अग्रवाल ने अपने पत्र में प्रधानमंत्री को लिखा था कि वे उम्र और विद्वता में प्रधानमंत्री से बढ़े हैं और उनके बड़े भाई की तरह हैं. इससे प्रधानमंत्री के अहम को चोट पहुंची.
नारों और दावों के बाजार में सन्नाटा पसरा हुआ है. क्योंकि मौन मुखर हो रहा है. यह मौन आने वाले वर्षों में सरकार और समाज दोनों को सोने नहीं देगा.
एक हत्या हुई है. जी हां हत्या. प्रो. जीडी अग्रवाल उर्फ स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद ने 112 दिन अनशन करने के बाद दम तोड़ दिया. चौड़े सीने वाली शक्तिशाली सरकार ने उनसे संवाद नहीं किया. हां, संवाद का नाटक खूब खेला गया.
सत्ता जीत गई, उसे जीतना ही था, गंगा हार गई, उसकी लड़ाई जीडी अग्रवाल अकेले ही लड़ रहे थे. गंगापुत्र सत्ताहीन थे लेकिन दृढ़संकल्प से भरे हुए थे. दूसरी तरफ सत्ता थी, जिसका दंभ यह कहता है कि गंगा भी उसकी ही मिल्कियत है. सत्ता का घंमड किस कदर सिर चढ़कर बोलता है उसकी बानगी देखिए- अग्रवाल ने अपने पहले पत्र में प्रधानमंत्री को गंगा के प्रति किए गए वायदे की याद दिलाते हुए लिखा था कि वे उम्र और विद्वता में प्रधानमंत्री से बढ़े हैं और प्रधानमंत्री के बड़े भाई की तरह हैं. बस यही लाइन प्रधानमंत्री को पसंद नहीं आई. इन पंक्तियों के लेखक से खुद सानंद ने कहा था कि ‘मेरे यह लिखने से उनके अहम को चोट पहुंची है ऐसी सूचना मुझे मिली है.’ सवाल पूछा जाना चाहिए कि क्या किसी का दंभ इतना बड़ा हो सकता है कि उसके आगे गंगा और गंगापुत्र दोनों की बलि चढ़ा दी जाए.
गंगा सिर्फ बहना चाहती है, लेकिन विकास का तकाजा है कि व्यर्थ बहना संसाधन की बरबादी है. गंगा को नियंत्रित बहना सीखना होगा. कुछ जिद्दी लोगों को छोड़कर गंगा के तथाकथित पुत्रों ने यह नियति स्वीकार भी कर ली है, कि गंगा को समाज की जरूरतों के लिए ठहरना होगा. वह झील रूप में होगी तो उसकी धारा से बिजली पैदा की जा सकेगी. यदि उसे दोनों ओर से बांधा जाएगा तो वह मिट्टी को नहीं काटेगी और हिमालय की गाद लेकर मैदानों में नहीं डालेगी. गाद नहीं रहेगी तो गहराई रहेगी और उसमें बड़े जहाज चलना संभव हो सकेगा. ऐसे ही तमाम बेसिरपैर के तर्कों के साथ गंगा को मानव निर्मित और नियंत्रित नदी बनाने की पूरी तैयारी हो चुकी है.
जीडी अग्रवाल पूरे 112 दिन डटे रहे. मंगलवार से ही उन्होंने पानी भी छोड़ दिया था. लेकिन जिस सत्ता को मनाने के लिए उन्होंने पानी त्याग दिया है वो तो खुद ही गंगा का सारा पानी छीन लेना चाहती है. तो इससे क्या फर्क पड़ता है कि एक और निगमानंद आमरण अनशन की बलि चढ़ जाए. जीडी अग्रवाल ने 22 जून से अनशन प्रारंभ किया था जो निगमानंद की पुण्यतिथि है. निगमानंद भी गंगा पर अवैध खनन के खिलाफ अनशन पर बैठे थे और अंतिम सांस तक बैठे रहे.
