हाल ही में की गई तीन घोषणाओं ने आने वाले साल के लिए भारतीय विदेश नीति के लिए बहुत हद तक बिसात बिछा दी है. सबसे पहले, भारत-अमेरिका संबंधों पर विदेश मंत्री एस जयशंकर ने सटीक टिप्पणी की. दूसरा, एनर्जी ट्रैकर वोर्टेक्सा के अनुसार, रूस से भारत द्वारा कच्चे तेल का एक्सपोर्ट एक दिन में दस लाख बैरल के उच्चतम स्तर पर पहुंच जाना.
तीसरी घोषणा, दुनिया के तीसरे सबसे अमीर व्यक्ति और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करीबी माने जाने वाले गौतम अडाणी द्वारा रणनीतिक रूप से भूमध्यसागर पर स्थित इज़राइल में हाइफा बंदरगाह की खरीद की डील 1.15 बिलियन डॉलर में पूरी करना.
एक-दूसरे से अलग दिखाई देने वाली तीनों घटनाएं असल में जुड़ी हुई हैं- ये दिलचस्प बात है. दिल्ली में अनंत एस्पेन सेंटर थिंक-टैंक द्वारा आयोजित एक सम्मेलन में हाई-प्रोफाइल दर्शकों के सामने जयशंकर का संदेश, दोस्तों को दी गई सलाह थी, जिससे भारत-अमेरिका संबंध का लेना-देना नहीं है, इसलिए रक्षा सामानों की खरीद को बदलाव के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए.
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अमेरिका के लिए सलाह
जयशंकर भारतीय नौसेना के लिए 26 फ्रेंच राफेल जेट और अमेरिकी फर्म बोइंग के एफ/ए 18 सुपर हॉर्नेट विमान खरीदने की सरकार की योजना को खारिज करने की बात करें या नहीं, यह अच्छी सलाह है, जिसे अमेरिकी ध्यान से सुनते हुए शांति बनाए रखना सीख रहे हैं.
यूक्रेन पर हमला करने के कुछ दिनों बाद रूस से रियायती दरों पर कच्चा तेल खरीदने के भारत के फैसले की अमेरिका ने आलोचना की थी, हालांकि, इस मसले पर भारत की ओर से दी गई प्रतिक्रिया सीखने लायक है.
अमेरिका का गुस्सा तानाशाह व्लादिमीर पुतिन को किनारे करने के भारत के फैसले से जुड़ा हुआ है, जब वह यूक्रेन में निर्दोष पुरुषों, महिलाओं और बच्चों पर मिसाइलें बरसा रहा था- भारत ने असहमति जताई थी, लेकिन ये भी कहा था कि सस्ता तेल खरीदने का लालच अनदेखा नहीं किया जा सकता था.
मोदी सरकार की पहली प्राथमिकता अर्थव्यवस्था को अपने सभी नागरिकों के लिए दुरुस्त बनाना है. रूस के अलावा कहीं ओर से तेल खरीदना बहुत महंगा था – खासकर तब, जब अमेरिका ने पारंपरिक साझेदारों और तेल उत्पादक देशों ईरान और वेनेजुएला पर प्रतिबंध लगा दिया और कोविड-19 ने भारत के बजट में सेंध लगाई.
अमेरिका इसे समझ गया और उसने अपनी नाखुशी को निजी बातचीत में तब्दील कर दिया. भारत द्वारा रूस से तेल की खरीद केवल बढ़ी है – ऊर्जा ट्रैकर वोर्टेक्सा ने पुष्टि की है कि दिसंबर में प्रति दिन दस लाख बैरल से अधिक तेल खरीदा गया था.
भारत पिछले एक साल से उस स्थिति में रहा – यूक्रेन में पुतिन जो कर रहा है, उस पर नाक भी चढ़ाई, लेकिन ज्यादा कुछ कह भी नहीं पाया क्योंकि उसे रूस की ज़रूरत है. इस सर्दी में यूरोप की स्थिति पर एक नज़र डालें, जब लोगों को घरों में इस्तेमाल के लिए भी संसाधनों का उपयोग कम करने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है, तो आपको यही लगेगा कि मोदी सरकार ने इस रास्ते पर चलने का सही फैसला किया है.
