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Tuesday, 19 November, 2024
होममत-विमतक्या मोदी हिंदुओं के घाव भर पायें है? उपासना स्थल कानून के खिलाफ दायर PIL इसका जवाब तय करेगा

क्या मोदी हिंदुओं के घाव भर पायें है? उपासना स्थल कानून के खिलाफ दायर PIL इसका जवाब तय करेगा

सुप्रीम कोर्ट ने मोदी सरकार को उपासना स्थलों के कानून को चुनौती देने वाली जनहित याचिका पर अपनी अपनी राय रखने को कहा है.उसका जवाब भारत के परिदृष्य को बदल देगा.

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भावी पीढ़ी द्वारा अपने शासनकाल को किस तरह याद किया जाना पसंद करेंगे: हिंदुओं के लिए एक सुनहरे आनंदमय युग के रूप में जब वे अंततः पीड़ित होने के भाव को भूल गए; या, कथित ऐतिहासिक गलतियों को सही करने के हिंदुओं के लंबे संघर्ष में मिलीजुली सफलताओं और असफलताओं के एक और दौर के रूप में?

हमें जवाब का अंदाजा मिल जाएगा जब मोदी सरकार भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के प्रवक्ता और वकील अश्विनी कुमार उपाध्याय द्वारा दायर उपासना स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम 1991 को चुनौती देने वाली जनहित याचिका पर सुप्रीम कोर्ट के समक्ष अपनी राय रखेंगे.

पूजा स्थल संबंधी अवरोधक

पीवी नरसिम्हा राव सरकार द्वारा लाया गया ये कानून किसी भी उपासना स्थल के ‘धार्मिक चरित्र’ — 15 अगस्त 1947 की स्थिति — में बदलाव पर रोक लगाता है. सिर्फ अयोध्या के रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद को इसमें शामिल नहीं किया गया था जो तब न्यायालय में विचाराधीन मामला था.

इस तरह के बदलावों से संबंधित अदालतों में सभी लंबित मुकदमों और कानूनी कार्यवाहियों को बंद मान लिया गया या उन्हें खत्म कर दिया गया. इस कानून ने अदालतों को पूजा स्थलों के देश की स्वतंत्रता से पूर्व के धार्मिक चरित्र में बदलाव संबंधी याचिकाओं पर विचार करने से भी रोक दिया.

सुप्रीम कोर्ट के पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने 2019 में जब राम मंदिर निर्माण के लिए भूमि आवंटित करते हुए अयोध्या विवाद का निपटारा किया, तो ऐसा लगा था कि उपासना स्थल कानून 1991 का समर्थन करते हुए उसने इस प्रकृति के तमाम भावी विवादों को समाप्त कर दिया है. सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा था, ‘यह कानून…भारतीय राजनीति के धर्मनिरपेक्ष चरित्र, जो संविधान की बुनियादी विशेषताओं में से एक है, की रक्षा के लिए बनाया गया एक विधायी प्रावधान है,…यह एक विधायी हस्तक्षेप है जो हमारे धर्मनिरपेक्ष मूल्यों को प्रतिगामी उपायों के खिलाफ संरक्षण देता है.’

पिछले शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश एसए बोबडे — जो अयोध्या का फैसला सुनाने वाली संविधान पीठ में शामिल थे — की अध्यक्षता वाली एक खंडपीठ उपासना स्थल कानून की वैधता पर सुनवाई करने के लिए सहमत हो गई और उसने इस पर केंद्र सरकार की प्रतिक्रिया मांगी है. इसके दूरगामी निहितार्थ हो सकते हैं.

यदि सुप्रीम कोर्ट 1991 के कानून की पुष्टि करता है, तो अदालतें पूजा स्थलों के कथित स्वतंत्रता-पूर्व रूपांतरणों के बारे में याचिकाओं को नहीं सुन सकती हैं — उदाहरण के लिए, वाराणसी के काशी विश्वनाथ मंदिर के साथ एक चहारदीवारी साझा करने वाली ज्ञानवापी मस्जिद, और मथुरा में कृष्ण जन्मस्थान मंदिर से सटी शाही ईदगाह मस्जिद को हटाने के लिए दायर दीवानी मुकदमे. विश्व हिंदू परिषद (वीएचपी), जिसने अयोध्या आंदोलन का नेतृत्व किया था, का दावा है कि काशी और मथुरा में इन मस्जिदों का निर्माण मुगल काल के दौरान मंदिरों को ढहा के किया गया था. इन मस्जिदों को हटाने के लिए वाराणसी और मथुरा की अदालतों में दीवानी मुकदमे दायर हैं.