हरिद्वार का मातृसदन बताता है कि सन्यासी का संकल्प कितना पक्का होता है. अनशन का दिन 22 जून चुना जाना ही बताता है कि वे नियति के लिए तैयार थे. जीडी अग्रवाल ने जब पानी त्यागा तो सरकार ने संवाद करने के बजाय उन्हें जबरदस्ती ऋषिकेश एम्स में भर्ती कर दिया. उनके शिथिल पड़े शरीर पर जबरदस्ती ग्लूकोज चढ़ाने की कोशिश की गई. वे सिर्फ ये चाहते कि सरकार गंगा को लेकर कुछ सार्थक कदम उठाए.
सत्ता के शीर्ष में ऐसे कई लोग हैं जिन पर जीडी अग्रवाल की हत्या का मुकदमा चलाया जाना चाहिए. संघ के कृष्णगोपाल जी की कोशिश के बाद गंगा संरक्षण मंत्री नितिन गडकरी ने एक पत्र जीडी अग्रवाल को लिखकर दिया. इस पत्र में उन चार मांगों का कोई जिक्र ही नहीं है जिनको लेकर वे अनशन पर थे. पत्र एक तरह से उनके अनशन का माखौल उड़ाता प्रतीत होता है. पत्र में कहा गया कि गंगा के पर्यावरणीय प्रवाह का ख्याल रखा जाएगा. पर यह कितने प्रतिशत होगा इस पर शातिराना चुप्पी है.
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अग्रवाल चाहते थे कि पर्यावरणीय प्रवाह सात आईआईटी की रिपोर्ट के आधार पर यानी 50 फीसद रखा जाए. पत्र में कहा गया कि जो बांध बन रहे हैं या प्रस्तावित हैं, उनके अलावा नए बांध नहीं बनाए जाएंगे यानी सरकार गंगा के मुहाने पर बनने वाली सभी बांध योजनाओं पर आगे बढ़ना चाहती है. अग्रवाल का मानना था कि कम से कम से ऊपरी धारा का कुछ हिस्सा तो अविरल रहने दिया जाए ताकि हम आने वाली पीढ़ी को दिखा सकें कि कभी गंगा 2500 किमी तक ऐसे ही बहा करती थी. पत्र में यह भी लिखा गया कि सरकार अग्रवाल की सभी मांगों पर विचार करेगी. क्या चार माह से अनशन पर बैठे व्यक्ति को इतना सतही जवाब दिया जाना चाहिए?
प्रोफेसर अग्रवाल को करीब से जानने वालों को पता है कि उनका अनशन दिल्ली में अक्सर चलने वाले अनशनों के विपरीत दृढ़ संकल्प से भरा होता है. जीडी अग्रवाल राष्ट्रीय नदी सरंक्षण निदेशालय के पूर्व सलाहकार, केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के प्रथम सचिव, चित्रकूट स्थित ग्रामोदय विश्वविद्यालय में अध्यापन और पानी– पर्यावरण इंजीनियरिंग के नामी सलाहकार के रूप में विख्यात रहे हैं. 2010 में अनशन कर उन्होंने लोहारी-नागपाला पनबिजली परियोजना पर ताला लगवा दिया था. यह परियोजना गंगा के मुहाने पर ही बन रही थी. इस परियोजना के विरोध में उन्होंने लगातार लंबा उपवास किया था, उस समय प्रणब मुखर्जी ने संवदेना दिखाते हुए, गंगा के पक्ष में निर्णय लिया और लोहारी-नागपाला को बंद करवा दिया. लोहारी-नागपाला की सुरंग के मुहाने पर एक छोटा सा गेट लगा हुआ है इसे पूरी तरह भरा नहीं गया. एनटीपीसी के अधिकारी आपसी बातचीत में यह उम्मीद जगाते हैं कि सरकार इस परियोजना को दोबारा शुरू कर सकती है.
उनके उपवास के दौरान उमा भारती ने भी बेहद चलताऊ रवैया दिखाया. वे उनसे प्रधानमंत्री के नाम पत्र लेकर गईं और वादा करके भी वापस नहीं आईं. इसके अलावा 11 सितंबर को राजीव रंजन मिश्रा, जो नमामि गंगे के प्रमुख हैं, हरिद्वार मातृसदन पहुंचे. पहली बार केंद्र सरकार का कोई नुमाइंदा आधिकारिक तौर पर सानंद से आग्रह करने गया था कि वे उपवास छोड़ दें. मिश्रा अपने साथ एक ड्राफ्ट लेकर गए थे.
