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Sunday, 22 December, 2024
होममत-विमतशाहबाज़ के शांति की गुहार पर पाकिस्तानी सेना को साथ देना चाहिए. यह मोदी की मदद करने के लिए हृदय परिवर्तन है

शाहबाज़ के शांति की गुहार पर पाकिस्तानी सेना को साथ देना चाहिए. यह मोदी की मदद करने के लिए हृदय परिवर्तन है

पाकिस्तान के पीएम शाहबाज़ शरीफ और सेना प्रमुख जनरल सैयद असीम मुनीर के पास आम चुनाव तक का समय है या तो नायक बनने का और या तो इस धारणा को दूर करने का कि वे उन्हें धोखा दे रहे हैं.

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क्या भारतीय उपमहाद्वीप में शांति भंग होने का खतरा है?

पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शाहबाज़ शरीफ़ की भारत के साथ लड़े गए तीन युद्धों से “सबक सीखने” की टिप्पणी के बाद – जिस पर तरह तरह की प्रतिक्रियाएं दी गईं – भारत ने पाकिस्तान के विदेश मंत्री बिलावल भुट्टो जरदारी को मई में गोवा में होने वाले शंघाई सहयोग संगठन के शिखर सम्मेलन में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया है.

कोई गलती न करे, शरीफ जो सोच रहे हैं यह सिर्फ उसकी शुरुआत है. यह कभी न भूलें कि प्रधानमंत्री ने किसी टीवी चैनल पर ये टिप्पणियां कभी नहीं की होती अगर उन्हें पावरफुल पाकिस्तान सैन्य प्रतिष्ठान द्वारा पहले से इसकी इजाजत नहीं मिली होती. वास्तव में, किसी को आश्चर्य नहीं होगा यदि शाहबाज की टिप्पणियों और उसके बाद भारत द्वारा की गई टिप्पणियों को संबंधित राजनीतिक प्रतिष्ठानों द्वारा सावधानीपूर्वक आयोजित किया गया हो.

पिछले हफ्ते की मीडिया की खबरों पर एक नजर डालते हैं. ध्यान दें कि यह केवल सरकार के हाथों की कठपुतली बनी हुई थी, विशेष रूप से कुछ हिंदी टीवी चैनल, जो शाहबाज़ की शांति चालों को उनका झुकना (“पाकिस्तान इस प्रस्ताव के साथ अपने घुटनों पर है”) करार देने में लिप्त थे; जबकि एक्सपर्ट्स में से कुछ ने इसे चालाकी बताकर इसकी आलोचना की और कुछ ने इसे सच बताया. दिप्रिंट के एडिटर-इन-चीफ ने बीच का रास्ता अपनाया, विदेश मंत्रालय ने इस मामले में लो-प्रोफाइल रहना पसंद किया.

हालांकि, सही समय आने से पहले कुछ करने की जरूरत नहीं थी. याद कीजिए कि बिलावल भुट्टो ने हाल ही में आयोजित संयुक्त राष्ट्र महासभा सत्र में कश्मीर के बारे में कुछ अनुचित टिप्पणियां की थीं; निश्चित रूप से भारत अब से लेकर मई तक इस्लामाबाद द्वारा की जाने वाली हर आलोचनात्मक टिप्पणी पर नजर रखेगा. इसलिए इस्लामाबाद को ज्यादा बोलकर भी कम कहने की कला सीखनी होगी.


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मोदी की मदद करेगा यह हृदय परिवर्तन

कई साल बाद मौका आया है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, जो इस साल जी-20 में भारत का नेतृत्व कर रहे हैं, अच्छी तरह से जानते हैं कि किसी देश के लिए उसके पड़ोसी से शत्रुतापूर्ण संबंध होना शोभा नहीं देता है. और बेशक, पीएम अपनी और भारत की छवि के प्रति सचेत हैं.

निश्चित रूप से, मोदी दूसरी बार फिर से ऐसा कदम उठाए जाने के खिलाफ नहीं हैं. अब वह इस बात को समझ पा रहे हैं जब 2015 में लाहौर की अपनी तथाकथित अचानक यात्रा पर पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ की पोती की शादी में शामिल होने के लिए रायविंड गए थे.

इस बार मोदी को जो मदद मिली वह यह है कि पाकिस्तानी सैन्य प्रतिष्ठान या “डीप स्टेट” के बारे में माना जाता है कि उसका हृदय परिवर्तन हुआ है, जो भारत के साथ विदेश नीति को नियंत्रित करता है और साथ ही अमेरिका, अफगानिस्तान, रूस जैसे अन्य प्रमुख देशों के साथ संबंधों को भी देखता है.

प्रभावशाली पाकिस्तानी पत्रकार हामिद मीर के अनुसार, पूर्व सेना प्रमुख जनरल क़मर जावेद बाजवा ने न केवल नवंबर 2019 में करतारपुर साहिब कॉरिडोर खोलने के लिए जोर दिया – जम्मू और कश्मीर में अगस्त में अनुच्छेद 370 के निरस्त होने के महीनों बाद – बल्कि पूरी तरह से इसके पक्ष में थे कि पीएम मोदी 9 अप्रैल 2021 को पाकिस्तान की आएं और बलूचिस्तान के लासबेला में हिंगलाज माता मंदिर की तीर्थ यात्रा भी करें.

मीर आगे कहते हैं कि यात्रा तत्कालीन पीएम इमरान खान द्वारा कश्मीर मुद्दे को न छोड़कर बात न करने की वजह से नहीं हो पाए.

