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Monday, 22 April, 2024
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बुजुर्गों के हितों की रक्षा का कानून होने के बावजूद क्यों हो रहा है उनका तिरस्कार

स्थिति की गंभीरता और बुजुर्गों को इस दयनीय स्थिति से संरक्षण प्रदान करने के इरादे से 2007 में डा मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार ने ‘माता-पिता तथा वरिष्ठ नागरिक भरण पोषण कानून’ बनाया.

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हमारे सामाजिक मूल्यों में तेजी से आ रहे बदलाव की वजह से आज बुजुर्गों को अपनी ही संपत्ति में सुरक्षित रहने और संतानों की प्रताड़ना से बचने के लिये उन्हें अपने स्वअर्जित घर से बेदखल करने के लिए अदालतों की शरण में आना पड़ रहा है. इस तरह की उद्दंड संतानों को माता पिता के घर से बेदखल करने के आदेश भी अदालत दे रही हैं लेकिन यह सिलसिला बदस्तूर जारी है.

सामाजिक मूल्यों में आ रहे ह्रास का ही नतीजा है कि संपत्ति के लालच में मौजूदा दौर में बेटा-बहू और बेटी द्वारा अपने माता-पिता को बेआबरू करने की घटनाएं और इससे मजबूर होकर बुजुर्गो द्वारा कानूनी रास्ता अपनाने के मामले बढ़ रहे हैं.

परिवारों में बुजुर्ग माता पिता और दूसरे वृद्ध सदस्यों को बोझ समझा जाने लगा है. कई बार तो उन्हें उनके ही स्वअर्जित घर से बेदखल करके दर बदर की ठोकरें खाने के लिये छोड़ दिया जा रहा है या फिर सुशिक्षित बेटे बहू उन्हें वृद्धाश्रम पहुंचा रहे हैं.

अपने ही देश, समाज और घर परिवार में बेगाने होते जा रहे बुजुर्गों की स्थिति पर उच्चतम न्यायालय ने भी चिंता व्यक्त की है. शीर्ष अदालत ने दिसंबर, 2018 में केंद्र और राज्य सरकारों को निर्देश दिया था कि बुजुर्गों के हितों की रक्षा के लिए 2007 में बनाये गये ‘माता पिता और वरिष्ठ नागरिक भरण पोषण कानून’ के प्रावधानों का सख्ती से पालन किया जाए.

शीर्ष अदालत ने Dr. Ashwani Kumar vs Union of India स्वीकार किया था कि संविधान के अनुच्छेद 21 में प्रदत्त जीने के अधिकार को व्यापक अर्थ दिया जाना चाहिए. न्यायालय ने कहा था कि हम कई अधिकारों से सहमत हैं लेकिन फिलहाल हमारा सरोकार तीन महत्वपूर्ण संवैधानिक मौलिक अधिकारों से है.

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संपन्नता की सीढ़ियों में आगे बढ़ रहे पुत्र-पुत्रियों और बहू तथा दामादों के दुर्व्यवहार के कारण घर की चारदीवारी के भीतर रहने वाले विवाद अदालतों में पहुंचने लगे हैं. अपनी संतानों के आचरण से आहत बुजुर्ग माता पिता अब उन्हें अपने मकान से बेदखल कराने जैसे कठोर कदम उठाने लगे हैं.

स्थिति की गंभीरता और बुजुर्गों को इस दयनीय स्थिति से संरक्षण प्रदान करने के इरादे से 2007 में डा मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार ने ‘माता-पिता तथा वरिष्ठ नागरिक भरण पोषण कानून’ बनाया. बुजुर्गों के हितों की रक्षा के मामले में न्यायपालिका ने भी सख्त रुख अपनाया.

यह कानून बनने के बाद महाराष्ट्र, गुजरात, दिल्ली, कर्नाटक, और पंजाब सहित कई राज्यों में संतानों के दुर्व्यवहार से पीड़ित बुजुर्ग माता-पिता अथवा एकाकी जीवन बिताने वाले बुजुर्गो ने अदालतों और न्यायाधिकरणों की शरण ली. अदालतों ने ऐसे मामलों में सारे तथ्यों की विवेचना के बाद ऐसी उद्दंड और गैर जिम्मेदार संतानों, उनकी पत्नियों तथा ऐसे ही दूसरे परिजनों को घरों से बेदखल करने का आदेश भी दिया है.


