नई दिल्ली: अप्रैल 2018 की एक तपती दोपहर में, उन्नाव की 18-वर्षीय युवती ने लखनऊ में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के कड़ी सुरक्षा वाले आवास के बाहर खुद को आग लगाने की कोशिश की. यह एक हताश कदम था, जिसका मकसद राज्य को उस बात को मानने के लिए मजबूर करना था, जिस पर वह बार-बार कार्रवाई करने से इनकार करता रहा था—युवती का आरोप कि भारतीय जनता पार्टी के एक ताकतवर विधायक कुलदीप सिंह सेंगर ने पिछले साल उनका बलात्कार किया था और यह कि सिस्टम उसे बचा रहा था.
महिला के आरोपों का सामना प्रशासन की टालमटोल और राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप से हुआ. आखिरकार एफआईआर दर्ज हुई, लेकिन यह न्याय की लंबी राह की बस शुरुआत थी. जेल में रहते हुए सेंगर ने पीड़िता के पिता की हत्या की साजिश रची, जिनकी बाद में न्यायिक हिरासत में मौत हो गई. इसके बाद महिला राष्ट्रीय राजमार्ग पर एक ट्रक की टक्कर में बाल-बाल बची और तब से वह केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) की सुरक्षा में रह रही है.
छह साल बाद, उन्नाव रेप केस को फिर से सार्वजनिक चर्चा में लाने की वजह न तो अपराध है, न धमकियां और न ही सज़ा. वजह है एक न्यायिक आदेश. मंगलवार को दिल्ली हाई कोर्ट ने पूर्व बीजेपी विधायक सेंगर की उम्रकैद की सज़ा को निलंबित कर दिया, जो उसे दिल्ली की एक विशेष सीबीआई अदालत ने सुनाई थी. यह मामला सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर ही राजधानी पहुंचा था, जिसने पीड़िता की जान को गंभीर खतरे का हवाला देते हुए इसे लखनऊ से ट्रांसफर किया था.
हाई कोर्ट के उस आदेश से स्तब्ध होकर, जिसने सेंगर की सज़ा पर असल में रोक लगा दी, पीड़िता और उसकी मां ने इस हफ्ते की शुरुआत में इंडिया गेट पर विरोध किया, लेकिन पुलिस उन्हें उठाकर ले गई. इस घटना पर यूपी मंत्री ओपी राजभर के हंसने का एक वीडियो व्यापक रूप से वायरल हुआ. शुक्रवार को दिल्ली हाई कोर्ट के बाहर कार्यकर्ताओं का एक और प्रदर्शन भी पुलिस ने रोक दिया. सीबीआई ने सेंगर की जमानत को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है, लेकिन पीड़िता की न्याय के लिए नई गुहारों को एक बार फिर अनदेखा करना मुश्किल है.
इसी वजह से, सेंगर उन्नाव रेप केस के साथ मिलकर दिप्रिंट का न्यूज़मेकर ऑफ द वीक है.
‘व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार’
दिल्ली हाई कोर्ट का आदेश सेंगर के वकीलों द्वारा उठाई गई एक कानूनी तकनीकी दलील पर टिका था: क्या पूर्व विधायक को “लोक सेवक” माना जा सकता है या नहीं.
यह दलील उस प्रावधान से जुड़ी थी, जिसके आधार पर ट्रायल कोर्ट ने दिसंबर 2019 में सेंगर को उम्रकैद की सज़ा सुनाई थी: POCSO एक्ट की धारा 5(c), जो किसी लोक सेवक द्वारा “बच्चे के साथ गंभीर यौन हमला” किए जाने पर उम्रकैद की सजा का प्रावधान करती है.
हाई कोर्ट ने कहा कि चूंकि, POCSO एक्ट में “लोक सेवक” की परिभाषा नहीं दी गई है, इसलिए इस शब्द को भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 21 के अनुसार पढ़ा जाना चाहिए. आईपीसी की धारा 21 में लोक सेवकों की अलग-अलग श्रेणियां बताई गई हैं, लेकिन इसमें सांसदों या विधायकों को साफ तौर पर शामिल नहीं किया गया है.

