इतिहास, खासकर समकालीन इतिहास लिखना हमेशा एक चुनौती रही है, क्योंकि हर घटना के कई-कई रूप सामने आते हैं. यहां तक कि तारीखों को लेकर भी विवाद होता है, लेकिन ‘छपे हुए शब्द’ को आमतौर पर, सुने गए शब्दों से ज्यादा महत्व दिया जाता है और गूगल तो अहम मुकामों को रेखांकित करने के लिए ग्राफिक्स पेश करके लोक-धारणाओं को ही मजबूत करता है. इसी वजह से यह मान लिया गया है कि 26 मार्च ही ‘चिपको आंदोलन’ की वर्षगांठ की तारीख है, क्योंकि 2018 में इस तारीख को गूगल पर एक ‘डूडल’ (किसी मौके के लिए गूगल द्वारा बनाई गई तस्वीर) प्रकट हुआ जिसमें यह बताया गया कि इस तारीख को इस आंदोलन की 45वीं वर्षगांठ मनाई गई.
लोगों को बताया गया कि यह ‘पारिस्थितिकी की रक्षा के लिए महिलाओं का आंदोलन’ था, जिसमें महिलाओं ने एक मंडली बना ली थी क्योंकि वह जंगल काटे जाने के कारण जलावन की लकड़ी और पीने के पानी की कमी का सामना कर रही थीं. आंदोलन के बारे में यह लोक-धारणा सही तो है, लेकिन कुछ हद तक.
इसमें महिलाओं की केंद्रीय भूमिका को कबूल करते हुए यह समझना भी उतना ही महत्वपूर्ण है कि रेणी गांव की गौरा देवी और दूसरी महिलाओं तथा लड़कियों को 26 मार्च 1974 को पास के जंगल की ओर कूच करने के लिए किन घटनाओं ने मजबूर किया था. उनका लक्ष्य साइमंड्स स्पोर्ट्स कंपनी के लकड़हारों को उन पेड़ों को काटने से रोकना था जिन्हें काटने की अनुमति वन विभाग ने उन्हें दी थी, लेकिन आंदोलन की शुरुआत इससे नहीं हुई थी.
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चिपको के कई अध्याय
सौभाग्य से, चिपको आंदोलन को शेखर पाठक के रूप में एक जेम्स बोसवेल (19वीं सदी के स्कॉट जीवनीकार तथा पत्रकार) मिल गए. पाठक न केवल इस आंदोलन के सक्रिय कार्यकर्ता रहे बल्कि वे पेशेवर इतिहासकार, शोधकर्ता, साहसी पर्यटक, लोक-कथाकार, भूगोलशास्त्री, भूगर्भशास्त्री, फोटोग्राफर और एक प्रखर वक्ता भी हैं जो अपने दावों को अनुभवजन्य प्रमाणों से पुष्ट भी करते हैं.
उनकी किताब के अंग्रेज़ी संस्करण ‘हरी-भरी उम्मीद— चिपको आंदोलन : अ पीपुल्स हिस्टरी’ में आंदोलन का पूरा परिप्रेक्ष्य और उस समय के संदर्भ को उपलब्ध कराने के अलावा उसके प्रमुख पात्रों, केंद्र तथा राज्य सरकारों और वन तथा राजस्व विभाग की भूमिकाओं की समीक्षा की गई है. इनके अलावा आंदोलन के दीर्घकालिक परिणामों और आंदोलन की वर्तमान स्थिति के बारे में भी विचार किया गया है. इसकी सफलता ने कई संगठनों, पर्यावरण आंदोलनों, कानूनों और सार्वजनिक पुरस्कारों को जन्म दिया है. इसलिए हैरानी नहीं कि इस किताब को 2022 में न्यू इंडिया फाउंडेशन के कमलादेवी चट्टोपाध्याय सम्मान से पुरस्कृत किया गया.
लेकिन यह कॉलम इस किताब पर नहीं लिखा गया है. यह चिपको आंदोलन को लेकर घटी घटनाओं और उसके मुख्य वैचारिक प्रस्तावकों, दशोली ग्राम स्वराज संघ के चंडी प्रसाद भट्ट और सुंदरलाल बहुगुणा के बारे में है जिन्होंने 1980-82 में जम्मू-कश्मीर से अरुणाचल तक की 5,000 किमी की पदयात्रा की थी और वंदना शिवा के बारे में है जिन्होंने इस आंदोलन के साथ पर्यावरणवादी और नारीवादी परिप्रेक्ष्य को जोड़ा. सौभाग्य से, तीनों ने एक-दूसरे की खुली आलोचना करने से परहेज़ किया. हर एक ने अपना अलग संगठन बनाया और सरकारी तथा गैर-सरकारी संस्थाओं से मान्यता तथा प्रशंसा बटोरी.
