नरेंद्र मोदी सरकार का दावा है कि मौलिक अधिकारों की रक्षा के मकसद से शुरू की गई जनहित याचिका (पीआईएल) की व्यवस्था अब एक उद्योग की शक्ल ले चुकी है और यह कुछ लोगों का पेशा बन चुका है. सरकार का यह भी तर्क है कि पीआईएल व्यवस्था के माध्यम से कुछ व्यक्ति और संगठन समानांतर सरकार चलाने का प्रयास कर रहे हैं.
सरकार ने पहले पेगासस जासूसी प्रकरण को लेकर उच्चतम न्यायालय में यही दलील दी थी कि जनहित याचिका दायर करना कुछ लोगों का पेशा बन चुका है. इसके बाद, सरकार ने हाल ही में दिल्ली के पुलिस आयुक्त पद पर राकेश अस्थाना की नियुक्ति को चुनौती देने वाली याचिकाओं के संदर्भ में उच्च न्यायालय में इसी बात को दोहराया है.
देश के संविधान या किसी कानून में जनहित याचिका परिभाषित नहीं है. यह व्यवस्था नागरिकों को संविधान में प्रदत्त मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए उच्चतम न्यायालय की देन है. इस व्याख्या ने मौलिक अधिकारों के दायरे का भी विस्तार किया है और निजता, भोजन, आवास और स्वास्थ्य सुविधाओं को मौलिक अधिकार के दायरे में लाया गया.
संविधान के अनुच्छेद 32 और 226 के अंतर्गत उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों में जनहित याचिका दायर करने का सिलसिला 1980 के दशक में बिहार की जेलों में विचाराधीन कैदियों की अमानवीय स्थिति और भागलपुर जेल में कैदियों की आंखें फोड़ने की घटना शीर्ष अदालत के संज्ञान में लाये जाने से शुरू हुआ था.
जनहित याचिकाओं का दायरा बढ़ा और न्यायालय को इसे नियंत्रित करने की आवश्यकता महसूस हुई. न्यायालय ने फरवरी, 2008 में इस बारे में दिशा-निर्देश तैयार किये जबकि जनवरी, 2010 में एक फैसले में जनहित याचिकाओं की विचारणीयता के बारे में नये निर्देश भी दिये.
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इस समय देश में ऐसे कई संगठन और सामाजिक कार्यकर्ता सक्रिय हैं जिनका काम ही जनहित याचिका दायर करना है. कॉमन कॉज, पीयूसीएल, सेंटर फॉर पब्लिक इंटरेस्ट लिटीगेशंस, सिटीजन फॉर पीस एंड जस्टिस, एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफार्म्स, सेंटर फॉर अकाउंटेबिलिटी एंड सिस्टेमेटिक चेंज, कमेटी ऑन ज्यूडिशियल अकाउंटेबिलिटी, कैंपेन फॉर ज्यूडिशियल अकाउंटेबिलिटी एंड रिफॉर्म्स, मजदूर किसान शक्ति संगठन जैसे अनेक गैर सरकारी संगठन हैं जो जनहित याचिकाओं के माध्यम से जनता के उत्पीड़न, पुलिस अत्याचार और मौलिक अधिकारों के हनन के साथ ही भ्रष्टाचार के मुद्दे उठाते रहते हैं.
इसके अलावा, बड़ी संख्या में अधिवक्ता और सामाजिक कार्यकर्ता भी समय-समय पर जनहित के मुद्दों को लेकर जनहित याचिका दायर कर रहे हैं.
इसी तरह के एक मामले में उच्चतम न्यायालय ने पिछले महीने जनहित याचिका दायर करने वालों को चेतावनी देते हुए कहा कि ऐसा करने वाले व्यक्तियों-संगठनों को पहले संबंधित विषय पर अपना काम करना चाहिए और याचिका के साथ आंकड़ों तथा उदाहरणों के साथ ठोस सामग्री संलग्न करनी चाहिए. यह ध्यान रखना चाहिए कि वे जो भी मन में आये उसके लिए गुहार नहीं लगा सकते हैं.
पीआईएल के माध्यम से सीधे उच्चतम न्यायालय या उच्च न्यायालय में गुहार लगाने की सुविधा प्रदान करने वाले इस हथियार ने नागरिकों के अधिकारों की रक्षा के लिये अनेक फैसले सुनाये लेकिन इस दौरान न्यायपालिका ने यह भी महसूस किया कि इस हथियार का दुरुपयोग भी हो रहा है.