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बेटियां हैं सदा के लिए

इसी तरह के एक मामले में हाल ही में बंबई उच्च न्यायालय ने बेटे और उसकी पत्नी को अपने पिता का मकान एक महीने के भीतर खाली करने का आदेश दिया है. आशीष दलाल नाम का यह व्यक्ति अपने बुजुर्ग माता पिता की इकलौती संतान है लेकिन इसके बावजूद वह उन्हें बहुत परेशान करता था.

बंबई उच्च न्यायालय ने Ashish Vinod Dalal & Ors. V/s.Vinod Ramanlal Dalal & Ors. प्रकरण में 15 सितंबर को अपने फैसले में कहा कि आशीष दलाल अपने 90 वर्षीय पिता और 89 वर्षीय माता को बहुत परेशान करता था जबकि इस मकान का स्वामित्व इस बुजुर्ग दंपत्ति के पास ही है.

न्यायालय ने कहा कि यह कितने दुख की बात है कि माता-पिता को अपने ही अधिकारों को सुरक्षित करने और अपने ही बेटों के उत्पीड़न से खुद को बचाने के लिए अदालतों का दरवाजा खटखटाना पड़ता है.

इस तरह की घटनाएं उस कहावत को चरितार्थ कर रही हैं जिसमें कहा गया है, ‘बेटियां सदा के लिए हैं और बेटा तब तक बेटा है जब तक उसकी शादी नही हो जाती.’

बंबई उच्च न्यायालय ने इसी तरह के एक अन्य मामले में 65 वर्षीय महिला की याचिका पर जनवरी, 2020 में उसके छोटे बेटे और बहू को मुंबई स्थित फ्लैट खाली करने का आदेश दिया. यह फ्लैट इस महिला के पति ने खरीदा था.

इस मामले में न्यायालय ने यहां तक टिप्पणी की कि जीवन की अंतिम बेला के समय वरिष्ठ नागरिकों के साथ सम्मानजनक व्यवहार किया जाना चाहिए. संतानों का यह कर्तव्य है कि वे अपने माता-पिता और परिवार के अन्य बुजुर्गों की इस तरह से देखभाल करें ताकि वे सामान्य जीवन व्यतीत कर सकें.

कर्नाटक उच्च न्यायालय ने भी बेटे द्वारा अपने बुजुर्ग माता-पिता पर हाथ उठाने की घटना को गंभीरता से लेते हुए फरवरी, 2019 में उसे माता पिता का घर खाली करने का आदेश दिया था.

लेकिन, इस कानून का दुरुपयोग रोकने के इरादे से दिसंबर, 2020 को उच्चतम न्यायालय ने Smt. S Vanitha Vs The Deputy Commissioner , Bengaluru Urban District & Ors. मामले में कहा था कि बहू को उसके साझा वैवाहिक घर से बेदखल करने के लिए इस कानून का इस्तेमाल नहीं हो सकता. न्यायालय ने स्पष्ट किया था कि इस कानून के तहत वृद्ध सास श्वसुर द्वारा हासिल की गयी बेदखली की डिक्री पर महिलाओं को घरेलू हिंसा से संरक्षण कानून के तहत साझा घर में पत्नी के अधिकार को तवज्जो मिलेगी.

इस मामले में बहु का दावा था कि विवादित परिसर घरेलू हिंसा से संरक्षण कानून की धारा दो के तहत उसका साझा घर है. यह संपत्ति महिला के पति ने शादी से कुछ समय पहले खरीदी थी लेकिन बाद में इसे मूल कीमत पर अपने पिता को बेच दी. पुत्र ने जब अपनी पत्नी से तलाक की कार्यवाही की तो पिता ने मकान अपनी पत्नी को उपहार में दे दिया था.

