जनरल परवेज़ मुशर्रफ के लिए पुण्यस्मृति लेख लिखने का अभी समय नहीं आया है. इसकी तीन वजहें हैं.
पहली यह कि शरीर के तमाम अंग नाकाम हो जाएं फिर भी जीवनरक्षक आधुनिक तकनीक से उसे लंबे समय तक जिलाए रखा जा सकता है.
दूसरी वजह यह है कि 15 साल पहले अपने और अपने पड़ोसी मुल्क को यातना देने वाला शख्स अपने देश के लिए आज महत्वहीन हो चुका है इसलिए आप कह सकते हैं कि वे रहे या न रहे, इससे क्या फर्क पड़ता है.
और तीसरी वजह यह है कि दुष्ट माने जाने वाले तानाशाह और खासकर वर्दी वाले तानाशाह कभी मरते नहीं. वे विनाश और विद्वेष की स्थायी विरासत छोड़ जाते हैं.
उनका स्थायी कुप्रभाव क्या हो सकता है, यह पाकिस्तान को हमेशा के लिए, वे जो नुकसान पहुंचा गए हैं उससे आंका जा सकता है. न केवल उन्होंने एक निर्वाचित नेता (जुल्फ़ीकार अली भुट्टो) का तख्ता पलटा और उनकी हत्या भी कारवाई, बल्कि जिहादी सोच की नींव भी डाल दी.
आज भी, कहा जा सकता है कि ‘ज़ियावाद’ ही पाकिस्तान की प्रचलित राजनीति पर हावी है. लेकिन इससे पाकिस्तान का शायद ही कोई भला हुआ है, जबकि भारत जैसे पड़ोसी देशों और काफी चहेते अमेरिका जैसे देशों का तो बुरा ही हुआ है. पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था और उसका समाज जिस बदहाली में आज है उसका श्रेय फौजी इस्लामवादियों और निर्यात योग्य जिहाद को ज़िया की ओर से मिली शह को ही जाता है.
ज़िया ने जहरीले पेड़ का बीज डाला और उसे पाला-पोसा, मुशर्रफ ने सोचा कि वे इस पेड़ से मिले फल तोड़कर अपने मुल्क के ऐतिहासिक हीरो बन जाएंगे. लेकिन वे ज़ीरो बन गए, बल्कि संविधान को नष्ट करने के कारण देशद्रोह के लिए सजायाफ्ता हुए, एक सुनवाई अदालत ने उन्हें फांसी की सज़ा दे दी और बाद में तकनीकी कारणों के हवाले से उन्हें फांसी से राहत मिली.
शीर्ष अदालत ने कहा कि जो शख्स खुद मौजूद न हो उस पर मुकदमा चलाना इस्लामी कानून के तहत गलत है. उनकी ज़िंदगी अब दुबई के किसी अस्पताल में कभी कभार ट्विटर पर शेख़ी बघारने या रोगी के रूप में अपनी तस्वीरें पोस्ट करने में सिमट गई है.
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पिछले चार दशकों में, मुशर्रफ ही पाकिस्तान के एक ऐसे अहम नेता रह गए जिनका मैं औपचारिक इंटरव्यू नहीं ले सका. सच्ची बात यह है कि मैंने कभी उनसे इसके लिए समय मांगा ही नहीं. वैसे, कभी अकेले में या कुछ लोगों के बीच उनसे खुली बातचीत होती रही. वे सबसे अहंकारी और सबसे कम बौद्धिक क्षमता वाले नेताओं में हैं.
1999 में उन्होंने जो तख्तापलट किया वह आसान ही था. पाकिस्तान में कोई फौजी तख्तापलट विफल नहीं हुआ, सिवा 1951 की पहली तथाकथित ‘रावलपिंडी साजिश’ के. वह ‘साजिश’ शायद इसलिए नाकाम हुई क्योंकि उसका नेतृत्व शायर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ समेत दूसरे वामपंथियों के हाथ में था. पाकिस्तान में पद पर बैठे सेनाध्यक्ष के लिए सत्ता हासिल करना वैसा ही है जैसे 111 ब्रिगेड के कुछ लड़कों को निर्वाचित नेता के घर भेजकर चाबियां मंगा लेना. अहम बात, जो कि मुशर्रफ की विरासत के मामले में मूल बात है, वह यह है कि वह तख्तापलट क्यों किया गया.