इसी आधार पर अदालत ने कहा कि धारा 5(c) के तहत गंभीर अपराध, जिसके चलते रेप के मामले में सेंगर को उम्रकैद हुई थी, उस पर लागू नहीं होता. यह सीबीआई की विशेष अदालत के रुख से अलग था, जिसने माना था कि लोक सेवक वह होता है जो किसी आधिकारिक पद पर हो और जिसे संविधान के तहत कुछ खास जिम्मेदारियां निभानी हों और इस श्रेणी में सेंगर आते हैं.
जब अदालत ने यह तय कर लिया कि सेंगर लोक सेवक नहीं है, तो उसने पहली नज़र में माना कि वह फिर भी POCSO एक्ट की धारा 3 के तहत दोषी है, जो गंभीर यौन हमले से जुड़ी है. इस धारा के तहत फिलहाल न्यूनतम सज़ा 10 साल की जेल है.
लेकिन सेंगर को मिली राहत यहीं खत्म नहीं हुई. अदालत ने कहा कि चूंकि यह अपराध POCSO एक्ट में 2019 के संशोधन से पहले का है, जिसमें न्यूनतम सज़ा सात साल से बढ़ाकर 10 साल की गई थी—इसलिए पुराना सज़ा ढांचा लागू होगा. इस आधार पर अदालत ने कहा कि सेंगर न्यूनतम सज़ा की अवधि पहले ही पूरी कर चुका है.
पीड़िता की ओर से वकील ने दलील दी कि सेंगर की सज़ा निलंबित करने का फैसला लेने से पहले उसकी दोषसिद्धि के खिलाफ अपील पर सुनवाई होनी चाहिए थी. हाई कोर्ट ने इस तर्क को “आकर्षक” बताया, लेकिन साथ ही कहा कि इसे स्वीकार करने से संविधान के अनुच्छेद-21 का उल्लंघन होगा, जो जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार की गारंटी देता है.
जहां सेंगर के वकील कानून की खामियों पर भरोसा कर रहे थे, वहीं एक दोषी व्यक्ति के मौलिक अधिकारों की रक्षा पर अदालत का जोर उस मामले में खटकता है, जहां पीड़िता और उसके परिवार ने बार-बार धमकियों, हिंसा और नुकसान का सामना किया है.
अदालत ने न तो रेप पर सवाल उठाए और न ही उन अपराधों में सेंगर की दोषिता पर, जिनके लिए उसे सज़ा मिली है—इसी वजह से उसकी सज़ा का निलंबन और भी डरावना लगता है.
अगर कोई थोड़ी-सी राहत की बात है, तो वह यह कि पीड़िता के पिता की न्यायिक हिरासत में हुई मौत के मामले में गैर-इरादतन हत्या (culpable homicide) का दोषी ठहराए जाने के कारण सेंगर अभी जेल से बाहर नहीं आएगा. इस मामले में उसे मार्च 2020 में 10 साल की सज़ा सुनाई गई थी.
‘मामले का एक परेशान करने वाला पहलू’
शुरू से ही हालात पीड़िता के खिलाफ थे.
उत्तर प्रदेश पुलिस द्वारा उसकी शिकायत पर कार्रवाई न करने की खुली ढिलाई इलाहाबाद हाई कोर्ट की नज़र से नहीं बची.
अप्रैल 2018 में अदालत ने कहा, “मामले का एक परेशान करने वाला पहलू यह है कि कानून-व्यवस्था की मशीनरी और सरकारी अधिकारी सीधे तौर पर कुलदीप सेंगर के साथ मिले हुए थे और उसके प्रभाव में थे.”
अदालत ने यह भी कहा, “डॉक्टर ने पीड़िता की मेडिकल जांच नहीं की, न ही शफीपुर के सर्कल ऑफिसर ने अपराध दर्ज किया, जबकि पीड़िता की हाथ से लिखी शिकायत मुख्यमंत्री कार्यालय से भेजी गई थी.”

इसके बजाय, अदालत ने कहा, पीड़िता के पिता को सेंगर के भाई और उसके लोगों ने पीटा. इसी दौरान उसके चाचा पर एक मामूली मामले में केस दर्ज कर दिया गया. गंभीर रूप से घायल होने के बावजूद, मुख्य चिकित्सा अधिकारी ने पिता को “फिट” घोषित कर दिया और उन्हें जेल भेज दिया गया. इसके कुछ ही समय बाद उनकी न्यायिक हिरासत में मौत हो गई.