यह भी साफ कह दूं कि मेरे विचार चंडी प्रसाद भट्ट के विचारों से मिलते हैं. भट्ट को मैं 1987 से निजी रूप से जानता हूं. उस साल हम आईएएस ट्रेनी के एक ग्रुप ने लाल बहादुर शास्त्री नेशनल अकादेमी ऑफ एडमिनिस्ट्रेशन (LBSNAA) में उनके लेक्चर से प्रेरित होकर चमोली में उनके दशोली ग्राम स्वराज संघ की यात्रा की. हम खुद वह जगह को देखना चाहते थे जहां गांधीवादी संघर्ष चलाया जा रहा था और जहां गौरा देवी और उनके रेणी गांव की 24 महिलाओं ने साइमंड्स कंपनी के लकड़हारों को उन पेड़ों को काटने से रोक दिया था जिन्हें काटने की मंजूरी वन विभाग दे चुका था.
इस तरह छोटे स्तर पर मैं गढ़वाल हिमालय के इलाके में ‘अंगल्वाल्था’ (गले लगाने का गढ़वाली शब्द) आंदोलन का चश्मदीद बना, जिसमें आंदोलनकारी लोग पेड़ों को अपनी बाहों से घेरकर उन्हें काटे जाने से बचा लेते थे, लेकिन यह आंदोलन हिंदी के ‘चिपको’ शब्द के नाम से मशहूर हुआ, जिसका जन्म हिमालय की ऊंची पहाड़ियों में नहीं बल्कि राजस्थान के रेगिस्तान के टीलों के बीच हुआ था.
आखिर कहां शुरू हुआ चिपको आंदोलन
करीब तीन सौ साल पहले 1730 में 84 गांवों के 363 बिश्नोइयों के एक समूह ने अमृता देवी के नेतृत्व में खेजड़ी के पेड़ों की रक्षा के लिए अपनी जान कुरबान कर दी थी. जोधपुर के महाराजा ने अपने नए महल के निर्माण के लिए लकड़ी हासिल करने के वास्ते इन पेड़ों को काट डालने का हुक्म जारी किया था, लेकिन महाराजा को जब अपने मंत्री की बर्बरता की जानकारी मिली तो उन्होंने जोधपुर में कोई भी पेड़ काटने पर हमेशा के लिए प्रतिबंध लगा दिया.
लेकिन पूरे भारत में विकास की कहानी में पेड़ों को बाधा ही माना जाता रहा है.
हालांकि, औपनिवेशिक युग के कुछ वन कानूनों में 1920 के दशक में कुमाऊं और गढ़वाल में हुए किसान आंदोलनों के बाद ढील दी गई, लेकिन फॉरेस्ट्री को उत्तर प्रदेश के शासन के एजेंडा में कभी ऊंची प्राथमिकता नहीं दी गई. हालांकि, उसके पहले मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत कुमाऊं से ही थे.
इसकी जगह प्रदेश का मुख्य ज़ोर जमींदारी उन्मूलन और भूमि सुधार पर रहा, जिसकी प्रेरणा गांधी के चहेते शिष्य आचार्य विनोबा भावे की अखिल भारतीय पदयात्रा से मिली. भावे ने अस्पृश्यता उन्मूलन, भूमि पुनर्वितरण और स्थानीय कच्चे माल पर आधारित ग्रामीण उद्योगों के विकास के लिए पूरे देश की पदयात्रा की थी.
इसी संदर्भ के साथ चंडी प्रसाद भट्ट ने 1964 में दशोली ग्राम स्वराज मंडल (अब ग्राम संघ) की स्थापना की. इसका उद्देश्य जंगल के संसाधनों का इस्तेमाल करने वाले लघु उद्योग शुरू करना था. सो, सबसे पहले उन्होंने स्थानीय इस्तेमाल के लिए खेती के औज़ार बनाने की एक छोटी वर्कशॉप शुरू की.
लेकिन इसे स्थापित करने में उन्हें वन से संबंधित कई तरह की प्रतिबंधात्मक नीतियों का सामना करना पड़ा, जो औपनिवेशिक दौर और ‘ठेकेदारी प्रथा’ की देन थीं. इस प्रथा के तहत वन भूमि को मैदानी इलाकों के बड़े ठेकेदारों को नीलाम कर दिया जाता था. ये ठेकेदार अपने साथ कटाई की मशीन और कुशल तथा अकुशल मजदूर लेकर आते थे. इसका नतीजा यह होता था कि पहाड़ी लोगों के लिए आजीविका का कोई साधन नहीं बचता था.
आम धारणा यह है कि जुलाई 1970 में अलकनंदा नदी में बाढ़ के कारण जो तबाही हुई उसके लिए जंगल की बेलगाम कटाई जिम्मेदार है. भूस्खलन ने नदी का रास्ता रोक दिया था जिसके कारण बद्रीनाथ के पास हनुमान चट्टी से लेकर 320 किमी नीचे हरिद्वार तक का क्षेत्र प्रभावित हुआ. कई गांव, पुल और सड़कें बह गईं और चारों तरफ घोर संकट और तबाही आ. इसके बाद उस इलाके में भवन आदि के निर्माण में तेज़ी के साथ भूस्खलन, चट्टान ढहने की घटनाओं में इजाफा हो गया.