अगर सुप्रीम कोर्ट 1947 से पहले के मामलों में अदालती कार्यवाही की अनुमति देते हुए 1991 के कानून को पूरी तरह या आंशिक रूप से अमान्य कर देता है तो आगे कई दशकों तक देश की राजनीति, शासन और अन्य पहलुओं पर इसका असर पड़ेगा.


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विवाद को समाप्त करने का समय?

हालांकि, 1991 के कानून से उत्पन्न कानूनी अड़चनें मोदी सरकार के लिए शायद ही चिंता का कोई विषय है. उक्त कानून पर सुप्रीम कोर्ट के विचारों की परवाह नहीं करते हुए, सरकार जब चाहे संसद के ज़रिए उसे अमान्य कर सकती है. यदि सरकार ऐतिहासिक गलतियों के लिए न्याय की हिंदुओं की मांग का हवाला देते हुए संसद में संशोधन विधेयक लेकर आती है, तो भला कौन विरोध करेगा: ‘ब्राह्मण हिंदू’ और चंडी पाठ करने वाली ममता बनर्जी, या हनुमान चालीसा पढ़ने और रामराज्य का वादा करने वाले अरविंद केजरीवाल, या मंदिरों का दौरा कर रहे अखिलेश यादव, या ‘जनेऊधारी दत्तात्रेय ब्राह्मण’ बन चुके राहुल गांधी, या फिर नवीन पटनायक जो ओडिशा में मंदिरों के नवीनीकरण और सौंदर्यीकरण में व्यस्त हैं?

इसलिए, अब जबकि सरकार शीर्ष अदालत में पेश करने के लिए इस कानून की वैधता पर अपना दृष्टिकोण तैयार कर रही है, असली मुद्दा ये है कि क्या हिंदुओं को पीड़ित होने के अपने दशकों पुराने कथानक को मोदी युग में विराम दे देना चाहिए, या उन्हें तमाम ऐतिहासिक गलतियों को सही किए जाने तक कानूनी और राजनीतिक लड़ाई जारी रखना चाहिए. दूसरे विकल्प में दशकों लग सकते हैं और इसका मतलब होगा कि अयोध्या के फैसले के साथ मोदी युग के दौरान आरंभ प्रक्रिया को योगी आदित्यनाथ, अमित शाह या किसी और को पूरा करना होगा.

अयोध्या मंदिर के भूमि पूजन समारोह के बाद, प्रधानमंत्री मोदी ने उसे ‘सदियों पुरानी तपस्या, बलिदान और संकल्प की परिणति’ का अवसर बताया था. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के प्रमुख मोहन भागवत ने उसे ‘नए भारत की शुरुआत’ करार देते हुए कहा था कि इसने ‘आत्मविश्वास की भावना को वापस लाने का काम किया है जो भारत को आत्मनिर्भर बनाने के अभियान में अनुपस्थित था’. उनके भाषणों से यही धारणा बनी थी कि वे राम मंदिर निर्माण को एक तरह से हिंदुओं के साथ हुई कथित ऐतिहासिक गलतियों के मुद्दे बंद किए जाने से जोड़कर देख रहे हैं. अयोध्या पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद भागवत ने ऐसा ही कुछ संकेत दिया था: ‘संघ किसी भी आंदोलन में शामिल नहीं होता है. हम चरित्र निर्माण की दिशा में काम करते हैं. अतीत में, परिस्थितियां अलग थीं, जिसके कारण संघ को (अयोध्या) आंदोलन में शामिल होना पड़ा. हम एक बार फिर चरित्र निर्माण के लिए काम करेंगे.’ सुब्रह्मण्यम स्वामी और विनय कटियार जैसी इक्की-दुक्की आवाज़ों को छोड़कर, मथुरा और काशी विवादों पर भाजपा की चुप्पी से इस मान्यता को और बल मिला था.


