झारखंड में चुनाव परिणाम भाजपा के पक्ष में गया. राज्य की कुल चौदह में से दो सीटें महागठबंधन के पक्ष में गयी. सिंहभूम सीट कांग्रेस के पक्ष में और राजमहल सीट झामुमो के पक्ष में.
शेष बारह सीटें एनडीए के पक्ष में गयीं, वह भी ज्यादातर अच्छे खासे वोटों के अंतर से. त्रासद तो यह कि तमाम विपक्षी दिग्गज नेता चुनाव हार गये. चाहे वे झामुमो सुप्रीमो शिबू सोरेन हों या फिर झारखंड के पहले मुख्यमंत्री रहे बाबूलाल मरांडी. निराशाजनक यह कि आदिवासियों पर दमन के लिए चर्चिच रहे इलाकों की गोड्डा और खूंटी सीटें भी भाजपा के पक्ष में चली गयी, जहां ऐसा माना जा रहा था कि भाजपा सरकार की दमनकारी नीतियों के खिलाफ जनता में आक्रोश था. इस लिहाज से चुनाव परिणाम स्तब्धकारी रहे हैं.
गठबंधन की हार के कारणों की समीक्षा जारी
कई सामाजिक कार्यकर्ताओं की समझ यह कि भाजपा की यह जीत ईवीएम के दुरुपयोग से हुई है. नेता भी निजी बातचीत में ये कह रहे हैं. लेकिन न राजनीतिक दल और न ही जन आंदोलनों से जुड़े युवा ये मानने को तैयार हैं कि गठबंधन की कमजोरियां या सामाजिक चेतना और परिस्थिति में आया क्रमिक बदलाव भी इस हार की वजह हो सकती है.
ईवीएम के दुरुपयोग को लेकर अभी विवाद हैं और मामला अदालत में भी है, इसलिए इस बारे में अंतिम तौर पर कुछ कह पाना मुमकिन नहीं है. लेकिन कुल मिलाकर हार का ठीकरा इवीएम पर फोड़ना गलत होगा. देश भर में भाजपा बढ़त में दिखती है और अगर ये जीत ईवीएम से मिली होती, तो इसके खिलाफ आंदोलन शुरू हो गया होता. हारे हुए दल भी इस मामले में कोई आंदोलन खड़ा करते नहीं दिखते.
2019 है झारखंड का चुनावी साल
झारखंड में इसी साल के अंत में विधानसभा चुनाव होने हैं. बीजेपी ने फिलहाल अपनी बढ़त बना ली है. झामुमो नेता हेमंत सोरेन ने आहृवान किया है कि विधान सभा चुनाव में हम भाजपा को उखाड़ फेकेंगे. मगर कैसे, यह किसी को नहीं मालूम? मौजूदा गठबंधन का सामाजिक समीकरण, ऐसी ही परिस्थिति में बीजेपी को कैसे हरा पाएगा, इसका जवाब हेमंत सोरेन के बयान में नहीं है.
यह भी पढ़ें: एक चुनाव से दूसरे चुनाव के बीच इतने अमीर कैसे हो जाते हैं नेता?
भाजपा अब तक शहरी क्षेत्र में सफल मानी जाती थी. लेकिन अब ग्रामीण इलाकों में भी उसके पक्ष में मतदान का प्रतिशत बढ़ा है. चुनाव प्रचार, रैलियों, और रोड शो आदि में भाजपा का दबदबा साफ नजर आया. ये हो सकता है कि संसाधन जुटाने में बीजेपी बाकी दलों से काफी आगे निकल गई हो. रांची के महत्वपूर्ण मोराबादी में महागठबंधन एक बड़ी संयुक्त रैली तक नहीं कर सका. ये सिर्फ संसाधनों की कमी की मामला नहीं हो सकता.
