करीब आठ महीने से जारी रूस-यूक्रेन युद्ध में आग्नेयास्त्रों की मार करने के दायरे, तेजी, सटीकता और विनाशक शक्ति का पूरा प्रदर्शन हो रहा है. हथियारों की मारक क्षमता का अंदाजा अक्सर उनसे ध्वस्त हुई इमारतों, सड़कों पर पड़े हुए गड्ढों, टेढ़े-मेढ़े हो गए बिजली के खंभों और नागरिकों के शवों से मिलता है. मिसाइल, ड्रोन, तोपें उन प्रमुख अस्त्रों में शामिल हैं, जो आसानी से पहचाने और निशाना बनाए जाने वाले स्थायी ढांचों को हमेशा के लिए नष्ट कर देते हैं.
आग्नेयास्त्रों की प्रभावशीलता और लक्ष्य को बचाने में कठिनाई लक्ष्य की दूरी के अनुपात में होती है. सामरिक इन्फ्रास्ट्रक्चर का स्थान निश्चित करने के मामले में भारत के सुरक्षा योजनाकारों के लिए निश्चित ही यह कोई नया सबक नहीं है. लेकिन ऐसा लगता है कि ऐसे फैसले करने में राष्ट्रीय सुरक्षा के तकाजे को अहमियत न देने की प्रवृत्ति बढ़ रही है.
केंद्र सरकार के दो ताजा फैसले इसका खुलासा करते हैं क्योंकि वे दोनों फैसले गुजरात में सामरिक इन्फ्रास्ट्रक्चर की स्थापना से संबंधित है.
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गुजरात का सामरिक महत्व
गुजरात एक सीमावर्ती राज्य है जिसकी जमीनी और समुद्री, दोनों सीमाएं पाकिस्तान से मिलती हैं. यह राज्य ऐतिहासिक रूप से देश का बड़ा औद्योगिक और व्यापारिक केंद्र रहा है और बड़ी परियोजनाओं को आकर्षित करता रहा है. यहां दवाओं, रसायनों, सेरामिक्स, कपड़ा, वाहनों, कपास के औद्योगिक उत्पादन के अलावा तेल शोधन तथा पेट्रो-केमिकल्स और हीरों की कटिंग तथा पॉलिशिंग उद्योग भी लगे हैं. खेती में गुजरात कपास, मूंगफली, खजूर, गन्ना, दूध और उसके उत्पादों का उत्पादन करता है. इसके समुद्र तटों पर बने कई बंदरगाह राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय व्यापार का जरिया हैं.
जाहिर है, एक आर्थिक केंद्र के रूप में गुजरात का अपना रणनीतिक महत्व है. इस तरह की अहमियत पाकिस्तान से सटे होने के कारण सामरिक दृष्टि से कमजोरी पैदा करती है और यह कमजोरी बढ़ती ही जाएगी क्योंकि पाकिस्तान चीन की मदद से ज्यादा दूरी तक मार करने वाले आग्नेयास्त्र हासिल कर लेगा. इस दिशा में काम चल भी रहा है और जारी रहेगा.
यह तो निश्चित ही है कि भारत के सभी भागों में सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थायी संपत्तियां जमीन या समुद्र पर तैनात अस्त्रों के जरिए चीन और पाकिस्तान के निशाने पर रहेंगे. लेकिन सामरिक दृष्टि से अगर दूरी बेहतर सुरक्षा प्रदान कर सकती है, तो यह सुविधाओं के निर्माण के लिए स्थान के बारे में फैसला करने में भी अपनी भूमिका निभा सकती है. बेशक दूसरे बड़े कारण भी विचारणीय हैं, जैसे मानव पूंजी की उपलब्धता और औद्योगिक तथा प्राकृतिक पारिस्थितिकीय सुविधाएं.
व्यापारिक कारणों की बड़ी भूमिका होती है लेकिन उन्हें इतना महत्व नहीं दिया जा सकता कि रणनीतिक कमजोरी का मामला हो तो भी उन्हें निर्णय प्रक्रिया को प्रभावित करने दिया जाए. सार यह कि निर्णय प्रक्रिया का दायरा इतना बड़ा हो कि वह किसी खास राज्य को हासिल लाभों को भी गौण कर दे.
यह मालूम नहीं है कि सामरिक महत्व के इन्फ्रास्ट्रक्चर को कहां स्थापित करना है, इस बारे में कोई नीति निर्धारित है या नहीं. जो भी हो, मौजूदा दिशानिर्देशों के मुताबिक ऐसे मामलों के बारे में फैसला करते वक्त संबंधित मंत्रालय/विभाग को राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी (एनएसए) की निगरानी में काम करने वाली राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद (एनएससी) को सेवा प्रदान करने वाले सचिवालय (एनएससीएस) से सलाह करनी पड़ती है.
लेकिन ऐसा लगता है कि इस तरह सलाह हमेशा नहीं ली जाती है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 22 अक्टूबर को अपने मंत्रियों और सचिवों को याद दिलाया कि वे नीतियां तय करते समय रणनीतिक दृष्टि से भी विश्लेषण करें. उन्होंने वे उदाहरण भी गिनाए जब एनएससीएस की टिप्पणियों को अपेक्षित महत्व नहीं दिया गया.
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गुजरात के साथ जोखिम पर ध्यान दें
गुजरात के साथ सामरिक दृष्टि से जो जोखिम जुड़ा है उस पर अपेक्षित ध्यान नहीं दिया गया है, खासकर इसलिए कि वहां सेमीकंडक्टर और विमान उत्पादन का बड़े कारखाने लगाने का फैसला किया गया है. इन दोनों के साथ निश्चित ही इन्फ्रास्ट्रक्चर वाला पहलू जुड़ा है जो राष्ट्रीय सुरक्षा के दायरे में आता है. इसकी वजह यह है कि अगर उन्हें नुकसान पहुंचाया गया या नष्ट किया गया तो उससे भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा पर रणनीतिक असर पड़ेगा.