उस साल की शुरुआत फरवरी में अटल बिहारी वाजपेयी की बहुचर्चित लाहौर बसयात्रा और ‘लाहौर घोषणा’ से हुई थी, जिसने रिश्ते में तनाव घटने का संकेत दिया था. यह इतना नाटकीय था कि वाजपेयी ‘पाकिस्तान का इंडिया गेट’ मानी जाने वाली ‘मीनार-ए-पाकिस्तान’ की सीढ़ियों पर भी चढ़े और कहा कि स्थिर और खुशहाल पाकिस्तान भारत के हित में है. उधर, मुशर्रफ इन तमाम कोशिशों को पलीता लगाने के लिए करगिल हमले की साजिश कर रहे थे.
करगिल में वे नाकाम रहे, उनके वजीरे आजम ने उन्हें बर्खास्त कर दिया लेकिन मुशर्रफ अमन की उन कोशिशों को नाकाम करने से बाज नहीं आए. करगिल युद्ध में हार से पस्त अपने जनरलों को उन्होंने अपने साथ कर लिया और तख्ता पलट दिया. अमन भंग हुई, कश्मीर घाटी में अभूतपूर्व खूनखराबा शुरू हो गया. आईएसी-814 विमान का अपहरण, बंधक बनाए गए विमान यात्रियों के बदले खूंखार आतंकवादियों की रिहाई, श्रीनगर विधानसभा में बमबारी (1 अक्टूबर 2001) और फिर 13 दिसंबर 2001 को भारतीय संसद पर हमला, इन सबने उनके मुल्क को 1971 के बाद फिर भारत के साथ युद्ध के कगार पर पहुंचा दिया.
अमेरिका के 9/11 कांड के बाद मुशर्रफ ने पाकिस्तान को फिर उसके प्रमुख सहयोगी के तौर पर पेश किया, जबकि अल-कायदा और तालिबान के साथ मिलीभगत करके अमेरिका को धोखा भी देते रहे. उनका खेल पकड़ा गया लेकिन इसलिए नहीं कि अमेरिका को ज्ञान मिल गया था.
पहली बात तो यह कि जिन जिहादियों को उन्होंने शह दी वे ही उनके काबू से बाहर हो गए. वे सरकार के अंदर एक सरकार जैसे बन गए और उन्हें यह मंजूर नहीं था कि पाकिस्तान ‘आतंक के खिलाफ जंग’ में अमेरिका का पार्टनर बने. इन वफादारों ने उनकी जिंदगी पर कई हमले करने की कोशिशें की लेकिन वे बच गए. उनका अंत भी उसी आत्मघाती सोच के कारण हुआ जिससे सभी तानाशाह ग्रस्त होते हैं, कि वास्तव में वे एक लोकतांत्रिक हैं और वे लोकतंत्र के बारे में उबाऊ तथा अनाड़ी किस्म के सिविल शासकों से कहीं ज्यादा जानकारी रखते हैं.
पाकिस्तान के हर तानाशाह ने अपनी तरह का लोकतंत्र लागू करने की कोशिश की. फील्ड मार्शल अय्यूब खान इसे ‘निर्देशित लोकतंत्र’ कहते थे, याहया खान तब तक कुछ राजनीतिक गतिविधियों, चुनाव तक की इजाजत देने को तैयार थे जब तक उनकी गद्दी सलामत रहे. ज़िया ने फर्जी रायशुमारी के बूते अपनी सत्ता मजबूत करके ‘दलविहीन’ लोकतंत्र का प्रयोग किया.
मुशर्रफ ने भी अपने ‘सीवी’ में लोकतंत्र के साथ प्रयोग का अध्याय जोड़ा, नया संविधान लाने की कोशिश की, उच्च न्यायपालिका से लड़ाई की और अंततः सड़कों पर छिड़े लोकतंत्र समर्थक आंदोलनों के हाथों अपनी कुर्सी गंवा दी. अब वे उस शख्स से बिल्कुल अलग दिखते हैं, जो अहंकार से अकड़ते हुए आगरा शिखर सम्मेलन में भाग लेने के लिए आया था, जिसके बारे में आई.के. गुजराल सरीखे शांतिवादी तक ने कहा था कि वे तो ऐसे पेश आ रहे थे मानो एक विजेता हों और हारे हुए मुल्क में आए हों.
2007 तक आकर मुशर्रफ नेता के रूप में चूक गए थे लेकिन तब तक उन्होंने काफी नुकसान कर डाला था. यह हमने बेनज़ीर भुट्टो की हत्या, भारत में 26/11 के हमलों और ओसामा बिन लादेन के ऊपर छापा मारने के लिए एबटाबाद में अमेरिकी सैनिकों के हमले के रूप में देखा.