इस मामले में शीर्ष अदालत ने कहा कि साझा घर में बहु के दावे को विफल करने के मकसद और इसकी रणनीति के तहत वरिष्ठ नागरिक कानून उपलब्ध नहीं है. न्यायालय का मत था कि मकान के स्वामित्व का हस्तांतरण हो जाने के आधार पर महिलाओं को घरेलू हिंसा से संरक्षण कानून के तहत प्राप्त संरक्षण से वंचित नहीं किया जा सकता.

अदालतों में अब ‘माता-पिता तथा वरिष्ठ नागरिक भरण पोषण कानून’ के तहत अधिकरणों के बेदखली के आदेश के खिलाफ बड़ी संख्या में मामले पहुंच रहे हैं. इस कानून के तहत वरिष्ठ नागरिकों का परित्याग दंडनीय अपराध है. इस अपराध के लिए कानून में तीन माह की कैद और पांच हजार रुपए तक के जुर्माने का प्रावधान है. लेकिन इसके बावजूद बूढ़े माता-पिता के परित्याग की घटनाएं हो रही हैं.


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90 दिनों में केस का हो निपटारा

इस कानून में बुजुर्गों के हितों की खातिर भरण पोषण न्यायाधिकरण और अपीलीय न्यायाधिकरण बनाने की व्यवस्था है. इन न्यायाधिकरणों को बुजुर्ग नागरिक की शिकायत का 90 दिन में निपटारा करना होता है. भरण पोषण न्यायाधिकरण ऐसे वरिष्ठ नागरिक को दस हजार रुपए तक प्रतिमाह भुगतान करने का उसके बच्चे या संबंधी को आदेश दे सकता है.

सरकार ने वृद्ध माता पिता और परिवार के दूसरे बुजुर्ग सदस्यों के साथ दुर्व्यवहार, उपेक्षा और उनकी संपत्ति हड़पने के लिए घर में ही उन्हें प्रताड़ित करने और उनका परित्याग करने जैसी घटनाओं में वृद्धि को ध्यान में रखते हुए बनाया था.

यह कानून बुजुर्गों के हितों की रक्षा करने में कुछ हद तक सफल भी हुआ है लेकिन ऐसा लगता है कि महानगरों और ऐसे ही प्रमुख शहरों से इतर देश के दूरदराज के इलाकों में बुजुर्गों को इस कानून की ज्यादा जानकारी नहीं है. केंद्र के साथ ही राज्य सरकारों को चाहिए कि बड़े पर इस कानून के प्रति जागरूकता पैदा करने का अभियान चलाए ताकि संपत्ति के लालच में संतानें बुजुर्गों की जिंदगी नरक नहीं बनायें.

बुजुर्गो के अनादर और उन्हें प्रताड़ित किये जाने की घटनाओं के मद्देनजर ही कांग्रेस के वरिष्ठ नेता डा अश्विनी कुमार ने उच्चतम न्यायालय में यह मामला उठाया था.

न्यायालय में न्यायमूर्ति मदन बी लोकूर और न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता की पीठ ने 13 दिसंबर, 2018 को Dr. Ashwani Kumar vs Union of India & Ors. मामले में केन्द्र सरकार को व्यापक निर्देश दिये थे.

न्यायालय ने कहा था कि याचिकाकर्ता डा अश्विनी कुमार ने इन अधिकारों को करीने से पेश किया है और ये हैं: गरिमा के साथ जीने का अधिकार, आवास का अधिकार और स्वास्थ्य का अधिकार. राज्यों का यह कर्तव्य है कि इन मौलिक अधिकारों की सिर्फ रक्षा ही नहीं हो बल्कि इन्हें लागू किया जाये और सभी नागरिकों को यह उपलब्ध भी हो.

माता पिता और वरिष्ठ नागरिक भरण पोषण कानून में बुजुर्ग व्यक्तियों के संरक्षण और उनके अधिकारों को लागू कराने का प्रावधान है. केन्द्र सरकार या राज्य सरकारों को इन्हें सख्ती से लागू करना होगा. इसके लिए कोई बहानेबाजी नहीं चल सकती है.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, जो तीन दशकों से शीर्ष अदालत की कार्यवाही का संकलन कर रहे हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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