पीआईएल व्यवस्था के दुरुपयोग से चिंतित उच्चतम न्यायालय ने बार बार ऐसे याचिकाकर्ताओं को चेतावनी दी है. न्यायालय बार बार स्पष्ट रूप से आगाह कर रहा है कि राजनीतिक या निजी हित साधने के लिए पीआईएल को पॉलिटिकल इंटरेस्ट लिटिगेशन या प्राइवेट इंटरेस्ट लिटिगेशन नहीं बनाया जाए.
जनहित याचिका के नाम पर दायर अनेक याचिकाओं को न्यायालय ने पाया कि ये पब्लिसिटी के लिए दायर की गयी हैं. ऐसे मामलों में न्यायालय न सिर्फ याचिका खारिज कर रहा है बल्कि याचिकाकर्ता संगठन और व्यक्तियों पर 10 हजार रुपए से लेकर 25 लाख रुपए तक जुर्माना भी किया गया है.
ऐसे ही एक संगठन ‘सुराज इंडिया’ पर न्यायालय ने 25 लाख रुपए का जुर्माना किया था और इसका भुगतान नहीं करने की स्थिति में उसने यह राशि राजस्व बकाया के रूप में वसूल करने का आदेश दिया है.
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इसी तरह, उड़ीसा उच्च न्यायालय के पीठासीन न्यायाधीश की कथित संलिप्तता वाले मेडिकल कालेज रिश्वतखोरी कांड में ‘कैंपेन फॉर ज्यूडिशियल अकाउंटेबिलिटी एंड रिफॉर्म’ की जनहित याचिका खारिज करते हुए उस पर दिसंबर, 2017 में 25 लाख रुपए का जुर्माना लगाया था.
यही नहीं, मोबाइल फोन की 5जी तकनीक के खिलाफ बॉलीवुड अभिनेत्री जूही चावला की याचिका को प्रचार पाने की याचिका बताते हुए दिल्ली उच्च न्यायालय ने जून, 2021 में खारिज कर दिया था. इसके साथ ही न्यायालय ने जूही चावला पर 20 लाख रुपए का जुर्माना भी लगाया था.
जनहित के नाम पर दायर की गयी इन याचिकाओं का खारिज होना और उन पर जुर्माना लगाया जाना अपने आप में ही बहुत कुछ बयां करता है.
पीआईएल की व्यवस्था ने प्रदूषण नियंत्रण, पर्यावरण संरक्षण, जेलों में बंद विचाराधीन कैदियों, मानसिक रोग चिकित्सालयों, वृन्दावन की विधवाओं, संस्थाओं में व्याप्त भ्रष्टाचार और सरकार की योजनाओं-परियोजनाओं से नागरिकों के मौलिक अधिकारों के हनन से संबंधित मामलों में अनेक महत्वपूर्ण निर्णय सुनाये हैं.
दिल्ली के पुलिस आयुक्त पद पर राकेश अस्थाना की नियुक्ति को चुनौती देने वाली याचिका Sadre Alam v. Union of India पर सुनवाई के दौरान सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने तो यहां तक कहा कि कुछ लोगों, जो सरकार चलाना चाहते हैं लेकिन निर्वाचित नहीं हो सके, ने निर्वाचित सरकार की नीतिगत फैसलों को चुनौती देने के लिए पीआईएल का रास्ता अपनाना शुरू कर दिया है. इस मामले में गैर सरकारी संगठन सेन्टर फॉर पब्लिक इंटरेस्ट लिटीगेशंस ने भी हस्तक्षेप किया है.
इसी तरह, हाल ही में जम्मू कश्मीर उच्च न्यायालय ने Nikhil Padha, Human Rights Activist V/s Chairman Human Rights Commission मामले में राज्य के मानवाधिकार आयोग, महिला आयोग, जवाबदेही आयोग और राज्य सूचना आयोग को फिर से खोलने के लिए मानवाधिकार कार्यकर्ता बताने वाले कानून के छात्र की जनहित याचिका खारिज करते हुये उस पर दस हजार रुपए का जुर्माना भी किया. न्यायालय ने तल्ख टिप्पणी की कि हर मर्ज का इलाज पीआईएल नहीं है और कहा कि याचिका के तथ्यों से पता चलता है कि याचिकाकर्ता वास्तविक व्यक्ति नहीं बल्कि एक प्रॉक्सी है.