दो साल बाद, एक विशेष सीबीआई अदालत ने पीड़िता के पिता की हिरासत में मौत के मामले में सेंगर को गैर-इरादतन हत्या (culpable homicide) का दोषी ठहराया. इस मामले में उस समय के थानाध्यक्ष (एसएचओ) और माखी पुलिस स्टेशन के एक सब-इंस्पेक्टर को भी दोषी ठहराया गया. यही सज़ा वह वजह है, जिसकी वजह से रेप केस में उम्रकैद की सज़ा निलंबित होने के बाद भी सेंगर अब तक जेल में है.
पीड़िता के लिए, सेंगर की गिरफ्तारी के साथ ही उसकी पीड़ा खत्म नहीं हुई. जुलाई 2019 में, वह अपने वकील और परिवार के सदस्यों के साथ अपने चाचा से मिलकर लौट रही थी—जो तब रायबरेली जेल में बंद थे—तभी एक तेज़ रफ्तार ट्रक ने उनकी कार को टक्कर मार दी. हादसे में उसकी दो मौसियों की मौत हो गई. पीड़िता और उसका वकील गंभीर रूप से घायल हो गए.
इसके बाद, सुप्रीम कोर्ट ने उन्नाव रेप से जुड़े सभी मामलों को दिल्ली स्थानांतरित कर दिया और पीड़िता की जान को लगातार खतरे को देखते हुए उसे केंद्रीय सुरक्षा देने का निर्देश दिया. इस साल मार्च में भी अदालत ने कहा कि पीड़िता के लिए सीआरपीएफ की सुरक्षा व्यवस्था जारी रहनी चाहिए.
कद में नहीं, लेकिन उन्नाव में बड़ी शख्सियत
अपने माता-पिता के चार बेटों में सबसे बड़े, कुलदीप सेंगर ने राजनीति में कदम 1996 में रखा, जब उन्होंने ग्राम प्रधान का चुनाव जीता. इसके बाद उन्होंने बड़े मंच पर एंट्री की और 2002 में उन्नाव विधानसभा सीट से बहुजन समाज पार्टी के टिकट पर चुनाव जीतकर विधायक बने.
सालों के दौरान उन्होंने कई बार पार्टी बदली. पहला बदलाव 2007 के विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी में जाने का था, जब उन्होंने बांगरमऊ सीट से चुनाव लड़ा और जीता. 2012 में उन्होंने भगवंतनगर से भी जीत दर्ज की. एक दशक बाद, वह बीजेपी में शामिल हुए और मार्च 2017 में बांगरमऊ से विधानसभा चुनाव जीत लिया.
इसके कुछ महीनों बाद, जून में, पीड़िता ने आरोप लगाया कि सेंगर ने उसके पैतृक गांव में अपने कार्यालय में उसके साथ बलात्कार किया.
जिले में ऊंची जातियों और ठाकुरों की बड़ी आबादी होने के कारण, ठाकुर समुदाय से आने वाले सेंगर को सभी पार्टियों में एक चुनावी संपत्ति के रूप में देखा जाता था. उसकी पकड़ को उसके भाइयों मनोज और अतुल ने और मजबूत किया, जो बाहुबली की तरह काम करते थे और उन्नाव में उसके लिए फैसले तय कराने में मदद करते थे.
जिले में सेंगर भाइयों की दबंगई का आलम यह था कि एक बार मनोज पर अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक (एडिशनल एसपी) रैंक के एक अधिकारी पर गोली चलाने का आरोप लगा था. इसके बावजूद, कार्रवाई करने के बजाय 2004 में राज्य पुलिस ने कथित तौर पर समझौता करना ही बेहतर समझा.
सेंगर की ताकत और वह हिम्मत, जिसके तहत उसने न्यायिक हिरासत में पीड़िता के पिता की हत्या की साजिश तक रची, को नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता, चाहे उसकी सज़ा निलंबित करने के पीछे कितनी ही कानूनी तकनीकी वजहें क्यों न हों.
और फिर पीड़िता का सवाल है: “अगर ऐसे मामलों में दोषियों को ज़मानत मिल जाएगी, तो देश की बेटियां कैसे सुरक्षित रहेंगी? हमारे लिए यह फैसला काल (मौत) से कम नहीं है.”
(व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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