महान नाटककार रतन थायिम ने तबाही से पहले यहां-वहां हर जगह उन्मादी पागलपन देखा. रामायण के महान युद्ध में लड़ाई लड़ने वाला एक बंदर जो कि युद्ध के बाद जिंदा बचा था, वह डार्विन की फोटो के सामने रो रहा था. एक श्राप ने बंदर को आदमी बनने से रोक दिया, लेकिन उसकी मदद करने का वादा करने वाला पुजारी माओत्से तुंग का अनुयायी बन गया था. कौरवों ने कुरुक्षेत्र की लड़ाई जीत ली थी, और सड़कें सस्ती कीमत पर नए धर्मों की पेशकश करने वाले धर्मोपदेशकों से भरी हुई थीं.
जब से पिछले महीने मणिपुर में बर्बर जातीय सफाया (Ethnic Cleansing) शुरू हुआ था- जिसने दसियों हज़ार से ज़्यादा लोगों को बेघर कर दिया और सैकड़ों लोगों की जिंदगियां खत्म कर दी – थायिम की अतियथार्थवादी कविता प्रशासकों, जासूसों और विशेषज्ञों की राय की तुलना में वास्तविकता को ज़्यादा सटीक तरीके से बयान करती है.
भारत सरकार ने कुकी विद्रोहियों को कैंपों में रहने की एवज़ में 6 हज़ार रुपये प्रति माह देकर चतुराई से 2006 के बाद से विद्रोही समूहों को राज्य-वित्तपोषित उद्यम (venture) में बदल दिया था. आत्मसमर्पण करने वाले विद्रोहियों को चुनावी कैंपैनर्स में बदलने के लिए पेमेंट की बकाया को चतुराई से यूज़ किया गया.
सभी समुदायों में आभिजात्य वर्ग को बड़े पैमाने पर ठेके दिए गए ताकि उन्हें भ्रष्ट बनाकर अपने लाभ के लिए उपयोग किया जा सके. राज्य ने स्थानीय ड्रग ट्रैफिकिंग और जबरन वसूली पर जानबूझकर ध्यान नहीं दिया.
जैसा कि बाद की सरकारों ने दावा किया कि वे शांति स्थापित कर रहे हैं, लेकिन वे एक डिस्टोपिया या अशांत माहौल का निर्माण कर रहे थे. कई कहानियां हैं जो मणिपुर के बारे में अलग-अलग बातें कहती हैं लेकिन, कुकी युद्ध में क्यों शामिल हुए, इसकी कहानी मणिपुर में हो रहे संघर्ष की परतें खोलने में मदद करती है.
आधुनिक दुनिया का सामना करना
इतिहासकार राधिका सिंगला लिखती हैं कि मजदूरों की भारी कमी से जूझ रहे इंपीरियल ब्रिटेन को Ypres और Flanders के नरसंहार के बाद सेवा करने के लिए भारतीय श्रमिकों की ज़रूरत थी. अन्य देशी शासकों की तरह मणिपुर के महाराजा ने नागा, लुशाई और मैतेई-समुदाय के लोगों को उपलब्ध कराया, जिन्होंने, औपनिवेशिक सेना के अधिकारी लेस्ली शेक्सपियर के मुताबिक, “कई मामलों में सीमा अभियानों में पहले सरकार के लिए इस तरह का काम किया था, और काम को जानते थे.” इसके बदले में उन्हें आजीवन बंधुआ मजदूरी से मुक्ति दे दी जाती थी.
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1891 में मणिपुर को ब्रिटिश भारत में शामिल किए जाने से पहले दासता को राजशाही व्यवस्था में शामिल कर लिया गया था, और फिर नाममात्र-स्वतंत्र राज्य बनने की अनुमति दी गई थी. राजा द्वारा किसी को व्यक्तिगत संपत्ति की तरह रखना समाप्त हो गया, लेकिन अंग्रेजों ने अक्सर अपनी ज़रूरतों के हिसाब से बंधुआ मज़दूरी का उपयोग करना जारी रखा.
मानव विज्ञानी जेम्स स्कॉट ने बताया कि पहाड़ियों के लोगोंके पास शासित न होने की कला है. जिसके लिए वे इन इलाकों का बखूबी इस्तेमाल करते हैं. पहाड़ी लोगों ने राज्य की गुलामी, छापेमारी, सेना में जबरन भर्ती, टैक्स और बंधुआ मजदूरी से बचने के लिए अपने पहाड़ी इलाकों का इस्तेमाल किया.
