाउन सिस्टम के उलट है.

एक केंद्रीकृत स्वास्थ्य सेवा शोध संस्थान के काम काज का असर, किसी भी देश की स्वास्थ्य सेवाओं के आख़िरी मील के डिलीवरी सिस्टम पर पड़ता है. विश्व बैंक की एक रिपोर्ट में, जिसका शीर्षक है ‘भारत की सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली: राष्ट्रीय स्तर पर ये कितना अच्छा करती है’ देखा गया कि ‘उप-राष्ट्रीय स्तरों पर तकनीकी क्षमता की कमी की वजह से, केंद्रीय एजेंसियों के शोध निष्कर्षों को लागू करना एक चुनौती बन गया था.’ इससे पता चला कि हेल्थ रिसर्च के फायदे, कारगर ढंग से उन लोगों तक नहीं पहुंच रहे हैं, जो योजना और कार्यान्वयन के लिए ज़िम्मेदार हैं.

अपने निवासियों के लिए सार्वजनिक स्वास्थ्य के नियम बनाने के लिए, राज्यों को विशिष्ट और स्थानीय तकनीकी सलाह की ज़रूरत होती है. बेहतर तकनीकी क्षमता के साथ, नगर पालिकाएं और निचले सरकारी निकाय, सार्वजनिक स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाली, सफाई और पानी सप्लाई जैसी चीज़ों का कुशलता से प्रबंधन कर सकते हैं. फिलहाल राज्यों के अंदर केवल एक स्वास्थ्य सेवा निदेशालय है, जो ज़्यादातर राज्यों में स्वास्थ्य संबंधी भर्तियों के लिए समन्वय मंच बनकर रह गया है, और जिसमें ज़रूरी वैज्ञानिक सलाह देने की तकनीकी क्षमता नहीं है.

एक्सपर्ट सलाह लेने की राज्य सरकारों की क्षमता के फ्रेमवर्क्स का आभाव इससे ज़ाहिर है कि बहुत से राज्यों को मजबूरी में ऐसे एक्सपर्ट डॉक्टरों की कोविड-19 टेक्निकल टास्क फोर्स बनानी पड़ी, जो सलाहकारों का काम करते हैं. दीर्घकाल में राज्यों की क्षमताओं को बढ़ाने के लिए, अस्थायी टास्क फोर्स गठित करना, बहुत उपयुक्त उपाय नहीं होगा.

राज्य स्तर के सलाहकार निकायों की ज़रूरत

सार्वजनिक स्वास्थ्य शोध के केंद्रीकरण से जुड़ी चिंताओं के समाधान के प्रयास किए गए हैं- नेशनल हेल्थ रिसर्च पॉलिसी 2011 में सिफारिश की गई कि स्थानीय सार्वजनिक स्वास्थ्य क्षमता को सुधारने की खातिर, वैज्ञानिक शोध के लिए फ्रेमवर्क बनाकर, राज्य सरकारों के साथ साझेदारी की जाए. 2011 की पॉलिसी को ही आगे बढ़ाते हुए, नेशनल हेल्थ मिशन 2012-17 में सुझाव दिया गया कि राज्य स्तर पर तकनीकी सहायता देने के लिए, एक स्टेट हेल्थ सिस्टम्स रिसोर्स सेंटर (एसएचएसआरसी) की स्थापना की जाए. ये सही दिशा में उठाया गया एक कदम है लेकिन ये चिंता केवल एक हिस्से का हल करता है.

एसएचएसआरसी की संरचना ही ऐसी है कि इसे राष्ट्रीय सार्वजनिक स्वास्थ्य उद्देश्यों के कुशल कार्यान्वयन के लिए, तकनीकी सहायता देनी होती है. लेकिन इसमें राज्य सरकारों को, स्थानीय स्वास्थ्य समस्याओं के लिए सहायता मांगने का कोई प्रावधान नहीं है.


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इसलिए तुरंत आवश्यकता है कि राज्य स्तर पर एक समर्पित तकनीकी सलाहकार बॉडी बनाई जाए, जो समय-समय पर राज्य सरकारों को सलाह या सिफारिशें दे सके और इनके कार्यान्वयन के लिए सीधे निर्देश जारी कर सके. कर्नाटक और दूसरे बहुत से राज्यों में, नगर नियोजन कानून के अंतर्गत, कुछ हद तक ऐसे तकनीकी सेट अप पाए गए हैं.

कर्नाटक टाउन एंड कंट्री प्लानिंग एक्ट, 1961 के अनुभाग चार के तहत, एक स्टेट टाउन एंड कंट्री प्लानिंग बोर्ड बनाया गया, जिसे राज्य सरकार का प्रमुख तकनीकी सलाहकार माना जाता है और जिसका काम उसे किसी शहर की योजना के तकनीकी पहलुओं पर सलाह देना है. इसी तरह, राज्यों को एक पब्लिक हेल्थ बोर्ड बनाने से भी फायदा होगा जिसके पास राज्य सरकार के भीतर अलग-अलग हितधारकों को, तकनीकी सलाह देने का अधिकार होगा और जो सार्वजनिक स्वास्थ्य संबंधी स्थानीय संकटों से स्वतंत्र रूप से निपटने की बेहतर तैयारी करा सकता है.

(लेखक विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी के रेज़िडेंट फैलो हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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