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Saturday, 4 May, 2024
होममत-विमतनेटफ्लिक्स पर 'गुंजन सक्सेना' ने मेरी बेटियों की नज़र में मुझे एक मज़बूत महिला की छवि से बेचारी बना दिया

नेटफ्लिक्स पर ‘गुंजन सक्सेना’ ने मेरी बेटियों की नज़र में मुझे एक मज़बूत महिला की छवि से बेचारी बना दिया

रिटायर्ड आर्मी ऑफिसर कैप्टन शिखा सक्सेना लिखती हैं कि 'गुंजन सक्सेना- द कारगिल गर्ल' के हर सीन ने, जिसमें महिलाओं के प्रति पूर्वाग्रह दिखाया गया है, मेरी बेटियों के अंदर सहानुभूति जगाई.

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ये समझने के लिए कि क्या आज के युवा संदर्भ को पकड़ने में सक्षम हैं या वो जानकारी के ड्रामाई चित्रण में बह जाते हैं, मैंने दो घंटे अपनी दो किशोर बेटियों के साथ बैठकर नेटफ्लिक्स पर ‘गुंजन सक्सेना-द कारगिल गर्ल ‘ देखने का फैसला किया.

मैं रिटायर्ड एयरफोर्स ऑफिसर, फ्लाइट लेफ्टिनेंट गुंजन सक्सेना की एक समकालीन थी जिनकी ज़िंदगी पर ये नेटफ्लिक्स पर बनी फिल्म आधारित है. मैं 1994 में आर्मी में आई थी और भारतीय सेना में भर्ती किए गए 100 महिलाओं के पहले ग्रुप में शामिल थी. मैं कह सकती हूं कि मैं उन चंद शुरुआती महिलाओं में से थी, जिन्होंने सीधे तौर पर देखा है कि सशस्त्र बलों के पुरुष प्रधान पेशे में अपनी जगह बनाने के लिए महिलाओं को किस तरह ‘संघर्ष’ करना पड़ता है.

हालांकि मुझे ताज्जुब हुआ कि मैं इस नेटफ्लिक्स मूवी में जान्हवी कपूर के निभाए गुंजन सक्सेना के किरदार के सामने आई तथाकथित चुनौतियों के साथ खुद को नहीं जोड़ पाई, सिवाए उन चुनौतियों के जो इंफ्रास्ट्रक्चर की कमी की वजह से पेश आती थीं- मसलन, लेडी ऑफिसर्स के लिए अलग चेंजिंग रूम.

ये सच है कि आज़ादी के बाद साढ़े चार दशकों तक भारत की सशस्त्र सेनाएं पुरुषों का गढ़ बनी रही, सच्चाई ये भी है कि नियम-कायदे, इंफ्रास्ट्रक्चर और वर्क कल्चर पुरुषों की ज़रूरतों के हिसाब से ढले हुए थे. लेकिन ये सही नहीं है कि 1993 में महिलाओं के लिए द्वार खोलने के बाद सशस्त्र सेनाओं ने इन मसलों पर फिर से निगाह नहीं डाली.


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गलत चित्रण

अपने बच्चों के साथ ‘गुंजन सक्सेना-द कारगिल गर्ल ‘ देखना एक बहुत मुश्किल सुझाव था क्योंकि इसने मेरी बेटियों के दिमाग में इतने सारे सवाल खड़े कर दिए कि वो कनफ्यूज़ हो गईं कि अपनी मां को किस निगाह से देखें. मेरी एक मज़बूत और स्वतंत्र महिला की छवि पर जो हमेशा अपनी जगह डटी रही और जिसने मुस्कुराते हुए जीवन की सभी चुनौतियों का सामना किया, उसपर सवाल खड़े किए जा रहे थे.

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फिल्म के हर सीन ने, जिसमें महिलाओं के प्रति पूर्वाग्रह दिखाया गया है मेरी बेटियों के अंदर सहानुभूति जगाई जिन्हें अचानक लगा कि सेना के अपने दिनों में उनकी मां कितनी ‘बेचारी’ रही होंगी. वो तमाम अनगिनत कहानियां जो मैंने उनके साथ साझा कीं थीं अपनी कामयाबी की, अपने कारनामों की, पर्वतारोहण अभियानों की, राफ्टिंग और स्कीइंग की, इंडियन मिलिटरी अकेडमी (आईएमए) में परमवीर चक्र कैप्टन विक्रम बत्रा और लेफ्टिनेंट सौरव कालिया जैसे ऑफिसर्स की इंस्ट्रकटर होने की, एक ट्रेनिंग बटालियन की एडजुटांट होने की और पता नहीं क्या-क्या. इन सब पर सवाल खड़े किए जा रहे थे.

अचानक, इस पर शक जताया जा रहा था कि सच्चाई क्या है- वो सब यादें जो मैंने उनके साथ साझा की थीं या वो, जो स्क्रीन पर दिखाई जा रही थी? कौन सच बोल रहा था और कौन झूठ बोल रहा था? क्या भारतीय सशस्त्र सेनाओं ने महिलाओं को मज़बूत बनाया या मज़बूत महिलाओं को बदनाम किया? मेरी बेटियों की सूची में बेशुमार सवाल थे.

फिर भी उनका सबसे उचित सवाल ये था कि भारतीय सेना में महिलाओं की भर्ती ने लैंगिक समानता का रास्ता साफ किया या लैंगिक भेदभाव का?

अपनी बेटियों के लिए तो मैं हूं, जो उनके सवालों के जवाब देकर उन्हें वो प्रसंग दे सकती हूं जिससे वो गहराई में जाकर इन गूढ़ शब्दों के अर्थ तलाश सकती हैं. मुझे आसानी से प्रभावित होने वाले उन हज़ारों दूसरे दिमागों की चिंता है, जो अलग-अलग मंचों पर उपलब्ध, जानकारियों के भंवरजाल में खो जाते हैं.

क्या ‘गुंजन सक्सेना-द कारगिल गर्ल ‘ या ऐसी ही दूसरी सामग्री के निर्माता, समाज के प्रति जवाबदेह हैं? क्या कोई मैकेनिज़्म है जिससे कुछ चेक या संतुलन बनाया जा सके? इस समय मेरे पास इन सवालों के जवाब तो नहीं हैं लेकिन यथास्थिति को बदलने का संकल्प ज़रूर है.

(कैप्टन शिखा सक्सेना (रिटा.) 100 से अधिक उन शुरूआती महिलाओं और कुछ चुनिंदा सैपर ऑफिसर्स में थीं जो 1995 में भारतीय सेना में शामिल हुईं थीं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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