अगले दो साल में दशोली ग्राम स्वराज संघ के कार्यकर्ताओं ने वन विभाग की नीतियों के विरोध में गोपेश्वर में प्रदर्शन किया, लेकिन इंतिहा तो तब हो गई जब वन विभाग ने संघ की कार्यशाला में खेती के औज़ार बनाने के लिए ‘एश’ के दस पेड़ों की मांग ठुकरा दी, लेकिन टेनिस के रैकेट बनाने वाली इलाहाबाद की साइमंड्स कंपनी को 300 पेड़ों का ठेका दे दिया.
लकड़हारे मार्च 1973 में गोपेश्वर पहुंच गए, लेकिन 24 अप्रैल को उनका सामना मांडल गांव में दशोली संघ के कार्यकर्ताओं और करीब 100 ग्रामीणों से हुआ, जो ढोल बजा रहे थे, नारे लगा रहे थे. उन्होंने ठेकेदारों और उनके आदमियों को लौटने पर मजबूर कर दिया. इसलिए, कई लोग इसे आंदोलन की पहली वास्तविक सफलता बताते हैं क्योंकि जनता के दबाव के कारण कंपनी का ठेका रद्द कर दिया गया. चिपको का चक्र चल पड़ा.
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महिलाओं का संघर्ष
कुछ महीने बाद, मार्च 1974 में वन विभाग ने चीनी हमले के बाद सीमा पर इन्फ्रास्ट्रक्चर विकसित करने के लिए अधिग्रहीत की गई ज़मीन के मुआवजे पर बातचीत के बहाने भट्ट और उनके साथियों को गोपेश्वर बुलाया. उधर ठेकेदारों को खबर कर दी गई कि मर्द गांव से चले गए हैं, केवल महिलाएं और बच्चे ही वहां रह गए हैं.
पुरुषों की गैरहाजिरी में गौरा देवी के नेतृत्व में रेणी गांव की महिलाओं ने, जिनके बारे में शेखर पाठक कहते हैं कि वे “मार्क्स और लेनिन से उतनी ही अनभिज्ञ थीं जितनी सर्वोदय के दर्शन से”, लकड़हारों का मुकाबला किया जिन्हें किसी प्रतिरोध की उम्मीद नहीं थी.
26 मार्च को गौरा देवी और उनकी सहेलियों ने जिस साहस और संकल्प के साथ लकड़हारों को पुरुषों के लौटने तक रोके रखा वह चिपको आंदोलन की प्रतीक-छवि बन गई. हालांकि, उस समय महिलाएं संयोग से मोर्चे पर आगे आईं, लेकिन 1987 में हमारे समूह के वहां के दौरे तक वह पुरुषों से अगर आगे नहीं तो उनके बराबर की भूमिका में ज़रूर आ गई थीं. वह विकास संबंधी प्रस्तावित कार्यक्रमों पर विचार-विमर्श में आगे बढ़कर हिस्सा ले रही थीं और यह तय कर रही थीं कि गांव के लिए पक्की सड़क ठीक रहेगी या कच्ची सड़क.
आंदोलन के दूरगामी असर
सौभाग्य से उस समय उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री एच.एन. बहुगुणा भी गढ़वाल से ही थे. उन्होंने मामले की जांच के लिए तुरंत एक कमिटी नियुक्त कर दी, और ग्रामीणों की मांगों का समर्थन किया. कल्पना कीजिए कि अगर इसका उलटा होता, मुख्यमंत्री अगर पहाड़ से न होते और टकराव ने बुरा रूप ले लिया होता तो क्या होता. टकराव की जगह सुलह का रास्ता अपनाने के लिए बहुगुणा को शायद ही कभी श्रेय दिया गया.
रेणी के आसपास के जंगल में पेड़ों की कटाई पर दस साल के लिए रोक लगा दी गई. आंदोलन दूसरे जिलों में भी फैलने लगा और उसे व्यापक समर्थन मिलने लगा तब 1980 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पूरे हिमालय क्षेत्र में पेड़ों की कटाई और चूना पत्थर के खनन पर भी पूर्ण प्रतिबंध लगाने की घोषणा कर दी. पारिस्थितिकी के संतुलन को बहाल करने के लिए एक ‘इको टास्क फोर्स’ का गठन किया गया, और मसूरी की पहाड़ियों ने फिर से अपनी हरी चादर हासिल कर ली.
(अगली कड़ी प्रकाश्य)
26 मार्च को चिपको आंदोलन की वर्षगांठ के मौके पर तीन कड़ियों की सीरीज़ का यह पहला लेख है.
(संजीव चोपड़ा पूर्व आईएएस अधिकारी हैं और वैली ऑफ वर्ड्स के फेस्टिवल के निदेशक रहे हैं. हाल तक वे लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासन अकादमी के निदेशक थे. उनका एक्स हैंडल @ChopraSanjeev हैं. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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