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पाकिस्तान के किसी फौजी तानाशाह के ‘मैं भी लोकतंत्रवादी!’ मुगालते का जायजा लेने के लिए मैं मुशर्रफ के उस व्याख्यान का जिक्र करना चाहूंगा, जो उन्होंने 2004 के ‘इंडिया टुडे कॉनक्लेव’ में दिया था. एक आमंत्रित दर्शक के रूप में मैंने एक सवाल पूछते हुए उन्हें याद दिलाया था कि उस साल कई लोकतांत्रिक देशों में चुनाव होने जा रहे हैं, तो आप पाकिस्तान में कब चुनाव करवा रहे हैं?
वे नाराज हो गए थे, आप कैसे कह सकते हैं कि आप लोकतांत्रिक देश हैं और हम नहीं हैं? यह पाकिस्तान के आंतरिक मामले में दखलंदाजी है, वगैरह-वगैरह. आप इस प्रसंग का वीडियो और रिपोर्ट इंडिया टुडे की वेबसाइट पर देख सकते हैं.
1999 में जब उन्होंने सत्ता संभाल ली तब मैंने ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में लिखा था कि उन्हें मालूम होना चाहिए कि पाकिस्तान के किसी तानाशाह का इन तीन में से ही एक हश्र होता है— या तो उसका उत्तराधिकारी उसकी हत्या करवा देता है या उसे जेल में बंद कर दिया जाता है या भारत के साथ लड़ाई शुरू करके और हार का मुंह देखने के बाद वह देश से निष्कासित कर दिया जाता है. इसलिए मुशर्रफ भी अच्छे जनरलों की तरह गोल्फ खेलते रहने के लिए रिटायर नहीं हो सकते थे. वे यह चाहते भी नहीं थे.
दावोस के अपनी नियमित दौरों में से एक में, संपादकों के एक समूह के साथ बातचीत के दौरान उन्होंने मुझे ढूंढा. हम विदा ले रहे थे कि उन्होंने मेरी तरफ उंगली हिलाते हुए कहा कि ‘आप फलाने जी… आप तो पाकिस्तान की सियासत के अच्छे जानकार होते हैं. हम अपने अकादमियों में आने वाली ‘इंडिया टुडे’ में आपको पढ़ते रहते हैं. यह कहते हुए उन्होंने मेरे पूर्व संपादक की ओर देखा, मानो उनकी रजामंदी हासिल करना चाहते हों. फिर उन्होंने कहा, ‘लेकिन अब आप कुछ नहीं जानते.’
मैंने पूछा, ‘ऐसा क्यों जनरल साहब?’
‘क्योंकि आप यही लिख रहे हैं कि पाकिस्तान के तानाशाह का तीन में से ही एक हश्र होता है— कत्ल, जेल या देश निकाला.’
मैंने कहा, ‘लेकिन आप पाकिस्तान का इतिहास देख लीजिए.’
उस संक्षिप्त बातचीत को खत्म करने के अंदाज में उन्होंने कहा, ‘इतिहास को भूल जाइए. बुनियादी गलती तो आप यही कर रहे हैं कि मुझे तानाशाह मान रहे हैं. पाकिस्तानी मीडिया में अपने दोस्तों से पूछ लीजिए, मैं उन सबको जानता हूं. उनसे पूछ लीजिए, क्या उन्हें अब तक ऐसी आज़ादी हासिल थी?’
आज अगर वे अपने जीवन पर नज़र डालें तो कबूल करेंगे कि उन्होंने क्या कुछ किया. भारत से एक लड़ाई शुरू की और हार गए, देश से निकाले गए और फांसी के फंदे से इसलिए बच गए क्योंकि वर्दी वाले ‘उनके लोग’ अपने पूर्व चीफ को फांसी चढ़ते नहीं देख सकते थे.
मुशर्रफ तो इस्लामी ज़िया के 1 फीसदी के बराबर भी नहीं थे. लेकिन अपनी तरह से उन्होंने पाकिस्तान के भविष्य को भारी नुकसान पहुंचाया. इतिहासकार लोग दशकों तक इस पर बहस करते रहेंगे कि किस तानाशाह ने पाकिस्तान को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया. तब ज़िया से मुकाबले में एक नाम उभर आएगा.
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