ड्राफ्ट सानंद को देते हुए राजीव रंजन ने कहा कि सरकार जल्दी ही इसे बिल के रूप में पटल पर रखने वाली है, इसलिए अब आपको अनशन खत्म कर देना चाहिए. ड्राफ्ट का नाम था ‘द नेशनल रिवर रिजुवनेशन प्रोटेक्शन एंड मैनेजमेंट बिल- 2018’. सानंद ने ड्राफ्ट पढ़ने के लिए एक दिन का समय मांगा. उन्हे लगा यह सरकार का गंभीर प्रयास है और उनकी मांगों पर विचार किया जा रहा है. राजीव रंजन ने उनसे कहा कि वे कल आ जाऐंगे, तब तक सानंद ड्राफ्ट पढ़ लें और अच्छा होगा अभी अनशन त्याग दें. सानंद ने कहा कि मैं आपकी जल्दबाजी समझता हूं लेकिन मुझे पढ़ लेने दीजिए.
शाम तक पता चला कि गंगा मंत्रालय के सबसे बड़े अधिकारी हरिद्वार में रुके ही नहीं. उन्होंने जीडी अग्रवाल से झूठ बोला था, वे उसी दिन वापस दिल्ली चले गए. सानंद समझ गए कि ड्राफ्ट और कुछ नहीं, सिर्फ बेवकूफ बनाने की कोशिश थी. बेशर्मी यह कि उन्हें बताना भी उचित नहीं समझा गया और ना ही दिल्ली जाकर सानंद से संपर्क करने की कोई कोशिश की गई.
एक दिन पहले ही यानी 10 अक्टूबर को सरकार के नुमाइंदे बनकर भाजपा सांसद रमेश पोखरियाल निशंक मातृसदन पहुंचे. उन्होने अग्रवाल से कहा कि सरकार एक नोटिफिकेशन जारी कर रही है जिसमें उनकी ज्यादातर मांगे मान ली गई हैं. लेकिन निशंक अग्रवाल के इस मामूली सवाल का जवाब भी नहीं दे सके कि न्यूनतम पर्यावरणीय बहाव तक करने का सरकार का आधार क्या है?
अपनी हत्या से कुछ दिन पहले ही वे निराश हो चुके थे, उन्होंने कहा कि मेरे आसपास ‘कंपीटेंड’ लोग बहुत हैं लेकिन इस दौर में ’कमिटमेंट’ नजर नहीं आता. पर्यावरणीय आंदोलन में अब ऐसा कोई चेहरा नजर नहीं आता जिसमें अग्रवाल जैसी दृढ़ इच्छाशक्ति हो.
मुख्यधारा के मीडिया में उनकी मौत से पहले भुतहा चुप्पी छाई हुई थी, वह रह रह कर ‘पर्यावरण विजेता’ जैसे नारे लगाता रहता है और खुद के जिंदा होने का दंभ भरता है. साधु-संत राम मंदिर और गंगा के मुद्दे पर प्रधानमंत्री से हस्तक्षेप की मांग कर रहे हैं. लेकिन संशय में हैं कि उनकी आवाज भी सुनी जाएगी या नहीं!
एक ओर गंगा भी है जो अपने सभी पुत्रों को देख रही है. उसकी नजर पहाड़ों पर चल रही चार धाम योजना पर भी है और मैदान की डिसिल्टिंग पॉलिसी पर भी है. वह असहाय नजर आ रही है, लेकिन है बिल्कुल नहीं. अपनी ताकत का एक नमूना वह 2013 में केदारनाथ में दिखा चुकी है. उसे फिर मजबूर करना आत्मघात के सिवा कुछ नहीं है. अग्रवाल की मौत, दंभ में चूर सत्ता की घोर असफलता है. अग्रवाल के मौन की गूंज बहुत दूर तक सुनाई देगी.
अभय मिश्रा लेखक और पत्रकार है.