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Thursday, 21 November, 2024
होममत-विमतजनरल सुंदरजी ने 40 साल पहले चीन के लिए जो रणनीति बनाई थी उसे 2020 में लागू करने में हम विफल रहे

जनरल सुंदरजी ने 40 साल पहले चीन के लिए जो रणनीति बनाई थी उसे 2020 में लागू करने में हम विफल रहे

उनके घोर आलोचक भी मानते हैं कि भारतीय सेना में दूसरा कोई ऐसा जनरल नहीं था जिसमें उनके जैसी बौद्धिक गहराई, रणनीतिक दृष्टि और बदलाव की इच्छाशक्ति थी. वे सेना को खींचकर 21वीं सदी में ले आए थे.

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जनरल कृष्णस्वामी ‘सुंदरजी’ सुंदरराजन को गुज़रे करीब 25 बरस बीत चुके हैं. 13वें सेनाध्यक्ष के रूप में उनका कार्यकाल शानदार लेकिन उथल-पुथल भरा रहा. वे काफी विवादास्पद विरासत छोड़ कर गए. उन्होंने भारतीय सेना को अपने समय से 15-20 साल आगे की लड़ाई लड़ने के लिए तैयार करने की योजना सोची, बनाई और उसे उस योजना के अनुसार बदलने की कोशिश भी की. इसके साथ ही वे उत्तर में चीन, पश्चिम में पाकिस्तान और दक्षिण में श्रीलंका में हमारे अपने छोटे-से वियतनाम के मोर्चों पर युद्ध जैसी चुनतियों का मुकाबला करते रहे.

उनके घोर आलोचक भी मानते हैं कि भारतीय सेना में दूसरा कोई ऐसा जनरल नहीं था जिसमें उनके जैसी बौद्धिक गहराई, रणनीतिक दृष्टि और बदलाव की इच्छाशक्ति थी. सेनाध्यक्ष के तौर पर दो साल और चार महीने के अपने कार्यकाल में वे सेना को खींचकर 21वीं सदी में ले आए थे.

पदभार संभालते ही जनरल सुंदरजी ने ‘इंडियन आर्मी पर्सपेक्टिव प्लान 2000’ नामक परिकल्पना पत्र लिखा, जिसमें अगले 15 साल के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा, रक्षा नीति, और सैन्य रणनीति का खाका प्रस्तुत किया गया था. उन्होंने खुद इस दस्तावेज़ पर दस्तखत किए. यह किसी सेनाध्यक्ष द्वारा पेश किया गया इस तरह का पहला और अंतिम दस्तावेज़ था. इसमें पाकिस्तान और चीन, दोनों से मिलने वाले खतरों का मुक़ाबला करने की सैन्य रणनीति पेश की गई थी और इसे लागू करने के लिए सेना में बदलाव लाने का खाका भी था.

‘पर्सपेक्टिव प्लान 2000’

पाकिस्तान के खिलाफ रणनीति में ऐसा ‘आक्रामक प्रतिरोध (offensive deterrence)’ तैयार करना और कायम रखना शामिल था जो उसकी सैन्य क्षमता को नष्ट करे और हम अपनी राजनीतिक इच्छाशक्ति थोपने के लिए उसके बड़े इलाके पर कब्ज़ा कर सकें. चीन के खिलाफ रणनीति ‘हतोत्साही प्रतिरोध (Dissuasive deterrence)’ बनाए रखने की थी क्योंकि उसके मुकाबले हम सैन्य क्षमता, संख्या, भू-भाग और संचार व्यवस्था के लिहाज़ से कमजोर थे. ‘हतोत्साही प्रतिरोध’ का अर्थ यह था कि हमारी सेना गहराई में स्थित होने के कारण 1963 से जो बचाव की मुद्रा अपनाती रही है उसकी जगह, एलएसी पर अपनी ज़मीन की रक्षा के लिए ऊपर की चोटियों पर अग्रिम बचाव मुद्रा अपनाएंगे और चीन को बड़ा नुकसान पहुंचाएंगे. इस रणनीति में सामरिक आक्रमण शामिल था.