एस्पेन सेंटर सम्मेलन में पेट्रोलियम मंत्री हरदीप सिंह पुरी की उपस्थिति रूस और अमेरिका पर सरकार की बीच के रास्ते को चुनने की रणनीति को मजबूत करती है. भारत वाशिंगटन डीसी के साथ अपने संबंधों पर बहुत भरोसा करता है और उम्मीद करता है कि बाइडन प्रशासन उसकी मजबूरियों को समझेगा.
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दिल्ली की पहेली
कुछ ऐसा है जो नई दिल्ली को बाइडन प्रशासन के बारे में बिल्कुल समझ नहीं आता- वह ये कि अपने कार्यकाल के दो वर्षों के दौरान भारत में राजदूत नामित करने से इनकार करना और लॉस एंजिल्स के पूर्व मेयर एरिक गार्सेटी को नामित करने पर अड़े रहना.
द लॉस एंजिलिस टाइम्स के एक लेख में कांग्रेस सांसद शशि थरूर के अलावा किसी और ने इस विचार को उजागर नहीं किया, जिसमें कहा गया कि भारत असमंजस में है कि अमेरिका के साथ उसकी साझेदारी को बाइडन प्रशासन इतनी लापरवाही से क्यों ले रहा है.
जाहिर है, अगर गार्सेटी के नाम पर मुहर लगाने में समस्या आ रही है, तो क्या कोई अन्य अमेरिकी नहीं है जो यहां फिट बैठता हो? या बाइडन दोनों विचारों और दोस्ताना स्थिति से बाहर हो गए हैं और वास्तव में भारत के संबंधों की परवाह नहीं करते हैं?
इसलिए गौतम अडाणी द्वारा भूमध्यसागर पर हाइफा बंदरगाह को खरीदना इतना महत्वपूर्ण है. कोई गलती नहीं, यह एक रणनीतिक फैसला है. इज़राइली हारेत्ज़ अखबार के अनुसार, अडाणी की बोली दूसरी बोलियों की तुलना में पांच गुना अधिक थी. इसने ये भी कहा, “कीमत कम महत्वपूर्ण थी” हाइफा खाड़ी के उस पार चीनी बैठते हैं – उन्होंने हाइफा कंटेनर टर्मिनल खरीद लिया है. तो वहीं, कुछ का कहना है कि अडाणी चीनी हाइफा पोर्ट को भी खरीदने में रुचि दिखा रहे थे.
अडाणी की इस डील से संकेत मिलते हैं कि शहर में एक नया खेल शुरू हो गया है – भारत का चीनियों से बराबरी करने का दृढ़ संकल्प. इसमें भी संदेह नहीं है कि भारतीय दृष्टिकोण को कोई और नहीं बल्कि अमेरिकी ही रेखांकित करते हैं.
दिल्ली ज़रूर सावधान हो रही है. इससे समझ आता है कि काउबॉय का खेल खेलने की जरूरत नहीं है- चीनी अगले दरवाज़े पर हैं, लद्दाख में उनकी गर्दन झुक रही है, और अब विरोध की जरूरत नहीं है. इसीलिए भारत का मानना है कि क्वाड कोई सैन्य गठबंधन नहीं है – कोविड वैक्सीन का वितरण और अर्थव्यवस्था में सुधार शुरू करने के लिए यह अच्छी जगह है.
क्वाड और रूस-अमेरिका विवाद दोनों पर बीच के रास्ते पर चलने का भारत का फैसला बिल्कुल सही है. यह और भी मुश्किल है – मास्को या वाशिंगटन डीसी के बीच टोपी घुमाना आसान है, लेकिन टेढ़े-मेढ़े रास्ते पर चलने के लिए साहस की जरूरत होती है. लगता है कि प्रधानमंत्री मोदी और उनकी टीम ने पिछले एक साल में भारत की सबसे कठिन विदेश नीति चुनौती को पूरा किया है.
(संपादन: फाल्गुनी शर्मा)
(लेखक कंसल्टिंग एडिटर हैं. उनका ट्विटर हैंडल @jomalhotra है. व्यक्त विचार निजी हैं.)
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