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विरासत बनाम राजनीति

मोदी युग पर इस लेख की शुरुआत में पूछे गए सवाल के जवाब की भविष्यवाणी करना मुश्किल है. जवाब दो कारकों से निर्धारित हो सकता है: प्रधानमंत्री मोदी कौन सी विरासत पीछे छोड़ना चाहते हैं और संघ परिवार के राजनीतिक एवं वैचारिक एजेंडे के प्रचार में इसका कैसे इस्तेमाल होता है.

दूसरे कारक की बात पहले करें, तो जैसा कि मैंने पिछले साल सितंबर में लिखा था, संघ पहले ही यह कहते हुए अपने रुख में बारीक बदलाव करने लगा है कि मथुरा और काशी विवादों के बारे में वह ‘समाज की सोच के अनुरूप’ चलेगा.

राजनीतिक कारणों से देखें, तो भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार अदालत में 1991 के कानून का बचाव करने के लिए शायद बाध्य नहीं हो. 1991 में जब संसद में उससे संबंधित विधेयक पेश किया गया था तब भाजपा ने बहिर्गमन किया था. उमा भारती तब लोकसभा में गरजी थीं: ‘1947 की यथास्थिति बनाए रखने से, ऐसा लगता है कि आप तुष्टिकरण की नीति पर चल रहे हैं. गांवों में बैलगाड़ियों के मालिक बैल की पीठ पर एक घाव बना देते हैं और जब वे चाहते हैं कि उनकी बैलगाड़ी तेजी से भागे, तो वे घाव पर चोट करते हैं. इसी तरह, ये विवाद हमारी भारत माता के ऊपर घाव और गुलामी के निशान हैं. जब तक बनारस में ज्ञानवापी अपनी वर्तमान स्थिति में रहती है और पावागढ़ के मंदिर में कब्र की मौजूदगी रहती है, ये हमें औरंगजेब द्वारा किए गए अत्याचारों की याद दिलाती रहेंगीं.’

आप कह सकते हैं कि एलके आडवाणी और उमा भारती जैसे दिग्गज नेताओं को भाजपा में आज कोई नहीं सुनता. लेकिन सच्चाई यही है कि पार्टी अभी भी हिंदुओं के पीड़ित होने के कथानक पर भरोसा कर रही है क्योंकि वह पश्चिम बंगाल और दक्षिण भारत के नए इलाकों में अपने पांव जमाना चाहती है. ईसाई मुख्यमंत्री के नेतृत्व वाले राज्य आंध्रप्रदेश में बहुसंख्यक समुदाय को संगठित करने के उद्देश्य से भाजपा ने ‘हिंदू धर्म पर खतरे’ को युद्धघोष बना रखा है.

एक तरफ, राजनीतिक और वैचारिक अनिवार्यताएं हैं, जो मोदी सरकार को अदालत में 1991 के कानून का विरोध करने के लिए प्रेरित करती हैं. वहीं दूसरी तरफ, इतिहास में प्रधानमंत्री मोदी का स्थान ऐसे नेता के रूप में सुनिश्चित करने का विकल्प है जिसने हिंदुओं को ‘अतीत के जख्म’ से छुटकारा दिलाया और राम मंदिर निर्माण हेतु भूमि पूजन के ज़रिए भारत के ‘सभ्यतामूलक क्षण’ से साक्षात्कार कराते हुए उनके जीवन में सुलह लाने का काम किया, जैसा कि राजनयिक और शिव त्रयी के लेखक अमीश त्रिपाठी ने दिप्रिंट के प्रधान संपादक शेखर गुप्ता को ऑफ़ द कफ़ में बताया था.

प्रधानमंत्री मोदी के पास विरासत-बनाम-राजनीति के सवाल पर विचार करने का पर्याप्त समय है. सुप्रीम कोर्ट ने 1991 के कानून पर सरकार की राय के लिए कोई समय सीमा निर्धारित नहीं की है. जस्टिस बोबडे अगले महीने रिटायर हो जाएंगे, जिसका मतलब है इस मामले की सुनवाई के लिए खंडपीठ का पुनर्गठन. सुप्रीम कोर्ट में महत्वपूर्ण मामलों पर सुनवाई की गति देखकर भी यही लगता है कि सरकार के पास अपनी प्रतिक्रिया तैयार करने के लिए पर्याप्त समय है. आदर्शत: 2024 के करीब जाकर इस बारे में अधिक स्पष्टता आ सकेगी.

ये लेखक के निजी विचार हैं.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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