सरकार ने इस ‘पर्सपेक्टिव प्लान 2000’ को औपचारिक मंजूरी दिए बिना पाकिस्तान के मामले के लिए समर्थन किया, लेकिन उत्तरी सीमा पर यथास्थिति को छेड़ने को लेकर शंकालु रही. रणनीतिक परिस्थितियों के कारण और योजना की वजह से जनरल सुंदरजी को अपनी सैन्य रणनीति को दोनों मोर्चों पर एक साथ आजमाने का मौका मिल गया.

पाकिस्तान के खिलाफ ‘आक्रामक प्रतिरोध’ का परीक्षण करने के लिए मेकेनाइज्ड फोर्सेस के एक बड़े सैन्य अभ्यास— ‘ब्रासटैक्स’ (नवंबर 1986 – मार्च 1987) — को ‘ऑपरेशन ट्राइडेंट’ के रूप में लगभग युद्ध जैसी स्थिति में बदल दिया गया. ऐसा इसलिए किया गया क्योंकि पाकिस्तान की ओर से जवाबी कार्रवाई की आशंका थी, और कथित रूप से चीफ ऑफ द आर्मी स्टाफ (सीओएएस) की ओर से धारणा बदलने की कोशिश की गई. ‘ऑपरेशन ट्राइडेंट’ में लक्ष्य स्कर्दू पर कब्ज़ा करना, मेकेनाइज्ड फोर्सेस को नष्ट करना, दक्षिण पंजाब में सिंधु और सतलुज नदियों के बीच के रेगिस्तान जैसे बड़े क्षेत्र को कब्जा करना शामिल था. इसके अलावा पूरे सीमा क्षेत्र पर जमीन पर सीमित बढ़त लेना तो शामिल था ही.

उत्तरी मोर्चे पर, ‘ब्रासटैक्स’/ ‘ऑपरेशन ट्राइडेंट’ के लगभग साथ-साथ चीन ने जून 1986 में सुमदोरोंग चु नदी घाटी में छोटी-सी घुसपैठ कर डाली तो जनरल सुंदरजी को फटाफट आक्रामक मुद्रा अपनाने और चीन को गतिरोध के लिए मजबूर करने का मौका मिल गया. यह टकराव 1987 के मध्य तक चला.


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‘हतोत्साही प्रतिरोध’ की रणनीति पर अमल

1962 के बाद से हमारी मुख्य सेना ऊंचाई वाले इलाके के नीचे के क्षेत्रों में तैनात रही और आईटीबीपी तथा असम राइफल्स 1980 से उस बड़े बफर ज़ोन पर गश्त लागारही थी जो अपने कब्ज़े में नहीं था. चीन को नाराज़ करने के डर से बफर ज़ोन में सड़कें बनाने की कोशिश न के बराबर की गई. चीनी सेना ‘पीएलए’ को भी एलएसी पर इसी तरह तैनात किया गया था, लेकिन तेज़ तैनाती के लिए बेहतर संचार व्यवस्था के साथ.

1986 तक योजना यही थी कि दुश्मन को विस्तारित फॉरवर्ड ज़ोन में अटकाए रखा जाए और मुख्य लड़ाई अच्छी तरह से तैयार सुरक्षित ठिकानों में लड़ी जाए जहां सड़क बनी हो. 1983 में, सुरक्षा मामलों की कैबिनेट कमिटी ने तवांग की रक्षा करने का फैसला किया लेकिन सड़कों के निर्माण में देरी की वजह से इस फैसले को पूरी तरह से लागू नहीं किया गया.

भारत ने 1984 में, सुमदोरोंग चु घाटी में एक निगरानी चौकी स्थापित की थी जिसे स्पेशल सर्विस ब्यूरो संभालता था. सर्दियों के समय इसे खाली कर दिया गया. पीएलए ने दावा कर दिया कि वह चौकी मैकमोहन रेखा/ एलएसी के पार उसके इलाके में है और जून 1986 में उसने उस पर कब्ज़ा कर लिया. भारत के तमाम विरोध के बावजूद चीन उस क्षेत्र में ज्यादा सेना तैनात करता रहा और उसने स्थायी सुरक्षा का निर्माण कर लिया.