हालांकि, औपनिवेशिक विमर्श ने कुकी को वहशी लुटेरों के रूप में पेश किया, इतिहासकार जानखोमंग गुइते ने कहा कि वास्तविकता इससे कहीं अधिक जटिल थी. पहाड़ी जनजातियों ने अक्सर तराई के राजकुमारों के युद्ध लड़ने में मदद की, और बर्मा से आक्रमण के दौरान उन्हें शरण प्रदान की. कूकी लोगों ने एक अविकसित टैक्सेशन सिस्टम, जो खेती करने वालों और उनकी भूमि पर काम करने वाले व्यापारियों से उनकी सुरक्षा के लिए धन (प्रोटेक्शन मनी) वसूलते थे.
महायुद्ध की वजह से पैदा हुआ आदमियों की मांग ने, हालांकि, ब्रिटेन को कुकी पहाड़ियों की ओर रुख करने के लिए प्रेरित किया – यह वह क्षेत्र था जो कि इंफाल-बेस्ड राजकुमारों के नियंत्रण से बाहर थे. कुकी आधुनिक दुनिया के साथ अपनी पहली बड़ी मुलाकात से उत्साहित नहीं थे – और उन्होंने वापस लड़ने का फैसला किया.
1845-71 की शुरुआत में आज के चटगांव हिल्स ट्रैक्ट में शाही सत्ता के खिलाफ स्थानीय विद्रोह उठ खड़ा हुआ. 1872 और 1888 में नए विद्रोह हुए और 1889-90 का एंग्लो-चिन युद्ध हुआ. 1917 के वसंत ऋतु के अंत में, कुकी प्रमुख जम्पी गांव में मिले, और एक पवित्र मिथुन गाय की बलि दी, और यह शपथ ली कि वे फ्रांस की यात्रा नहीं करेंगे. कहा जाता है कि समर्थन जुटाने के लिए गांव-गांव तावीज़ों के रूप में गोलियां भेजी जाती थीं.
ब्रिटिश साम्राज्य भी उनसे अपनी बात मनवाने पर अड़ा हुआ थाः अनुपालन सुनिश्चित करने के लिए समान रूप से दृढ़ था, और कुकी को अपनी बंदूकें आत्मसमर्पण करने का आदेश दिया: राजनीतिक एजेंट जे.सी. हिगिंस ने जोर देकर कहा, ” जिन देशों में असभ्य जनजातियां रहती हैं, उसके लिए उन्हें यह समझाना ज़रूरी होगा कि कुछ वैध आदेशों की अवहेलना नहीं की जा सकती और अगर ऐसा किया जाता है तो निश्चित सज़ा दी जाएगी.”
महान युद्ध का छोटा युद्ध
महायुद्ध की छाया में लड़े गए, एंग्लो-कुकी युद्ध की शुरुआत चुराचंदपुर के पास खुगा घाटी में अंग्रेजों द्वारा बसे जातीय-नेपाली पशुपालकों के खिलाफ छापे के साथ हुई. चूंकि ज़ू और थडोऊ इस ज़मीन पर खेती करते थे इसलिए यह एरिया नाराज़गी का सबसे बड़ा कारण बना. और बड़ी ताकतों द्वारा अपरिहार्य जवाबी हमले की उम्मीद में गांवों की किलेबंदी की गई और खाद्य भंडार बिखर गए.
शुरू में, अंग्रेजों का मानना था कि कुकी लोगों को सत्ता के लिए एक जातीय-मैतेई दावेदार, चिंगखंबा साना चौबा सिंह द्वारा उकसाया जा रहा है, जो दावा करते थे कि उनके पास जादुई शक्तियां हैं और जो जनजातियों की रक्षा करेगी. हालांकि, तथाकथित आदिम लड़ाके युद्ध के लिए अच्छी तरह से तैयार थे.
अन्य छोटे युद्धों, या विद्रोहों की तरह, विद्रोहियों के खिलाफ बाधाओं ढेर सारी बाधाएं खड़ी कर दी गईं – जिन्हें अपने सामरिक कौशल और बुद्धि पर निर्भर रहना पड़ता था. अंग्रेजों ने अनुमान लगाया था कि, बल के साथ सामना करने पर कुकी विरोध ध्वस्त हो जाएगा. लेकिन इसके बजाय, विद्रोही गायब हो गए.
भले ही कुकी के पास कम संख्या में हथियार थे, लेकिन जांगखोमंग गुइटे और थोंगखोलाल हाओकिप कहते हैं कि कुकीज़ ने सेनलुंग गुफाओं में चमगादड़ों के मल से नाइट्रेट निकालना सीख लिया था और इसे चारकोल और शोरा के साथ मिलाकर बारूद बनाया जा सकता था.