इसी तरह, शीर्ष अदालत ने इसी साल 9 अप्रैल को काला जादू, अंधविश्वास के चलन और अवैध तथा जबरन धर्म परिवर्तन पर रोक के लिए भाजपा नेता और अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय की जनहित याचिका ASHWINI KUMAR UPADHYAY V S UNION OF INDIA & ORS को प्रचार पाने वाली याचिका बताते हुए इस पर विचार करने से इंकार कर दिया था.
जनहित याचिकाओं के बढ़ते प्रवाह के मद्देनजर शीर्ष अदालत ने पहले 6 फरवरी, 2008 को इसके बारे में विस्तृत दिशा निर्देश तैयार किये. इसके बाद न्यायालय ने एलपी नैथानी को उत्तराखंड का महाधिवक्ता बनाये जाने के खिलाफ State Of Uttaranchal vs Balwant Singh Chaufal & Ors मामले में 18 जनवरी, 2010 कुछ नये निर्देश भी जारी किये. न्यायालय ने कहा था कि जनहित याचिकाओं की शुचिता और पवित्रता बनाए रखने के लिए उसका पालन होना चाहिए.
शीर्ष अदालत 2010 के फैसले में दिये गये निर्देशों के मद्देनजर यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि जनहित याचिका दायर करके कोई संगठन या व्यक्ति अपने निजी हित या गुप्त अभिप्राय तो नहीं साध रहा है. इसलिए जरूरी है कि जनहित याचिकाओं की पड़ताल की प्रक्रिया अधिक कड़ी की जाए ताकि इन्हें दायर करने के बाद आनन फानन में शीघ्र सुनवाई के लिए न्यायालय में इसका उल्लेख नहीं किया जा सके.
जनहित याचिकाओं के माध्यम से उठाए गए मुद्दों से कार्यपालिका काफी असहज महसूस कर रही थी. इस व्यवस्था को अचानक ही न्यायिक सक्रियता का नाम दिया जाने लगा. जनहित के नाम पर अनुच्छेद 32 या अनुच्छेद 226 के दायर मामलों में न्यायिक हस्तक्षेप की वजह से उच्च पदों पर आसीन व्यक्तियों की जवाबदेही तय होने लगी थी.
न्यायिक सक्रियता को लेकर उठ रहे सवालों के मद्देनजर ही न्यायपालिका ने 6 फरवरी, 2008 को जनहित याचिकाओं को नियंत्रित करने के लिए व्यापक दिशा निर्देश तैयार किये थे. इसके तहत मेडिकल और अन्य शैक्षणिक संस्थाओं में प्रवेश, मकान मालिक-किरायेदार विवाद, नौकरी, पेंशन और ग्रेच्युटी तथा कुछ अपवादों को छोड़ केंद्र और राज्य सरकारों के खिलाफ दायर मुकदमों पर जनहित याचिका के रूप में विचार नहीं करने का फैसला किया था.
इन दिशा निर्देशों के तहत मुख्य रूप से दस प्रकार के मामलों को ही जनहित के दायरे में शामिल किया गया था. इनमें बंधुआ मजदूरी, उपेक्षित बच्चे, श्रमिकों को श्रम कानून के तहत न्यूनतम मजदूरी का भुगतान नही करने, श्रमिकों का शोषण, कैदियों की शिकायत, पुलिस द्वारा मामला दर्ज नहीं करने और हिरासत में मौत, महिलाओं के उत्पीड़न से जुड़े मामले, पर्यावरण संरक्षण, प्रदूषण नियंत्रण पारिस्थितिकी असंतुलन, प्राचीन धरोहरों, संस्कृति, वन एवं वन्य जीवों के संरक्षण, खाद्य पदार्थों में मिलावट, दंगा पीड़ित और कुटुंब पेंशन जैसे मामले शामिल किये गये थे.
न्यायालय ने स्पष्ट किया था कि किसी व्यक्ति विशेष या निजी हित से जुड़े मामले जनहित याचिका के रूप में स्वीकार नहीं किए जायेंगे.
केंद्र सरकार ने जनहित याचिका दायर करने वाले कुछ संगठनों पर समानांतर सरकार चलाने के प्रयास और कुछ लोगों द्वारा इस प्रक्रिया को पेशा बनाने के आरोप लगाए हैं. ऐसी स्थिति में उम्मीद की जानी चाहिए कि शायद एक बार फिर न्यायालय इस दिशा में कोई नये कदम उठाये ताकि इस व्यवस्था का महत्व बना रहे और कोई भी अपने हितों की खातिर इसका दुरुपयोग नहीं कर सके.
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(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, जो तीन दशकों से शीर्ष अदालत की कार्यवाही का संकलन कर रहे हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)