महागठबंधन में आपसी खींचतान का असर
महागठबंधन में शामिल दलों का रिश्ता आपस में कैसा था, इसका अंदाजा हेमंत सोरेन के कांग्रेस के बारे में इस बयान से लगता है कि ‘बड़ी छलांग के लिए कंकर, पत्थर का भी सहारा लेना पड़ता है.’ हेमंत सोरेन और बाबूलाल मरांडी हमेशा एक दूसरे से मुंह चुराते रहे. इसकी वजह से जनता में यह संदेश गया कि यह विपक्षी एकता कृत्रिम है. राष्ट्रीय परिदृश्य भी कुछ ऐसा ही था, जिसका प्रभाव झारखंडी जनता पर भी पड़ा. क्षेत्रीय दलों के साथ कांग्रेस का तालमेल कहीं भी सहज नहीं दिखा.
झारखंड में अगड़ी जातियां ज्यादातर भाजपा के साथ गोलबंद थीं. गठबंधन में शामिल राजद की छवि यादवों की पार्टी के रूप में बन गई है. अन्य पिछड़ी जातियां भाजपा की मुखापेक्षी बनती जा रही है. पिछड़ी जातियों, अति पिछड़ी जातियों और दलितों के आपसी अंतर्विरोध भी सामने आ रहे हैं. झारखंड में जिस तरह के परिणाम सामने आये हैं, उनसे लगता है कि सदानों (गैर आदिवासी झारखंडी आबादी) ने बड़ी संख्या में भाजपा के पक्ष में वोटिंग की है.
रही बात आदिवासियों की, तो ईसाई मिशनरियों के खिलाफ मुहिम चला कर भाजपा ने ईसाई आदिवासियों और गैरईसाई आदिवासियों के बीच दरार पैदा कर दी है. गैर ईसाई आदिवासियों के एक हिस्से को साथ लेने में बीजेपी सफल रही है. वरना अपने गढ़ संथाल परगना में शिबू सोरेन पराजित नहीं होते.
यह भी पढ़ें: झारखंड में महागठबंधन में दिखने लगीं दरारें
दरअसल, जनता अपने नेताओं के पाखंड से भी निराश है. नेता खुद चर्च और मंदिर के चक्कर लगायेंगे और आदिवासी जनता को कहेंगे कि तुम प्रकृति पूजक हो तो लोग ऐसे नेताओं की क्यों सुनेंगे? नेता अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में पढ़ायेंगे और आदिवासियों को अपनी भाषा बचाने की शिक्षा देंगे, तो इसकी कितनी विश्वसनीयता होगी? सीएनटी एक्ट और पेशा कानूनों के लिए नारे बुलंद करने करने वाले कई नेता जमीन की खरीद फरोख्त में लगे हैं.
झारखंड में आंदोलनकारियों के एक हिस्से में भारतीय लोकतंत्र और संसदीय प्रणाली को लेकर संदेह भी हैं. उनका मानना है कि आदिवासियों को संसदीय प्रणाली से कोई फायदा नहीं. खूंटी में पत्थरगड़ी आंदोलन के प्रभाव वाले इलाके में छिटपुट चुनाव बहिष्कार भी हुआ. लेकिन ज्यादातर लोगों ने मतदान में हिस्सा लिया. लेकिन जिन लोगों ने मतदान में हिस्सा नहीं लिया, वह मुख्य रूप से बीजेपी विरोधी वोट था, इसलिए मतदान बहिष्कार का लाभ प्रकारांतर से बीजेपी को ही हुआ.
लेकिन झारखंडी बुद्धिजीवी और आंदोलनकारी अभी भी ईवीएम को लेकर उलझे हुए है या फिर मतों के जोड़ घटाव और गणना में लगे हुए हैं. ऐसे में झारखंड के विधानसभा चुनाव के लिए रणनीति बनाने का काम अधूरा पड़ा है.
(लेखक जयप्रकाश आंदोलन से जुड़े रहे. समर शेष है उनका चर्चित उपन्यास है)
पुरूष व सवर्ण श्रेष्ठता, हमारे सामाजिक व पारिवारिक प्रशिक्षण का हिसा आज भी व्याप्त है। इस वजह से दलित महिला होने के नाते उसे दोनों ही दृष्टि से निम्नत्तर समझा जाता है। यहां तक कि सवर्ण महिलाऐं भी इसलिए पीड़ित दलित महीला के पक्ष म्ं खड़ी नहीं होती क्योंकि उन्हें यह छोटी मोटी भूल के सिवाय कोई बड़ा अपराध नजर नहीं आता।