वेदांत-फॉक्सकॉम के संयुक्त उपक्रम के तहत गुजरात में सेमीकंडक्टर फैब्रिकेशन यूनिट, डिस्प्ले फैब्रिकेशन यूनिट और सेमीकंडक्टर एसेंबलिंग तथा टेस्टिंग यूनिट लगाने पर करीब 1.5 लाख करोड़ रुपये का निवेश करने की योजना है. हाल में इसके एमओयू पर राज्य सरकार ने दस्तखत किया और अब ऐसे 1000 एकड़ भूखंड की तलाश की जा रही है जो इन यूनिटों की सख्त शर्तों को पूरा करे.
एक शर्त यह भी है कि जमीन हाईवे से इतनी दूर हो कि वाहनों की आवाजाही से होने वाली कंपन वहां तक न पहुंचे. प्रक्रिया यह होती है कि इस तरह के एमओयू पर केंद्र सरकार के साथ सलाह करने और एनएससीएस से जानकारियां हासिल करने के बाद दस्तखत किए जाते हैं. अगर ऐसी परियोजना के साथ राष्ट्रीय सुरक्षा का पहलू न जुड़ा हो तो इस प्रक्रिया को जरूरी नहीं माना जाता है. अगर ऐसा पहलू जुड़ा हो तो एनएससीएस को मामले पर अपनी राय देने से रोका नहीं जा सकता.
रक्षा मंत्रालय ने 2021 में भारतीय वायुसेना का आधुनिकीकरण करने के लिए इसके एवरो-748 विमानों (जिन्हें 1960 के दशक में शामिल किया गया था) के बेड़े की जगह 56 सी-295 परिवहन विमानों को शामिल करने के लिए एयरबस डिफेंस एंड स्पेस के साथ 21,935 करोड़ रुपये के करारनामे पर दस्तखत किया था. यह आज बहुप्रचारित ‘आत्मनिर्भरता’ की दिशा में एक बड़ा कदम था क्योंकि पहली बार कोई निजी कंसोर्टीयम भारत में सैन्य विमान का उत्पादन करने जा रहा था.
प्रधानमंत्री ने 30 अक्टूबर 2022 को गुजरात के वडोदरा में टाटा-एयरबस कंसोर्टियम की उत्पादन इकाई की नींव रखी. इस इकाई को महाराष्ट्र की जगह गुजरात में लगाने का फैसला राज्य में जारी राजनीतिक उथल-पुथल के कारण किया गया. विपक्ष महाराष्ट्र की शिवसेना-भाजपा सरकार पर आरोप लगा रहा है कि वह सोती रही और गुजरात ने निवेश का मौका उससे हड़प लिया. लेकिन इस पर गंभीरता से विचार करने के जरूरत है कि इस इकाई के लिए स्थान का चुनाव करने में दीर्घकालिक जोखिम के पहलू पर ध्यान दिया गया या नहीं.
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सुरक्षा की योजना बनाने वाले योजनाकार
वेदांत-फॉक्सकॉम सेमीकंडक्टर इकाई समेत जिन मसलों को लेकर ऊपर जो सवाल उठाए गए हैं उनके जवाब केंद्र सरकार की ‘क्लासिफाएड’ फाइलों में दबे रहेंगे. लेकिन रणनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण इन्फ्रास्ट्रक्चर के लिए स्थान के चयन से संबंधित नीतिगत दस्तावेज़ के बारे में संसद में सवाल न उठाने का कोई कारण नहीं है. सेमीकंडक्टर और परिवहन विमान निर्माण की परियोजनाओं को गुजरात में ही क्यों लगाया गया जबकि भारत की महाद्वीपीय गहराई के मद्देनजर उसके साथ जोखिम जुड़ा है?
यह भी हो सकता है कि संसद में पूछे गए सवाल का जवाब बहुत कुछ बताने की जगह बहुत कुछ छिपा ले जाए. लेकिन इससे सुरक्षा संबंधी योजनाएं बनाने वालों को रणनीतिक निर्णय प्रक्रिया में सुधार लाने के लिए उपयुक्त कार्रवाई करने की प्रेरणा मिल सकती है. यह कम-से-कम उस फाइल पर ऐसी पेशेवर राय जाहिर करना आसान बना सकता है जिसे राजनीतिक नेतृत्व खारिज करने से हिचक सकता है. इसकी वजह यह है कि राष्ट्रीय सुरक्षा के मसले को संकीर्ण राजनीतिक विचारों की खातिर कम-से-कम कागज पर तो दबाया नहीं जा सकता. अधिकतर नेता लोग यह नहीं चाहेंगे कि उनकी घरेलू मजबूरियां कागज पर उजागर हों.
अगर उक्त दोनों परियोजनाओं को रणनीतिक पहलू की छलनी से जांचने के कोई दस्तावेज़ उपलब्ध नहीं हैं तो उन्हें रणनीतिक तथा सुरक्षा संबंधी परिप्रेक्ष्य के साथ-साथ जवाबदेही संबंधी पहलू के आधार पर भी कबूल नहीं किया जा सकता. ऐसे मामलों में अधिक सावधानी बरतने की निश्चित ही जरूरत है.
(लेफ्टिनेंट जनरल (डॉ.) प्रकाश मेनन (रिटायर्ड) तक्षशिला इंस्टीट्यूट में सामरिक अध्ययन कार्यक्रम के निदेशक, राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय के पूर्व सैन्य सलाहकार हैं. उनका ट्विटर हैंडल @prakashmenon51 है. व्यक्त विचार निजी है)
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