पूर्व गवर्नर रॉबर्ट रीड कहते हैं कि कुकी विद्रोहियों को आत्मसमर्पण करने के लिए मजबूर करने के प्रयास में बड़ी संख्या में बच्चों और महिलाओं को असम राइफल्स द्वारा निंगेल, टेंग्नौपाल, बोंगमोल, लोन्पी और नुंगबा में कॉन्सन्ट्रेशन कैंपों में धकेल दिया गया. शिविरों में संदिग्धों को कोड़े बरसाकर प्रताड़ित भी किया जाता था. विद्रोह को खत्म करने के लिए पूरा गांव जला दिया गया और फसलों को लूट लिया गया.
जाने-माने आईएएस विजेंद्र जाफा ने कहते हैं कि ये बर्बर औपनिवेशिक युग की परंपराएं, 1960 के दशक तक पूर्वोत्तर में उग्रवाद-विरोधी शब्दावली का हिस्सा बनी रहीं— और नई दिल्ली और इस क्षेत्र के लोगों के बीच पीढ़ी दर पीढ़ी कड़वाहट भरे रिश्ते का कारण बनी रहीं.
एंग्लो-कुकी युद्ध के बाद, पहाड़ियों में एक अशांत शांति बहाल हो गई. अंग्रेजों ने दिखाया था कि वे कुकी विद्रोह को कुचल सकते हैं, लेकिन इसकी आर्थिक कीमत ब्रिटिश साम्राज्य अदा नहीं करना चाहता था.
एक संदिग्ध स्वतंत्रता
एंग्लो-कूकी युद्ध इस क्षेत्र में ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा थोपी गई एकमात्र त्रासदी नहीं थी: कैरोलिन कीन द्वारा शानदार ढंग से लिखा गया है कि 1891 के मणिपुर युद्ध की ओर ले जाने वाली भयानक गलत गणना, खंडित समाज, धार्मिक राष्ट्रवाद और साम्यवाद दोनों के लिए रास्ता खोलती है. नागालैंड और मिजोरम जैसे क्षेत्रों में स्वतंत्र लड़ाई विशेष रूप से क्रूर थी. असम और मणिपुर ने कई तरह के जातीय-राष्ट्रवादी और कम्युनिस्ट-प्रेरित आंदोलनों को देखा. इस क्षेत्र में गहरी राजनीतिक वैधता की कमी के कारण, नई दिल्ली ने सौदा करने और ज़बरदस्ती के शाही साधनों का उपयोग किया.
स्वतंत्रता ने चीजों को और भी ज्यादा जटिल बनाया और कुछ जातीय संरचनाओं वाले क्षेत्र को बनाने का मौका दिया जहां वे अपनी राजनीतिक शक्ति का प्रयोग कर सकते थे – लेकिन, विद्वान तेलसिंग हाओकिप कहते हैं कि दूसरों को यूं ही छोड़ दिया गया.
लेखक सुदीप चक्रवर्ती ने कहा है कि समान आर्थिक समृद्धि, शिक्षा और जातीय ठेकेदारों से परे दिखने वाली राजनीति एक अलग तरह के पूर्वोत्तर का निर्माण कर सकती थी. लोकतंत्रीकरण की प्रक्रिया में आपस में जुड़े समुदायों के साथ पावर को बांटा जा सकता था, जिससे उन्हें अपने संघर्षों को हल करने में मदद मिलती. इसके बजाय, चुनावी राजनीति ने विरोधी जातीय पहचानों को कठोर और समेकित करने का काम किया – एक प्रक्रिया जो मणिपुर में अपने गंभीर चरमोत्कर्ष पर पहुंच गई है, जहां प्रतिद्वंद्वी मिलिशिया सभी लोगों को उनकी भूमि से धकेलने में लगी हुई है.
ब्रिटिश साम्राज्य से सभी गलत सबक सीखते हुए, स्वतंत्र भारत ने कैश और जबरदस्ती करके पूर्वोत्तर पर शासन करने की नीति अपनाई. भारत के अधिकांश हिस्सों की तरह, उचित लोकतांत्रिक समुदायों की अनुपस्थिति में समूह की सीमाएं और मज़बूत हुईं. मणिपुर का भाग्य इस बात की एक कहानी है जो कि कल भारत के अधिकांश हिस्सों में क्या हो सकता है, उससे सावधान करती है – और यह इसे रोकने के लिए गणतंत्र की क्षमता का परीक्षण भी है.
(लेखक दिप्रिंट के राष्ट्रीय सुरक्षा संपादक हैं. उनका ट्विटर हैंडल @praveenswami है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
(संपादनः शिव पाण्डेय)
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