ऊपर से तो यह स्थानीय घटना लगती है जिसमें चीन मैकमोहन रेखा/ एलएसी की अपनी परिभाषा लागू करना चाहता था. लेकिन वास्तव में इसके पीछे बड़े मंसूबे छिपे हुए थे. भारत और चीन 1981 से सीमा वार्ताएं कर रहे हैं. 1981 से 1983 के बीच वार्ता के पहले छह दौर में चीन ने उत्तर-पूर्व में मैकमोहन रेखा को लेकर 1959 के अपने अपने दावों को छोड़ने के एवज में अक्साई चीन और पूर्वी लद्दाख में अपनी बढ़त बनाए रखने पर ज़ोर देता रहा. भारत सेक्टर-दर-सेक्टर पर वार्ता करना चाहता था, जिसके लिए चीन 1984 में पांचवें दौर की वार्ता में राजी हुआ.

लेकिन 1985 में छठे दौर में चीन पूरी तरह पलट गया और उसने उत्तर-पूर्व में बड़ी रियायत की मांग कर दी, उसने पूरे ‘नेफा’ क्षेत्र, जो अब अरुणाचल है, पर दावा कर दिया. हमारी सेना निचली क्षेत्रों में थी, ऐसे में चीन पूरे तवांग सेक्टर को बिना लड़े कब्जे में ले सकता था.

इन बातों को ध्यान में रखते हुए जनरल सुंदरजी ने पूरे तवांग सेक्टर में अग्रिम मोर्चे पर आने की ‘हतोत्साही प्रतिरोध’ रणनीति लागू करने के मौके का लाभ उठाया. सितंबर-अक्तूबर 1986 में उन्होंने सेना की तैनाती का आदेश दिया और पूरे एक ब्रिगेड को हेलिकॉप्टर से जिमिथांग में उतार दिया तथा ऊपरी क्षेत्रों हाथुंग ला और लांगरोला रिज़ को तुरंत कब्जे में ले लिया था और इस तरह तनाव बढ़ने के बाद चीनी घुसपैठ को असंभव बना दिया. पूर्वी लद्दाख समेत पूरे सीमा क्षेत्र पर सेना की एहतियाती की गई.

भारतीय ऑपरेशन की रणनीति से चीन भौंचक रह गया और उसने 53 तथा 13 आर्मी ग्रुप्स (प्रत्येक एक कोर के बराबर) को तैनात किया. तंग श्याओपिंग ने अक्तूबर 1986 और मार्च 1987 में ‘भारत को सबक सिखाने’ की चेतावनी दी. भारत सरकार साहसी ऑपरेशन रणनीति से चौंक गई, जिसके चलते युद्ध छिड़ सकता था. लेकिन जनरल सुंदरजी अडिग रहे, उन्होंने सरकार को सीसीएस के 1983 के फैसले की याद दिलाई और अपनी जमीन बचाने के लिए अग्रिम तैनाती न करने के नतीजों को भी याद दिलाया. इसके परिणामस्वरूप, हतोत्साही प्रतिरोध की रणनीति को पूर्ण राजनीतिक समर्थन मिला. दिसंबर 1986 में अरुणाचल प्रदेश का गठन हुआ.

मुठभेड़ पूरे जाड़े से लेकर मई 1987 तक जारी रही, जब भारतीय विदेश मंत्री के दौरे के बाद सेनाएं पीछे हटीं, लेकिन अंतिम युद्ध विराम 1995 में हो पाया. जनरल सुंदरजी ने हतोत्साही प्रतिरोध की रणनीति को अंतिम स्वरूप प्रदान किया. इसके अलावा, उन्होंने ‘ऑपरेशन फाल्कन’ (जिसमें 10 डिवीजनों को तैनात किया गया था) जारी रखते हुए 1987 में ‘एक्सरसाइज़ चेकरबोर्ड’ लागू किया.

अप्रैल 1988 में रिटायर होते समय उन्होंने मेकेनाइज्ड फोर्सेस के कमांड को पूर्वी लद्दाख और उतारी सिक्किम भेजा. वे अतिरिक्त भर्ती के लिए एक खाका भी छोड़ गए क्योंकि न केवल हतोत्साही प्रतिरोध की रणनीति को मजबूती देने के लिए बल्कि तिब्बत पठार पर भी लड़ाई लड़ने के लिए संसाधन उपलब्ध हो रहे थे.


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क्या ‘Dissuasive Deterrence’ 2020 में विफल रहा?

