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Sunday, 22 December, 2024
होममत-विमतलोगों को काम पर लौटने दीजिए, भारत को आज 1991 के आर्थिक सुधारों की तरह का कोई रामबाण चाहिए

लोगों को काम पर लौटने दीजिए, भारत को आज 1991 के आर्थिक सुधारों की तरह का कोई रामबाण चाहिए

बेरोजगारी के मोर्चे पर तो विफलता ही मिलती रही है, कोविड ने इसे और गंभीर बना दिया, करोड़ों लोग फिर गरीबी की चपेट में आ गए हैं, बंद हुए लाखों लघु उपक्रम अब शायद ही फिर शुरू हो पाएंगे.

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पीवी नरसिम्हा राव ने जब देश की बागडोर संभाली थी और भारतीय अर्थव्यवस्था की दिशा और गति बदल डालने वाले आर्थिक सुधारों की शुरुआत की थी, उसके 30 साल अगले सप्ताह पूरे हो जाएंगे. इन 30 वर्षों में विश्व अर्थव्यवस्था में भारत की हिस्सेदारी 1.1 प्रतिशत से तिगुना बढ़कर 3.3 प्रतिशत हो गई. अमेरिकी डॉलर के हिसाब से भारतीय अर्थव्यवस्था इन 30 वर्षों में 11 गुना बड़ी हो गई. केवल चीन और वियतनाम ही इससे बेहतर प्रदर्शन कर पाया है. मानव विकास के प्रमुख संकेतकों (मुख्यतः जीवन प्रत्याशा और साक्षरता) के मामले में भारत ‘मध्यम विकास’ वाली श्रेणी के देशों के मुक़ाबले मामूली बेहतर प्रदर्शन ही कर पाया है. उम्मीद है कि वह 12वीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था से इस साल छठी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगा.

दूसरे देशों, और खुद भारत के इससे पीछे के 30 साल के रिकॉर्ड की तुलना में यह बेहतर है. फिर भी जरूरत और क्षमता से कम ही रहा. बहुत बड़ी संख्या में लोगों को गरीबी रेखा से ऊपर लाया गया. फिर भी, व्यापक गरीबी के मामले में एशिया की जगह लेने वाले जिन गैर-अफ्रीकी देशों में गरीबों की आबादी का प्रतिशत सबसे अधिक है. उनमें भारत भी शामिल है. प्रति व्यक्ति आय के मामले में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोश के पास 1990 में जिन 150 देशों के आंकड़े उपलब्ध थे उनमें से 90 फीसदी देशों ने भारत से बेहतर काम किया था. आज 195 देशों में से 75 फीसदी देशों ने भारत से बेहतर प्रदर्शन किया है. भारत में प्रति व्यक्ति आय का आंकड़ा विश्व के इस औसत आंकड़े के पांचवें हिस्से से भी कम के बराबर है. जाहिर है, विषमता भी बढ़ी है. लेकिन 2011 के बाद का कोई विश्वसनीय आंकड़ा उपलब्ध नहीं है.

पिछले 30 वर्षों की कहानी एक जैसी नहीं रही है. इसमें शुरू के दो दशक तीसरे दशक (2011-21) के मुक़ाबले बेहतर रहे. भारत के रिकॉर्ड के आगे जो देश फीके दिख रहे थे वे अब उससे बेहतर प्रदर्शन कर रहे हैं, खासकर बांग्लादेश और फिलिपीन्स भी- और बेशक चीन और वियतनाम भी. जब हम भारत के 2011-21 के रिकॉर्ड की तुलना इसी अवधि में लातीन अमेरिका के घटते जीडीपी, उप-सहारा अफ्रीका के संकट, और ‘आसियान-5’के प्रदर्शन से करते हैं तो भारत की हालत कुछ बेहतर नज़र आती है. लेकिन 2001 में भारत का जीडीपी चीन के जीडीपी के 37 प्रतिशत के बराबर था. इसके दो दशक बाद यह आंकड़ा 18 प्रतिशत पर पहुंच गया.


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विश्व अर्थव्यवस्था में भारत की बढ़ती हिस्सेदारी ने दुनिया में उसका रुतबा बढ़ाया है लेकिन चीन के साथ शक्ति
संतुलन में वह काफी पीछे है.

अर्थव्यवस्था को क्या चाहिए

2011 के बाद के दौर की सुस्ती से उबरकर गति पकड़ना काफी मुश्किल भरा साबित हो सकता था लेकिन कोविड महामारी ने सभी आंकड़ों की सूरत बिगाड़ दी और चुनौतियों को और गंभीर बना दिया. बेरोजगारी के मामले में वैसे तो विफलता ही हासिल होती रही लेकिन दो साल पहले इसकी जो स्थिति थी उससे भी आज बुरा हाल हो गया है. करोड़ों लोग फिर गरीबी रेखा के नीचे चले गए हैं. जिन लाखों लघु उपक्रमों ने अपने शटर गिरा दिए वे अब शायद ही दोबारा चालू हो पाएंगे. अर्थव्यवस्था का जो दोहरा स्तर है वह और गहरा होता जा रहा है.

अर्थव्यवस्था को जरूरत इस बात की है कि उत्पादकता बढ़े और सिस्टम अधिक न्यायसंगत हो. मोदी सरकार ने भौतिक इन्फ्रास्ट्रक्चर और जनकल्याण के कई उपायों पर ज़ोर दिया है. दोनों की जरूरत भी है और वे स्वागतयोग्य भी हैं लेकिन वे मानव संसाधन में नाटकीय सुधार की, जिसने 50 साल पहले पूर्वी एशिया के परिवर्तन की नींव रखी थी, जरूरत का विकल्प नहीं बन सकते हैं. अर्थव्यवस्था को 5 ट्रिलियन डॉलर का बनाने की बातें तो की जाती हैं लेकिन साक्षरता को दोगुनी तेजी से 74 प्रतिशत से बढ़ाकर 100 प्रतिशत करने, या स्वास्थ्यसेवा व्यवस्था को- जिसकी कमजोरी इस महामारी में जाहिर हो गई- मूलभूत रूप में बेहतर बनाने की बात नहीं की जाती.

उपयुक्त रूप से सक्रिय, सभी वर्ग के कर्जदारों की जरूरतों को पूरा करने वाली वित्तीय व्यवस्था अभी भी नज़र नहीं आती. कर्जदाताओं को बकाया कर्जों की वापसी दिवालियापन की प्रक्रिया से हो तो यह बुरी कहानी ही बनती है. आशंका की जा रही है कि कर्ज भुगतान में चूक की नयी लहर आने ही वाली है, जो लघु व मझोले व्यवसायों के समक्ष उपस्थित समस्याओं का अंदाजा देगी. जब व्यवसाय कमजोर पड़ रहा हो तब वित्तीय व्यवस्था बेहतर नहीं हो सकती है.

लेकिन आर्थिक, और जनकल्याण की दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण यह है कि लोगों को अपने काम पर लौटने दिया जाए, और रोजगार बढ़ाने वाली गतिविधियां शुरू करने दी जाए. यह पिछले 30 वर्षों से नहीं किया गया है, न ही उससे पहले के 30 वर्षों में किया गया. अब अगले 30 वर्षों की तकदीर दांव पर है.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें )

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