इमरान खान के दक्षिणपंथी लोकलुभावन तरीका काम कर गया. कश्मीर पाकिस्तान में एक ऐसा विषय है जिसको लेकर लोग भावुक रहते हैं – इसके लिए नवाज़ शरीफ़ और यहां तक कि परवेज़ मुशर्रफ़ जैसे मजबूत नेताओं की ज़रूरत होती है ताकि वे इस भावनात्मक प्रवाह को रोक सके और इसे रचनात्मक रास्तों में लगाया जा सके.

लेकिन इमरान खान ने जनरल बाजवा के विश्वास का दुरुपयोग कैसे किया इसका एक प्रामाणिकता के लिए – कुछ लोग कहेंगे कि बाजवा को वही मिल रहा था जो उन्होंने किया था – अस्मा शिराज़ी की किताब कहानी बड़े घर की पढ़ने की जरूरत है. यह पुस्तक उर्दू में है, जो उन कॉलम्स का संकलन है जो उन्होंने बीबीसी के लिए लिखे थे, यह एक खोजपूर्ण विवरण है कि कैसे खान और बाजवा के बीच मधुर संबंध 2018-2022 में इतने खराब हो गए थे कि बाजवा ने विपक्ष के साथ मिल गए और शाहबाज़ शरीफ को सत्ता में लाने में मदद की.

पुस्तक का एक खास लेख तत्कालीन आईएसआई प्रमुख फैज हमीद को लेकर इमरान खान और बाजवा के बीच संघर्ष का है. इमरान उन्हें आईएसआई प्रमुख के रूप में रखना चाहते थे जबकि बाजवा एक नया आदमी लाना चाहते थे; तीन हफ्ते तक चले गतिरोध के बाद बाजवा जीत गए. शिराज़ी ने इसे बारीकी से कवर किया, जिसके कारण खान के करीबी विश्वासपात्रों द्वारा उन्हें बुरी तरह से ट्रोल किया गया.

भारत से संबंध

तो, पाकिस्तान की मौजूदा स्थिति का भारत-पाकिस्तान संबंध से क्या लेना-देना है? तो जवाब है कि- सब कुछ. हामिद मीर और अस्मा शिराज़ी ने पाकिस्तानी सैन्य प्रतिष्ठान की शक्ति को फिर से रेखांकित किया. समान रूप से, बाजवा समझते हैं कि इमरान खान के साथ उनके टकराव ने पाकिस्तानी सेना की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचाया है.

कम से कम कुछ समय के लिए, कोई नहीं जानता कि नए सेना प्रमुख जनरल असीम मुनीर पाकिस्तानी राजनीति में हस्तक्षेप न करने के बाजवा के नए संकल्पों को लागू करना जारी रखेंगे या नहीं. लेकिन तथ्य यह है कि अगर पाकिस्तानी सेना का समर्थन हासिल नहीं होता तो शाहबाज़ शरीफ अल अरेबिया चैनल पर “भारत से तीन युद् के बाद पाकिस्तान ने सबक सीख लिया है” जैसी टिप्पणी नहीं करते.

यह भी अनुमान लगाया जा रहा है कि शरीफ ने अपनी टिप्पणी करने के लिए अल अरेबिया को क्यों चुना, जिसे सऊदी सार्वजनिक कूटनीति का एक जरिया माना जाता है. इस तथ्य के अलावा कि सऊदी अरब ने पाकिस्तान के 11 अरब डॉलर के ऋण को रोल आउट करने का वादा किया है, यह संभावना है कि शरीफ सब-कॉन्टिनेंट में शांति के प्रति अपने दृढ़ विश्वास को दिखाना चाहते थे, खासकर यह अच्छी तरह से जानते हुए कि सऊदी और संयुक्त अरब अमीरात का नई दिल्ली पर पर्याप्त प्रभाव है.

याद रखें कि इन दोनों देशों ने तनाव कम करने के लिए बालाकोट मिसाइल हमले के बाद 2019 में अपने दूत दिल्ली भेजे थे. सऊदी-अमीरात ने भी अलग-अलग रावलपिंडी/इस्लामाबाद की यात्रा करके, आगे बढ़कर समझौता करने के लिए कहा. हालांकि, इस कोशिश का कोई भी नतीजा नहीं निकला क्योंकि नई दिल्ली ने विनम्रता से अरब देशों को दूर रहने को कहा.

शायद शरीफ को विश्वास है कि शांति के कबूतर को फिर से उड़ाने का समय आ गया है. कि वह एक तीर से कई निशाने साध रहे हैं, जैसे – अमेरिका का फेवर हासिल करना, जिसके साथ दिल्ली के अच्छे संबंध हैं और इमरान खान के सार्वजनिक रूप से बुरे संबंध हैं और साथ ही जो उनकी सेना चाहती है वह भी कर पा रहे हैं.

पहले से चीजों को आजमा लेना अच्छा तरीका है. शाहबाज़ शरीफ और पाकिस्तान के नए सेना प्रमुख के पास मई में एससीओ की बैठक तक का समय है, जिसमें बिलावल भुट्टो को आमंत्रित किया गया है, या तो नायक बनें या इस धारणा को दूर करें कि वे उन्हें धोखा दे रहे हैं.

जहां तक भारत का सवाल है, पाकिस्तान को जवाब देना भी इस बारे में है कि वह कैसा देश बनना चाहता है. इसने अब गेंद वापस पाकिस्तान के पाले में कर दी है. जैसा कि 2023 सामने आया है, यह न केवल भारत-पाकिस्तान के लिए, बल्कि पूरे क्षेत्र के लिए भी एक अच्छी बहस है.

(लेखक कंसल्टिंग एडिटर हैं. उनका ट्विटर हैंडल @jomalhotra है. व्यक्त विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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