अक्सर एक सवाल पूछा जाता है कि हतोत्साही प्रतिरोध (dissuasive deterrence) की रणनीति 2020 में विफल क्यों हुई, जिससे हमें 1,000 वर्गकिमी जमीन गंवानी पड़ी और चीन 1962 के बाद पहली बार 1959 की अपनी दावा रेखा को मजबूत कर पाया? उत्तर-पूर्व में अग्रिम तैनाती मैकमोहन रेखा/ एलएसी पर हावी रिज़ रेखाओं पर थी, तो इसके विपरीत पूर्वी लद्दाख में विशाल खुला क्षेत्र और एलएसी के इर्द-गिर्द का प्रतिकूल भूगोल उस पर तैनाती को रोकता था इसलिए मजबूरन अग्रिम तैनाती ऊपरी क्षेत्र के नीचे करनी पड़ी.

हतोत्साही प्रतिरोध (dissuasive deterrence) को लागू करने की कुंजी यह थी कि फॉरवर्ड ज़ोन को अचूक निगरानी में रखा जाए और वहां तैनात सैन्य टुकड़ी पर मेकेनाइज्ड फोर्सेस का वर्चस्व हो. निगरानी के आधार पर, ऐसी आपात योजना की ज़रूरत थी, जो एलएसी के इर्द-गिर्द के क्षेत्र को सुरक्षित बनाकर पीएलए को रोक सके. इस कॉलम के लेखक को जुलाई 1988 में लद्दाख में पहले कॉम्बैट ग्रुप को तैनात और कमांड करने का सौभाग्य मिला और उन्होंने मेकेनाइज्ड फोर्सेस की तैनाती के सिद्धांत को मूर्तरूप दिया.

अप्रैल-मई 2020 में जो भी हुआ उसकी कल्पना और तैयारी 32 साल पहले ही की जा चुकी थी. उदाहरण के लिए, फिंगर 8 के पूरब में सीरिजाप में मेरे कॉम्बैट ग्रुप के लिए पैंगोंग झील से होकर ऑपरेशन की पहल करने का काम सौंपा गया था. इसके साथ ही, लद्दाख में सेना को अतिरिक्त मेकेनाइज्ड फोर्सेस शामिल करके इंटीग्रेटेड बैटल ग्रुप्स की तर्ज पर कंबाइंड आर्म्स ग्रूपिंग में पुनर्गठित करने की जरूरत थी.

2020 में जो हुआ वह ‘हतोत्साही प्रतिरोध (dissuasive deterrence)’ की रणनीति की विफलता नहीं थी, बल्कि उसे लागू करने में चूक हुई. हमने संवेदनशील इलाकों में एहतियाती अग्रिम तैनाती किए बिना सड़क निर्माण शुरू कर दिया. हमारी निगरानी और टोही व्यवस्था विफल रही और पीएलए को पूर्ण आश्चर्य में डालने की छूट दी. नतीजतन, आपात योजनाएं नहीं लागू की जा सकीं. ‘फॉर्मेशन्स’ को कंबाइंड ग्रुपिंग के रूप में मान्य नहीं किया गया और उपलब्ध मेकेनाइज्ड फोर्सेस अपर्याप्त थे.

गलवान में झड़पों के बाद भी, जब पर्याप्त सेना उपलब्ध थी, तब एलएसी पर जैसे को तैसा के रूप में जवाब कायराना था. हेलमेट से लेकर सिंधु घाटी में चांगला दर्रे तक पूरे कैलाश क्षेत्र को सुरक्षित करने की जगह यह केवल रेचिन ला तक के 30 किमी क्षेत्र सीमित था.

‘हतोत्साही प्रतिरोध (dissuasive deterrence)’ की रणनीति वक्त की कसौटी पर खरी उतरी है और यह चीन को मात देने के मामले में हमारा सबसे बढ़िया दांव है, बेशक थोड़े संशोधन के साथ.

(ले.जन. एचएस पनाग, पीवीएसएम, एवीएसएम (रिटा.) ने 40 वर्ष भारतीय सेना की सेवा की है. वो जीओसी-इन-सी नॉर्दर्न कमांड और सेंट्रल कमांड थे. रिटायर होने के बाद वो आर्म्ड फोर्सेज़ ट्रिब्यूनल के सदस्य थे. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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